बीते कुछ दशकों में हमारे देश में पहली जनवरी को मनाये जाने वाले यूरोपीय नववर्ष का उत्सव पाश्चात्य संस्कृति में रचे बसे काले अंग्रेजों को कुछ अधिक ही तेजी से लुभाता जा रहा है। चिंतनीय तथ्य यह है कि इस विदेशी नववर्ष में सहज उत्सवधर्मिता के स्थान पर फूहड़ अपसंस्कृति और नग्नता का प्रदर्शन तथा बाजारवाद का शोर अधिक दिखायी देता है। भारत के गौरवशाली सांस्कृतिक इतिहास से अनजान पाश्चात्य संस्कृति की घोर भोगवादी जीवन शैली का अन्धानुकरण करने वाले भारतीयों की एक बड़ी जमात इस यूरोपीय नववर्ष के जश्न के नाम पर जिस तरह अर्द्धरात्रि को शराब-कबाब के नशे में झूमकर फूहड़ नृत्य संगीत के साथ हुड़दंग-हंगामा करती है, रात को मदहोश होकर गाड़ी चलाकर दुर्घटनाएं करती है, नैतिक जीवन मूल्यों का पतन करने वाली यह प्रवृत्ति भारतीय संस्कृति के लिए निश्चित रूप से घातक है।
दूसरे, तात्विक दृष्टि से विचार करके देखिए कि क्या इस नये कैलेण्डर वर्ष में वाकई कोई नयापन है? न ही मौसम बदलता है और न ही ऋतु, न ही ग्रह-नक्षत्र, सूर्य, चांद, सितारों की दिशा बदलती है और न ही फल, फूल, पेड़ पौधों और फसलों की रंगत। किसी भी बात में कोई भी नयापन नहीं फिर भी कहलाता है नया साल। है न कितना अजीब विरोधाभास ! बावजूद इसके देश का एक बड़ा वर्ग इस विदेशी नववर्ष को खासी शान-शौकत से मनाता है। नववर्ष मनाने की इस परंपरा के प्रति भारतीयों का गहराता मोह दरअसल उस गुलाम मानसिकता का प्रतिफलन है जो भारत में अंग्रेजों के दो सौ साल के शासनकाल में विकसित हुई थी।
वर्ष 1757 में भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी की स्थापना के साथ अंग्रेजों ने सुनियोजित षड्यंत्र के तहत भारत की ऋषि संस्कृति को मिटाने का कार्य किया। इस कुचक्र में अंग्रेज अधिकारी मैकाले की बड़ी भूमिका थी। उसने अंग्रेजी शिक्षा को बढ़ावा देने के नाम पर साजिश के तहत हमारी गुरुकुल प्रधान वैदिक शिक्षण पद्धति को बदल दिया ताकि भारतीय अपने गौरवशाली अतीत से विमुख हो जाएं। भारत का प्राचीन इतिहास बदल दिया गया जिससे भारतीय अपने मूल इतिहास को भूल अंग्रेजों के बनाये इतिहास के पढ़ने और अपनाने लगे।
ग्रिगेरियन कैलेंडर के अनुसार पहली जनवरी को मनाया जाने वाले यूरोपीय नववर्ष के प्रति भारतीयों का मोह इसी अंधानुकरण का नतीजा है। गौर करने वाली बात यह भी है कि क्या यूरोपीय (ईसाई) हम हिन्दुओं के भारतीय नववर्ष का उत्सव मनाते हैं ? किसी भी ईसाई देश में हिन्दू नववर्ष नहीं मनाया जाता मगर हम भारतीयों की एक जमात ‘हैपी न्यू इयर’ बोलने में खुद को गौरवान्वित अनुभव करती है।
