राम जाति, वर्ण, लिंग आदि का भेदभाव नहीं रखते। वे सर्वाधिक चिंता छोटे और निचले स्तर के लोगों की करते हैं। वे सबल की अपेक्षा निर्बल का, बड़े की अपेक्षा छोटे का, ऊंचे की अपेक्षा नीचे का, अमीर की अपेक्षा गरीब का पक्ष लेते हैं
गीता में भगवान श्रीकृष्ण अपने अवतार धारण के तीन कारण बताते हैं- सज्जनों की रक्षा, दुर्जनों का विनाश और धर्म की संस्थापना। श्रीराम का अवतार भी असुरों के संहार और धर्म की स्थापना के लिए हुआ। जिस प्रकार सज्जनों की रक्षा के लिए दुर्जनों का विनाश अनिवार्य है, उसी प्रकार धर्म की संस्थापना के लिए धर्म का आचरण अनिवार्य है। राम इसीलिए मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाते हैं कि उन्होंने अपने शील और आचरण से धर्म की मर्यादा स्थापित की। वे सूत भर भी उस मर्यादा से विचलित नहीं हुए। उन्होंने व्यक्ति धर्म और समाज धर्म के मानदंड स्थापित किए। वैयक्तिक धर्म के रूप में उन्होंने आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श पति, आदर्श मित्र, आदर्श शिष्य और आदर्श राजा की मर्यादाओं का पालन किया। सामाजिक धर्म के रूप में राम का मूल आधार सामाजिक समरसता था।
सामाजिक समरसता का अर्थ है अपने वर्ग, जाति और समुदाय से भिन्न लोगों के प्रति सम्मानजनक व्यवहार। ‘अन्य’ के प्रति प्रेम और आत्मीयतापूर्ण व्यवहार ही सामाजिक समरसता है। राम राजपुत्र थे, उच्च वर्ण में जन्मे थे, किन्तु समाज में हीन और निम्न कहे जाने वाले समुदाय के लोग उनके सर्वाधिक प्रिय पात्र रहे। राम की इस विलक्षणता को बताते हुए तुलसीदास विनयपत्रिका में कहते हैं, ‘‘हे राम! आपकी यही तो बड़ाई है कि आप गण्य-मान्यों, धनिकों की अपेक्षा गरीबों को अधिक आदर देते हैं।’’
रघुवर रावरि यहै बड़ाई।
निदरि गनी आदर गरीब पर,
करत कृपा अधिकाई।।
राम इसलिए सबसे बड़े हैं कि वे सर्वाधिक चिंता छोटे और निचले स्तर के लोगों की करते हैं। वे सबल की अपेक्षा निर्बल का, बड़े की अपेक्षा छोटे का, ऊंचे की अपेक्षा नीचे का, अमीर की अपेक्षा गरीब का पक्ष लेते हैं। सुग्रीव भले ही बहुत नैतिक व्यक्ति नहीं था। बाली की तरह वह भी आचरणगत दुर्बलताओं से ग्रस्त था। पर बाली के मुकाबले दुर्बल एवं बाली का सताया हुआ प्राणी था। इसी कारण राम सुग्रीव के साथ खड़े होते हैं। अहिल्या शापित और उपेक्षित स्त्री थी। सामाजिक उपेक्षाओं और तिरस्कारों के कारण वह पथरा गई थी। राम उसकी भी सुध लेते हैं। विभीषण जैसा सदाचारी व्यक्ति अपने ही कुल के दुराचारियों के मध्य ऐसे जीवनयापन कर रहा था, जैसे दांतों के बीच में जीभ रहती है। हनुमान से प्रथम भेंट पर ही वह अपना दुखड़ा रो देता है। ‘सुनहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दसनन्हि महुं जीभ बिचारी॥’ राम उसको भी अपनी शरण में ले लेते हैं। यह भरोसा ही संकट में पड़े हुए कोटि-कोटि जन को संबल देता है और उनके मुंह से सबसे पहले यही प्रार्थना निकलती है-
