द्विपीय देश ताइवान को लेकर जहां चीन जासूसी गुब्बारा भेजकर उसकी जासूसी करते पकड़ा गया है वहीं कम्युनिस्ट विस्तारवादी देश वहां वोटरों को भी मतदान से टीक पहले धमकाता पाया गया है। ताइवान को अपनी ‘जमीन का हिस्सा’ बताकर दुनिया में एक गलत संकेत देते आ रहे चीन ने अमेरिका को भी फिर से एक बेमांगी सलाह दी है कि ताइवान के मामले में दखल न दी जाए तो बेहतर होगा।
ताइवान में कल यानी 13 जनवरी को आम चुनाव होने तय हैं। इससे ठीक एक दिन पहले आया चीन का बयान कहता है कि ताइवान के वोटरों के सामने दो रास्ते हैं। ड्रैगन का कहना है कि ताइवान के वोटर तय कर लें कि अमन चाहते हैं या युद्ध।
ताइवान में कल राष्ट्रपति पद के चुनाव के लिए वोट डाले जाने हैं। कम्युनिस्ट चीन ने अपनी दादागिरी दिखाते हुए वहां के वोटरों को कहा है कि अपना फैसला सोच—समझकर करें और ‘सही विकल्प’ पर मुहर लगाएं। जैसा पहले बताया, कम्युनिस्ट ड्रैगन ताइवान को अपने ‘वन चाइना’ सिद्धांत के तहत अपनी जमीन का अंग बताता आ रहा है। उस देश पर वह अपना दावा ठोंकता आ रहा है। अब वहां चुनाव के मौके पर बीजिंग को लग रहा है कि अगर ताइवान में आज की सत्तारूढ़ पार्टी के उम्मीदवार विलियम लाई जीतते हैं तो दोनों के रिश्तों में खटास और बढ़ जाएगी।
इन चुनावों में भी ताइवान में दो तरह की सोच हावी है। एक, जो ताइवान को एक स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र के नाते बनाए रखना चाहती है तो दूसरी सोच है चीनपरस्ती की, जो चीन के फरमानों पर चलना चाहती है। अगर इस दूसरी सोच के नेता चुनाव जीते तो चीन उस देश पर अपना शिकंजा बेखटके कस पाएगा। इसलिए चीन नहीं चाहता कि देशभक्त पहली सोच के उम्मीदवार इन चुनावों में कुर्सी पर बैठें और उसके लिए आगे मुश्किलें खड़ी करें।
कम्युनिस्ट ड्रैगन सालों से एक ही रट लगाए हुए है कि ताइवान चीनी मुख्य भूमि का हिस्सा है। चीन उसे एक अलग प्रांत बताता है जिसे ‘आखिरकार मुख्य भूमि में मिलाना’ है। इसके लिए वह ताइवान पर तरह तरह से दबाव बनाता रहा है, युद्ध की धमकियां देता रहा है। उस देश से संबंध रखने वाले दूसरे देशों और संगठनों को धमकाता आ रहा है।
ताइवान को लेकर अमेरिका, जापान और आस्ट्रेलिया जैसे देशों से भी चीन चिढ़ा हुआ है क्योंकि इन्होंने ताइवान के साथ उसे एक संप्रभु देश मानकर द्विपक्षीय संबंध बनाए रखे हैं। चीन नहीं चाहता कि ताइवान में अमेरिका को कैसा भी प्रभाव रहे। वैसे भी अमेरिका और चीन के बीच दुनिया पर दबदबे को लेकर तनाव दिख ही रहा है। ताइवान का विषय चीन के व्यवहार को और तीखा बना रहा है।
सवाल है कि ताइवान के लोग क्या चाहते हैं? अधिकांश ताइवानवासी नहीं मानते कि वे चीन का हिस्सा हैं। ताइवानी अपने देश को एक स्वतंत्र और संप्रभु देश के रूप में ही मानते आए हैं। वे चीन की आक्रामकता को गलत मानते हैं। वे शांति चाहते हैं, विकास चाहते हैं और यह सब अपनी सरकार के शासन तले ही चाहते हैं, किसी विस्तारवादी कम्युनिस्ट देश के तहत नहीं।
लेकिन इन सब चीजों से परे, कम्युनिस्ट ड्रैगन सालों से एक ही रट लगाए हुए है कि ताइवान चीनी मुख्य भूमि का हिस्सा है। चीन उसे एक अलग प्रांत बताता है जिसे ‘आखिरकार मुख्य भूमि में मिलाना’ है। इसके लिए वह ताइवान पर तरह तरह से दबाव बनाता रहा है, युद्ध की धमकियां देता रहा है। उस देश से संबंध रखने वाले दूसरे देशों और संगठनों को धमकाता आ रहा है। चीन के कम्युनिस्ट शासक राष्ट्रपति शी जिनपिंग तो यहां तक कह चुके हैं कि ताइवान को अपने साथ मिलाने के लिए अगर जरूरत पड़ी तो सैन्य कार्रवाई तक करने से हिचकिचाएंगे नहीं।
पिछले दिनों अमेरिका की ओर से कहा गया था कि ताइवान में होने जा रहे चुनाव में वह ‘अनआफिशिल डेलिगेशन’ भेजेगा। लेकिन यह बयान आने के फौरन बाद चीन का विदेश मंत्रालय हरकत में आ गया और अमेरिका को चेताया कि अमेरिका की सरकार ताइवान के ‘चुनावों में दखल देने से दूर रहे’। ऐसा नहीं होता तो अमेरिका-चीन रिश्तों को भारी नुकसान पहुंच सकता है।
ऐसे तनावपूर्ण महौल में ताइवान में कल के लिए तय आम चुनावों पर दुनियाभर के कूटनीतिक विशेषज्ञों की नजर है। चीन वहां किसी तरह का प्रभाव पैदा करने में कामयाब होगा कि नहीं, यह तो वक्त ही बताएगा।
टिप्पणियाँ