भारत और मालदीव्स के मामले में जो भी हो रहा है, वैसा भी हो सकता है, इसकी कल्पना शायद ही आज से पहले भारत के एक बड़े वर्ग ने की होगी। अपने आत्मसम्मान को लेकर जो स्वत:स्फूर्त भाव उपजे हैं, उसे देखकर लोग स्तब्ध हैं। आज से कुछ वर्ष पहले तक भारत को लेकर विदेशों में जो भी अपमानजनक कह दिया जाता था, उस पर बहुत ही कम लोग आपत्ति व्यक्त करते थे। और विदेशी ही क्यों, भारत में विदेशियों को लाकर सपेरों और मदारी का खेल दिखाया जाता था। भारत को मदारियों और सपेरों का देश कहा जाता था।
विदेशों से लोगों को लाकर भारत की गरीबी दिखाई जाती थी, या कहें बेची जाती थी। अभी बहुत दिन नहीं हुए जब भारत में कविता और कहानी के नाम पर भारत की दुर्दशा को ही दिखाया जाता था। यह कहा जाए कि भारत की गरीबी को ही लिखना और बेचना चलता था। मगर भारत की जनता को यह बर्दाश्त नहीं हुआ और न ही होता था। भारत की जनता ने थोपी हुई गरीबी को नकारना शुरू किया और वर्ष 2014 के बाद सरकार के बदलने के बाद आत्मनिर्भरता की और आत्म गौरव की नई परिभाषाएँ रची गईं। परन्तु एक बड़ा वर्ग जो कला के नाम पर भारत की गरीबी को महिमामंडित करके अपनी जेबें भरता था, उसे वह पसंद नहीं आया। भारत का अपने पैरों पर खड़ा होना उसके लिए किसी सदमे से कम नहीं था। यह ऐसा ही था जैसे उसकी बनी बनाई धारणाओं पर आघात हो जाना। भारत हमेशा से ही सोने की चिड़िया रहा था और यह तमाम विदेशी यात्रियों की पुस्तकों में लिखा हुआ है। भारत से व्यापार करने के लिए हमेशा ही पूरा विश्व लालायित रहता था।
अंग्रेजों ने अवश्य ही भारत की बौद्धिक संपदा पर आघात करके भारत को पीछे करने का प्रयास किया, परन्तु भारत की उद्यमिता ने कभी भी घुटने नहीं टेके थे। ये भारत के उद्यमियों का ही प्रताप था कि स्वतंत्रता आन्दोलन की लौ धीमी नहीं हुई। कुल मिलाकर यह कहा जाए कि भारत में आत्म-गौरब का भाव पुरातन है। वामपंथी इतिहासकारों, वामपंथी लेखकों, वामपंथी फिल्मकारों एवं कांग्रेस सरकार ने अवश्य भारत के इस लोक में बसे गौरव को नष्ट करने का प्रयास स्वतंत्रता के बाद किया, परन्तु जैसे ही जनता ने इसे समझा, वैसे ही उसने इसे उतार फेंका।
हालांकि वामपंथी लेखकों, फिल्मकारों एवं मीडिया कर्मियों ने अपने अपने स्तर पर यह भरसक प्रयास किया कि आत्महीनता की भावना भारत के लोगों में भरी रहे। वह टूटी झोपड़ी दिखाकर अपनी फ़िल्में बेचते रहें, नेता भारत की गरीबी दिखाकर विदेशी सहायता लेते रहें। परन्तु उनके भरसक प्रयासों के बाद भी भारत की जनता ने उनकी नहीं सुनी और एक ऐसी सरकार को चुना जिसके लिए राष्ट्र प्रथम था।
जिसके लिए सांस्कृतिक मूल्य सबसे बढ़कर थे और जिसके लिए भारत को स्वच्छ बनाना भी भारत के व्यापार के समान ही महत्वपूर्ण था। जब भारत के प्रधानमंत्री मोदी ने स्वच्छ भारत अभियान एवं शौचालय बनाने की योजना का आरम्भ किया था तो वही वर्ग जिसने अब तक भारत की गरीबी बेचकर अपना पेट भरा था, और भारत को नीचा दिखाकर ही जैसे अपनी पत्रकरिता की थी, उसने श्री नरेंद्र मोदी एवं उन तमाम लोगों का उपहास उड़ाया कि यही काम किया जाएगा क्या?