दीन दयाल विरदु संभारी।
हरहुं नाथ मम संकट भारी।।
अध्यात्म रामायण के शबरी प्रसंग में शबरी जब कहती है कि, हे राम! आपका दर्शन तो मेरे गुरुदेव को भी नहीं हुआ, मेरी तो औकात ही क्या है? मैं तो नीच जाति में उत्पन्न हुई एक गंवार स्त्री हूं, तो प्रत्युत्तर में राम कहते हैं कि मेरी भक्ति में न पुरुष-स्त्री का लिंगभेद कारण है, न जाति, न नाम और न आश्रम। भक्ति की भावना ही मेरी भक्ति में कारण है।
पुंस्त्वे स्त्रीत्वे विशेषो वा जातिनामाश्रमादय:।
न कारणं मद्भजने भक्तिरेव हि कारणम्।।
(अरण्य काण्ड, दशम सर्ग-20)
राम की यह ऐतिहासिक घोषणा भक्ति के क्षेत्र में सामाजिक समरसता का उज्ज्वल प्रमाण है। तुलसीदास भी यही बात कहते हैं।
कह रघुपति सुनु भामिनी बाता।
मानऊं एक भगति कर नाता।।
जाति पांति कुल धर्म बडाई।
धन बल परिजन गुन चतुराई।।
राम की भेदभाव रहित भावना का रोमांचक वर्णन तुलसीदास मानस में निषादराज से भेंट के प्रसंग में करते हैं। एक चक्रवर्ती सम्राट और एक महान् ऋषि से एक अछूत केवट की भेंट का जो वर्णन अयोध्या कांड में मिलता है, वह हमारी आंखें खोल देने वाला दृश्य है। निषाद तो इतना अस्पृश्य है कि उसकी छाया के छू जाने मात्र पर लोग पानी का छींटा लेते हैं। लोकव्यवहार में भी और शास्त्रों के अनुसार भी उसे सब नीच ही मानते हैं। उस अछूत को दण्डवत करते देख भरत उसको उठा कर अपने हृदय से लगा लेते हैं, मानो अपने भाई लक्ष्मण से मिल रहे हों।
लोक बेद सब भांतिहिं नीचा।
जासु छांह छुइ लेइअ सींचा॥
तेहि भरि अंक राम लघु भ्राता।
मिलत पुलक परिपूरित गाता॥
करत दण्डवत देखि तेहि, भरत लीन्ह उर लाइ।
मनहुं लखन सन भेंट भई, प्रेम न हृदय समाइ।।
और जब इसी अछूत की वशिष्ठ ऋषि से भेंट होती है, तो यह छोटा सा मिलन-दृश्य एक युगान्तकारी घटना बन जाता है। सामने से वशिष्ठ ऋषि को आते देख निषाद प्रेम में भर उठता है। किन्तु लोक प्रचलित मर्यादा से बंधा होने के कारण वह एक उचित दूरी रखते हुए, दूर से ही अपना नाम पुकार कर दण्डवत प्रणाम करता है। महर्षि वशिष्ठ सारी लोकरूढ़ियों को ध्वस्त करते हुए नीची जाति में जन्मे इस रामसखा को स्वयं आगे बढ़कर गले से लगा लेते हैं।
प्रेम पुलक केवट कहि नामू।
कीन्ह दूर तें दंड प्रनामू।।
राम सखा रिषि बरबस भेंटा।
जनु महि लुठत सनेह समेटा।।
वशिष्ठ ने केवट को गले लगा कर धरती पर पसरे हुए प्रेम को मानो समेट लिया। ‘जनु महि लुठत सनेह समेटा’ की प्रतिध्वनि बहुत दूर तक जाती है। कितनी सदियों से धरती पर आपसी प्रेम दूर हुआ जा रहा था, अछूतों के प्रति सवर्णों का स्नेह धरती पर लुढ़के हुए स्नेह (मक्खन) की भांति बिखरा जा रहा था। ऋषिवर ने उसे अपनी बांहों में समेट लिया।
