काशी तमिल संगमम्। इसे न तो कोई घटना या समारोह माना जा सकता है और न किसी और दृष्टि से देखकर या दिखाकर संकुचित किया जा सकता है।
भारत की सांस्कृतिक शक्ति अब न केवल जाग रही है, बल्कि पुन: अपनी वह चिरपरिचित आभा बिखेरने के लिए तैयार है, जो कई सदियों तक दीर्घ निद्रा में रही थी। इसका एक परिचायक है काशी तमिल संगमम्। इसे न तो कोई घटना या समारोह माना जा सकता है और न किसी और दृष्टि से देखकर या दिखाकर संकुचित किया जा सकता है।
यह बात इस कारण महत्वपूर्ण है, क्योंकि कुछ कोनों में इसमें राजनीति खोजने की कोशिश हुई है, तो कोई इसे पर्यटन की गतिविधि समझने की भूल कर रहा है। यह उस सबसे आगे है, अनिर्वचनीय है। यह भारत के सांस्कृतिक पुनरोत्थान का शंखनाद है। उस सांस्कृतिक पुनरोत्थान का, जो भारत को परिभाषित करता है, करता रहा है।
काशी और तमिल का संबंध भावना और संस्कृति का संबंध है। शायद इसे परिभाषित नहीं किया जा सकता है। न इतिहास की दृष्टि से और न विस्तार की दृष्टि से। काशी और तमिलनाडु के संबंधों को लिखा जाए, तो यह कई ग्रंथों में भी पूरी नहीं होगी। तमिलवाासियों के मन में यह भाव अत्यंत प्रबल रहता है कि काशी की यात्रा और बाबा विश्वनाथ के दर्शन के बिना हर तीर्थ निष्फल है। यदि भारत के सांस्कृतिक पुनरोत्थान की शुरुआत अंतरराष्ट्रीय योग दिवस से हुई मानी जाए और उसका उत्कर्ष अयोध्या में प्रभु श्रीराम के भव्य मंदिर को माना जाए, तो उसके साथ है ‘काशी तमिल संगमम्’ का अति महत्वपूर्ण पड़ाव।
भारत अब विश्व में आध्यात्मिक और सांस्कृतिक पर्यटन के केंद्र के रूप में तेजी से उभरता जा रहा है। ‘काशी तमिल संगमम्’ का आयोजन न केवल भारत के दो सुदूर राज्यों को निकट लेकर आ रही है, बल्कि दुनिया भर में फैले भारतवंशियों को भी अपनी पितृ धरा से जोड़ रही है। यह संगम है भारतीय सनातन संस्कृति के दो पौराणिक केंद्रों विश्वेश्वर और रामेश्वर का, सृजन का और भावनात्मक संबंधों का।
तमिलनाडु के नाट्कोट्टई क्षत्रम की ओर से काशी विश्वनाथ मंदिर में 210 वर्षों से निर्बाध 3 आरती की जाती हैं। आरती के लिए भस्म और चंदन भी तमिलनाडु से ही मंगाया जाता है। 1926 में जब देश के अधिकांश भाग दक्षिण भारत के व्यंजनों के विषय में बहुत कम जानते थे, उस समय भी काशी में दक्षिण भारतीय व्यंजन परोसे जाते थे।
काशी तमिल संगमम् ने वह विशेष मंच स्थापित किया है, जो हमारी संस्कृति के पुराने ज्ञान को फिर से खोजने और समकालीन विचार, दर्शन, प्रौद्योगिकी और शिल्प कौशल के साथ मिलाने के उद्देश्य की पूर्ति करता है।
इतिहास में असंख्य तमिल राजाओं, प्रसिद्ध आध्यात्मिक संतों, कवियों और प्रसिद्ध लोगों ने तमिलनाडु में रामेश्वरम् और उत्तर प्रदेश में वाराणसी के बीच तीर्थ यात्रा अवश्य की है और इसे अपने जीवनकाल में कम से कम एक बार करने के लिए एक पवित्र कर्तव्य माना है। साहित्य में भी एक शास्त्रीय तमिल काव्य ‘कालीथोगई’ काशी के महत्व को अद्भुत रूप में दर्शाता है।
काशी तमिल संगमम् उत्तर और दक्षिण भारत के बीच साझी सांस्कृतिक समानता का उत्सव है। यह उत्तर और दक्षिण की एकसारता का और वर्तमान परिस्थितियों में उस एकसारता की आवश्यकता का संकेत है। यह ज्ञान प्रणालियों को साझा करने का मिलन बिंदु है।