श्री नरेंद्रमोदी भारत के ऐसे प्रथम प्रधानमंत्री रहे होंगे, जिन्होनें खुले में शौच न किया जाए, इसके लिए प्रत्यक्ष सम्वाद किया और कदम उठाए। आज मालदीव वाले मामले पर खुले में शौच के खिलाफ अभियान की बात क्यों की जा रही है, ऐसा विचार मन में आना स्वाभाविक है। दरअसल वह वर्ग जिसने भारत की गंदगी दिखाकर ही अपनी जेबें भरी होंगी, वह वर्ग इस बात से बहुत कुपित है कि भारत के समुद्री तटों की ख़ूबसूरती को मालदीव जैसे देशों की ख़ूबसूरती के सामने कैसे प्रचारित किया जा सकता है?
इसलिए वह पुरानी तस्वीरें, पुराने ऐसे वीडियो लेकर आ रहा है जिसमें समुद्री तटों के किनारे बैठकर लोग खुले में शौच कर रहे हैं। और ऐसा करने वाले कोई और नहीं बल्कि कथित रूप से सम्मान प्राप्त फिल्मकार और कथित प्रगतिशील पत्रकार हैं।
विनोद कापड़ी जैसे कथित समाजसुधारक फिल्म निर्माता, निर्देशक आदि आदि ने मालदीव का विरोध करने वालों को आईना दिखाते हुए पहले ट्विंकल खन्ना का वर्ष 2017 का एक ट्वीट साझा किया, जिसमें ट्विंकल खन्ना ने समुद्र तट पर शौच करते हुए एक व्यक्ति को दिखाया था, और कैप्शन दिया था। कि यह टॉयलेट एक प्रेम कथा 2 का ओपनिंग दृश्य हो सकता है
#ExploreIndianIslands https://t.co/ljsn8WmSGb
— Vinod Kapri (@vinodkapri) January 7, 2024
हालांकि विनोद कापड़ी यह बताना भूल गए कि क्या यही दृश्य अभी भी हैं? आखिर उन्हें मालदीव से प्रेम और भारत के लक्षद्वीप से इतनी नफरत क्यों है? मजहबी नहीं हो सकता, क्योंकि लक्षद्वीप में भी 95% जनसंख्या मुस्लिमों की है। क्या विनोद कापड़ी जैसे लोगों को भारतीय मुस्लिमों से घृणा है क्योंकि वह भारतीय मूल के हैं? आखिर इस सीमा तक भारतीय पहचान से घृणा किस कारण है?
और यदि विनोद कापड़ी जैसे “संवेदनशील” फिल्मकारों के होने के बाद भी भारत जैसे देश में खुले में शौच लोग करते रहे तो यह उन जैसे महान लोगों की सबसे बड़ी विफलता है कि वह लोग जनजागृति पैदा नहीं कर पाए? इतना ही नहीं उन्होंने वर्ष 2014 का भी वीडियो साझा किया कि लोग आखिर खुले में शौच कर रहे हैं।
यदि वर्ष 2014 तक लोग खुले में शौच कर रहे थे, तो इसमें किसका दोष था? क्या यह तमाम उस कथित संवेदनशील वर्ग की विफलता नहीं थी जिसे भारत के गरीबों की चिंता थी? क्या उन्हें उन समस्याओं पर जागरूकता नहीं पैदा करनी चाहिए थी, जो खुले में शौच से पैदा हो सकती थीं? आज से कई वर्ष पहले तक फिल्मों में खुले में शौच को भारत की पहचान बताया जाता था। सैफ अली खान और रानी मुखर्जी की एक फिल्म आई थी “हम-तुम!” उसमें भी एक दृश्य में था जिसमें अभिनेत्री किरण खेर भी यही कहती हैं कि भारत की खुशबू ही अलग है। नीके नीके बच्चे सड़क किनारे पॉटी कर रहे हैं।
दरअसल इसमें अभिनेताओं या अभिनेत्रियों का कोई दोष नहीं था, क्योंकि उस समय माहौल ही ऐसा बना रखा था। मगर वह उस समय की फिल्म इंडस्ट्री थी। और आज उसी फिल्म इंडस्ट्री से और उसी वर्ग के कलाकारों से आवाज आई कि भारत का अपमान कर कैसे दिया?