शूद्र वर्ण या आज की शब्दावली में दलित कहे जाने वाले वर्ग के प्रति राम का क्या दृष्टिकोण है? यह जानने के लिए आवश्यक है कि हम राम के ‘निज सिद्धांत’ को जानें। मानस के उत्तरकांड में श्रीराम ‘निज सिद्धांत’ की घोषणा करते हैं। बहुत स्पष्ट शब्दों में की गई इस घोषणा को जाने बिना ही कुछ जड़बुद्धि लोग अपनी अनपढ़ता के चलते ‘ढोल गंवार सूद्र पशु नारी’ के आगे न कुछ पढ़ना चाहते हैं, न कुछ सुनना। समुद्र के द्वारा प्रस्तुत इस उक्ति पर मूर्खों की तरह अटके रहते हैं। किंतु राम की स्वयं की क्या मान्यता है, उस ओर उनकी दृष्टि नहीं जाती। राम बहुत स्पष्ट शब्दों में अपना सिद्धांत बताते हैं, बल्कि यह भी कहते हैं कि ‘निज सिद्धांत सुनावउं तोही। सुनु मन धरि….।’ इसे बहुत ध्यान से सुनो!
यह हमारे युग का परम दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है कि कोई इसे सुनना नहीं चाहता। वे कहते हैं कि, यों तो समस्त प्राणी मेरे ही द्वारा उत्पन्न किये गए हैं, सभी मुझे प्रिय हैं, अप्रिय कोई नहीं, परन्तु सभी प्राणियों में मनुष्य मुझे सर्वाधिक प्रिय हैं। आगे वे कहते हैं कि मनुष्यों में भी द्विज, द्विजों में भी वेदपाठी, वेदपाठियों में भी वेदधर्म का अनुसरण करने वाले, उनमें भी विरक्त, विरक्तों में भी ज्ञानी, ज्ञानियों में भी विज्ञानी-अध्यात्मज्ञानी, मुझे परम प्रिय हैं। किंतु इन उत्तरोत्तर उत्कृष्ट से उत्कृष्ट व्यक्ति की अपेक्षा भी मुझे अपना दास ही अधिक प्रिय है।
सब मम प्रिय सब मम उपजाए।
सब तें अधिक मनुज मोहि भाए।।
तिन्हं महं द्विज तिन्हं महं श्रुतिधारी।
तिन्हं महं निगम धरम अनुसारी।।
तिन्हं महं प्रिय विरक्त पुनि ग्यानी।
ग्यानिहुं ते प्रिय अति विज्ञानी।।
तिन्हं ते पुनि मोहि प्रिय निज दासा।
जेहि गति मोर न दूसर आसा।।
पुनि पुनि सत्य कहहुं तोहि पाही।
मोहि सेवक सम प्रिय कोई नाही।।
राम यहां इस बात को कितना जोर देकर कह रहे हैं कि यह बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए, यदि ‘पुनि पुनि सत्य कहहुं तोहि पाही’ पर हमारा ध्यान जाता हो। किसी बात को पुनि पुनि कहने की जरूरत तभी महसूस होती है, जब उस बात को दृढ़तापूर्वक स्थापित करने की मंशा होती है। राम की इस घोषणा में किसी तरह की अस्पष्टता या संशय न रहे, इस हेतु वे आगे फिर कहते हैं-
भगतिवन्त अति नीचहुं प्रानी। मोहि प्रानप्रिय असि मम बानी।।
अर्थात् अत्यधिक नीच भी यदि कोई भक्त है, तो वह मुझे प्राणों से भी प्रिय है।
यहां जो बात हर हाल में याद रखने की है, वह यह कि इस घोषणा को राम ने ‘निज सिद्धांत’ कहा है। अपना स्वयं का सिद्धान्त। वेद, शास्त्र, लोकाचार जो कहता है, कहता होगा, उसमें मत-मतान्तर और विभेद रहते होंगे। राम की व्यक्तिगत मान्यता तो यही है।