काबिलेगौर हो कि एक बार एक प्रशासनिक अधिकारी ने पहली जनवरी को जब भारत के चौथे प्रधानमंत्री व भारतरत्न मोरारजी देसाई को नववर्ष की बधाई दी थी तो उन्होंने बधाई देने वाले को आश्चर्य से देखकर कहा था, ‘’किस बात की बधाई? इस यूरोपीय नववर्ष का न ही मेरे देश की संस्कृति और परम्पराओं से कोई संबंध है और न ही इतिहास से, फिर कैसी शुभकामनाएं!’’ कहते हैं कि मोरारजी का यह प्रत्युतर सुनकर वह अधिकारी हतप्रभ रह गया था।
ऐतिहासिक साक्ष्य बताते हैं कि नववर्ष उत्सव मनाने की शुरुआत 4000 वर्ष पहले से बेबीलोन में 21 मार्च से हुई थी जो कि वसंत के आगमन की तिथि (हिन्दुओं का नववर्ष ) भी थी। लेकिन, रोम के तानाशाह शासक जूलियस सीजर को भारतीय नववर्ष के साथ यह उत्सव मनाना पसन्द नहीं आया इसलिए उस सनकी सम्राट के कहने पर रोम के तत्कालीन खगोलविदों ने ईसा पूर्व 45वें वर्ष में पूर्व प्रचलित रोमन कैलेंडर को 310 से बढ़ाकर 365 दिन का कर दिया जो 12 महीने और 365 दिन का था। साथ ही इसमें हर चार साल बाद फरवरी के महीने को 29 दिन का किया गया ताकि हर चार साल में बढ़ने वाला एक दिन इस कैलेंडर में समायोजित हो सके। इस जूलियन कैलेंडर के अनुसार नए साल की शुरुआत पहली जनवरी से हुई जिसे आज वैश्विक मान्यता हासिल है।
जरा सोचिए…!!! कहां हमारा कारोड़ों वर्ष पुराना सनातन धर्म और उसकी नितांत वैज्ञानिक परम्पराएं और कहां एक विदेशी सनकी शासक द्वारा विकसित ग्रिगेरियन कैलेंडर के मुताबिक दो हजार साल पुरानी नववर्ष मनाने का अटपटा का रिवाज। यहां हमारा मकसद किसी धर्म का विरोध बिल्कुल नहीं है परन्तु सभी भारतवासियों को यह बात जरूर समझनी चाहिए कि इंग्लिश कैलेण्डर के बदलने से भारतीय नववर्ष का कैलेण्डर (पंचांग) नहीं बदलता। हां! यह भी सच है कि बीते कुछ वर्षों में ‘’वसुधैव कुटुम्बकम’’ की वैदिक जीवन दृष्टि के पोषक भारत के बुद्धिजीवी नागरिकों का एक बड़ा वर्ग इस यूरोपीय नववर्ष का स्वागत भी इस वंदना से करने लगा है।
इसे एक सुखद संकेत के रूप में देखा जाना चाहिए, किन्तु हम भारतवासियों को यह बात भी पूरी गहरायी से समझने और हृदयंगम करने की जरूरत है कि जब पहली जनवरी को नववर्ष मनाने की परम्परा से राष्ट्रप्रेम, स्वाभिमान व श्रेष्ठताबोध जगाने वाला हमारे देश के गौरव का एक भी प्रसंग नहीं जुड़ा है तो इसे मनाने का औचित्य आखिर क्या है? आज जब भव्य और दिव्य अयोध्या धाम में प्रभु श्रीराम की प्राण प्रतिष्ठा होने जा रही है, राष्ट्र के सांस्कृतिक पुनरोत्थान की इस स्वर्णिम बेला में भारत के प्रत्येक सनातनधर्मी का पुनीत कर्त्तव्य होना चाहिए कि अतीत की भूल सुधारें और नववर्ष की स्वदेशी परम्पराओं का अधिक से अधिक प्रचार-प्रसार करें, ताकि हमारी भावी पीढ़ी भारत की गौरवशाली विरासत से अवगत हो सके।
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