कहीं न कहीं उन्हें भी इस जाल से मुक्त होने में समय लगा जैसे हाल ही में रणवीर शौरी ने भी यह कहा था कि कैसे वह भी हिन्दू विरोधी मानसिकता का शिकार थे और कैसे उन्होंने सत्यता समझी। हालांकि इसका खामियाजा भी उन्हें भुगतना पडा था और उन पर कथित सेक्युलर वर्ग ने जमकर हमला बोल दिया था, और इसी आत्मबोध से भारत का कम्युनिस्ट एवं कट्टर इस्लामी वर्ग डरता है और उसे कमजोर करना चाहता है।
जब माननीय प्रधानमंत्री ने खुले में शौच के खिलाफ युद्ध का आह्वान किया था तो कथित प्रगतिशील लेखक, फिल्मकार आदि समूहों ने इस अभियान का मजाक तो उड़ाया ही था, साथ ही हिन्दी की कई महिला विमर्श वाली लेखिकाओं ने इस कदम को महिला विरोधी तक बता दिया था, क्योंकि उनके अनुसार महिलाओं के लिए यह समय “अपनी बातों” का होता है और अब महिलाएं घर से बाहर नहीं निकल पाएंगी!
ऐसा नहीं था कि केवल विनोद कापड़ी ने ही भारत के इस आत्मसम्मान के बोध पर प्रहार किया। कई पत्रकारों ने भी ऐसा किया, जिनमें सागरिका घोष भी शामिल थीं। सागरिका घोष ने लिखा कि हमें असलियत को स्वीकारना होगा कि मालदीव्स में 170 टॉप क्लास रिसॉर्ट्स एवं 900 गेस्ट हाउस हैं। और उन्होंने यह भी कहा कि लक्षद्वीप केवल तभी चर्चा में आया था जब वहां पर बीफ पर बैन लगाने की मांग की गयी थी और टूरिज्म के लिए गुणवत्तापूर्ण विकास और खुला एवं समावेशी माहौल चाहिए।
सागरिका जब यह कहती हैं कि गुणवत्तापूर्ण इन्फ्रा चाहिए तो वह यह क्यों नहीं बात करती हैं कि आखिर गुणवत्ता पूर्ण विकास के लिए पहले की सरकारों ने पहल क्यों नहीं की? क्यों भारत के खूबसूरत स्थानों का विकास नहीं किया गया और क्यों बीफ को स्वीकार कर ही समावेशी माहौल बनाया जा सकता है?
खैर, सागरिका के साथ ही सुहासिनी हैदर ने प्रश्न किया कि क्या भारत के प्रधानमंत्री एवं विदेश मंत्रालय इस प्रकार के बहिष्कार का समर्थन कर सकता है..?
समस्या इन जैसे कथित एलीट वर्ग के मालदीव्स के समर्थन की नहीं है, समस्या है कि यह नरेंद्र मोदी एवं अपनी भारतीय जड़ों पर गर्व करने वाले भारतीयों से घृणा में इस सीमा तक अंधे हो गए हैं कि उन्हें यह नहीं दिख रहा है कि दरअसल मालदीव्स में जो सरकार आई है, वह “इंडिया आउट” के वादे के ही साथ आई है। और जब वहां के मंत्री और लोग भारत के विषय में विषवमन कर रहे थे, उस समय इन्हें भारतीयों के साथ खड़ा होना चाहिए था, यह कहते हुए कि जो कमियाँ हैं, हम उन पर काम करेंगे, परन्तु अपने देश का अपमान नहीं सहेंगे।
परन्तु यह भी सत्य है कि ऐसे वर्ग की दृष्टि में भारत का मान है ही नहीं, इन्होनें सदा ही भारत को औपनिवेशिक दृष्टि से देखा है, और खुद को गुलाम मानकर पश्चिम और मुगलों के अहसान को अपने ऊपर ओढ़ रखा है और गुलामी की वह चादर न ही पूरे भारत ने कभी ओढ़ी थी और न ही अब ओढने को तैयार है। यही कारण है कि मालदीव्स वाले मामले पर फिल्म उद्योग से लेकर खिलाड़ी एवं व्यापारी भी भारत के आत्मसम्मान के मामले में साथ आए और एक सुर में कहा कि हम किसी से कम नहीं हैं।
परन्तु अब तक भारत को गरीब दिखाकर अपनी जेबें भरने वाले गुलाम मानसिकता के लोग हमेशा ही आत्मनिर्भर भारत के विरोध में रहेंगे, फिर चाहे वह मालदीव्स की बात हो, या फिर पुलवामा का हमला हो या फिर और कोई भी घटना।
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