समरसता के अग्रेसर राम जाति, वर्ण, लिंग आदि का भी कोई भेदभाव नहीं रखते। जिस ‘थर्ड जेंडर’ पर ध्यान केंद्रित किए जाने को आज मानवाधिकारों की पहल और प्रेरणा बताया जाता है, तुलसी के राम अपनी भक्ति के लिए स्त्री-पुरुष के साथ इस वर्ग को भी याद रखते हैं। तुलसीदास डंके की चोट पर कहते हैं,
पुरुष नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोइ।
सर्ब भाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ।।
यह रामभक्ति का ही बल और प्रताप है कि पक्षियों के राजा गरुड़ का गर्वशमन एक तुच्छ-से पक्षी कौए से होता है। यह कोई साधारण बात नहीं है कि जिस गरुड़ को विष्णु के परमसेवक का स्थान मिला, जो पक्षियों के राजा के रूप में पूज्य है, वह गरुड़ समस्त रूप-गुण-ज्ञानराशि संपन्न पक्षियों के साथ कागभुशुण्डि के आगे हाथ जोड़े खड़े हैं। उससे ज्ञानोपदेश ग्रहण कर रहे हैं। उसकी भक्ति के आगे नतमस्तक हैं। यह कथा अपने प्रतीकार्थ में भक्ति के माध्यम से एक निंदित और तिरस्कृत पक्षी के सर्वोच्च सम्मान को पा लेने एवं उसके सम्मुख सम्राटों और शक्तिशाली सत्ताधीशों के नतमस्तक हो जाने की भी कथा है। यह कथा राम की भक्ति में ऊंच-नीच एवं छोटे-बड़े के भेद को समाप्त कर सामाजिक समरसता की प्रेरणा देती है।
वस्तुत: रामकथा का उद्गम ही संपूर्ण समाज के लिए हुआ है। वाल्मीकि रामायण के आरंभ में ही इस ग्रंथ की फलश्रुति में लिखते हैं-
पठन् द्विजो वागृषभत्वमीयात्,
स्यात्क्षत्रियो भूमिपतित्वमीयात्।
वणिग्जन: पण्यफलत्वमीयात्,
जनश्च शूद्रोऽपि महत्वमीयात्।।
(बालकाण्ड, 1/100)
अर्थात् इस ग्रंथ को ब्राह्मण पढ़े तो विद्वान हो जाए, क्षत्रिय पढ़े तो राज्य प्राप्त करे, वैश्य पढ़े तो व्यापार में लाभ हो जाए और शूद्र भी पढ़े तो प्रतिष्ठा को प्राप्त हो जाए।
बहुधा ऐसा उल्लेख किया जाता है कि प्राचीन वाड्मय में शूद्रों को अध्ययन-अध्यापन से वंचित रखा गया। महामुनि वाल्मीकि की यह घोषणा इस मिथ्या और भ्रामक धारणा को ध्वस्त कर देती है। यहां शूद्र को भी रामकथा पढ़ने का अधिकार तो दिया ही गया है, इसके पाठ से उसका महत्व बढ़ने की भी कामना की गई है। सामाजिक समरसता बढ़ाने में रामकथा की भूमिका का इससे बड़ा और क्या प्रमाण होगा?
आदिकवि वाल्मीकि श्रीराम के दो प्रमुख गुण बताते हैं- ‘रक्षिता जीवलोकस्य धर्मस्य परिरक्षिता।’ (बालकाण्ड, 1/13)
करुणामूर्ति राम संसार के जीवमात्र के रखवाले और धर्म के रक्षक हैं। इसीलिए तो वे भक्तों पर प्रेम उंड़ेलने वाले हैं। विश्वास न हो तो निषाद से पूछिए! शबरी से पूछिए! कोल, किरातों से, वनवासियों से पूछिए! पूछिए उस गिलहरी से, जो अभी तक अपने राम की अंगुलियों के निशान अपनी पीठ पर लिए इतराती डोलती है।
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