काशी और तमिलनाडु
काशी भारत की आध्यात्मिक राजधानी है और दक्षिण भारत में लंबे समय से किसी विद्वान की काशी यात्रा के बिना उसकी उच्च शिक्षा अधूरी मानी जाती रही है। दक्षिण में दर्शन के लिए काशी जाने से पहले रामेश्वरम् के निवासी कोटि तीर्थ (मंदिर में) में स्नान करने और लौट कर रामेश्वरम् के मंदिर में अभिषेक के लिए काशी से गंगा अमृत लाने की परंपरा रही है।
काशी-तमिलगम, एक ‘अमर बंधन’ है। तमिलनाडु के कई राजाओं ने काशी को संरक्षण दिया था। एक पांड्य राजा, जिन्हें पराक्रम पांड्य कहा जाता है, ने काशी की एक प्रतिकृति बनवाई जिसे तेनकासी (दक्षिण की काशी) के नाम से जाना जाता है। व्यापार के आधार पर भी इसका गहरा संबंध है। प्राचीन शहरों के माध्यम से यह उत्तर और दक्षिण को जोड़ने की समझ को दर्शाती है। संस्कृति का तात्पर्य साझा मूल्यों, विश्वासों, रीति-रिवाजों और परंपराओं से माना जाता है, जो एक लोक और उसके जीवन के तरीके को परिभाषित करता है। अब देखें सनातन संस्कृति और तमिल की दो विशिष्ट, लेकिन परस्पर जुड़ी सांस्कृतिक विरासतों के बीच समानताएं और अंतर।
सनातन और तमिल, दोनों संस्कृतियां कर्म, पुनर्जन्म और आध्यात्मिक मुक्ति में दृढ़ विश्वास रखती हैं। धर्म (कर्तव्य/धार्मिकता) की अवधारणा दोनों संस्कृतियों में केंद्रीय है, जो नैतिक और नैतिक जीवन जीने के महत्व पर जोर देती है। प्राचीन संस्कृत भाषा का दोनों संस्कृतियों पर महत्वपूर्ण प्रभाव रहा है। वेद और उपनिषद् जैसे सनातन धर्मग्रंथ संस्कृत में रचित हैं, जिसने तमिल साहित्य और धार्मिक ग्रंथों को प्रभावित किया है। सनातन संस्कृति विविधतापूर्ण है, जिसमें विभिन्न देवताओं और परमात्मा की अभिव्यक्तियों की पूजा की जाती है। तमिल संस्कृति में शैववाद की प्रणाली है, जहां भगवान शिव को सर्वोच्च माना जाता है। लेकिन महत्वपूर्ण तौर पर सनातन और तमिल संस्कृतियों के बीच ऐतिहासिक संबंध प्राचीन काल से हैं। भक्ति आंदोलन तमिलनाडु में उत्पन्न हुआ और उसने सनातन संस्कृति के भीतर आध्यात्मिक मान्यताओं और प्रथाओं को फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
संगमम् का महत्व
भारत ने हमेशा संयोजनों का अपनाया है, चाहे वह नदियों का हो, विचारधाराओं का हो, विज्ञान का हो या ज्ञान का हो। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कहा है कि भारत संस्कृति और परंपरा के हर संगम का उत्सव मनाता है। उन्होंने टिप्पणी की कि ‘काशी भारत की सांस्कृतिक राजधानी है और तमिलनाडु भारत की प्राचीनता और गौरव का केंद्र है।’
संस्कृत और तमिल भारत की प्राचीन भाषाएं हैं। जैसा कि प्रधानमंत्री ने कहा, ‘‘काशी में हमारे पास बाबा विश्वनाथ हैं, जबकि तमिलनाडु में हमें भगवान रामेश्वरम् का आशीर्वाद है। काशी और तमिलनाडु दोनों शिव में डूबे हुए हैं।’
फिर संगमम् पर लौटें। काशी तमिल संगमम् ने वह विशेष मंच स्थापित किया है, जो हमारी संस्कृति के पुराने ज्ञान को फिर से खोजने और समकालीन विचार, दर्शन, प्रौद्योगिकी और शिल्प कौशल के साथ मिलाने के उद्देश्य की पूर्ति करता है। यह उन विचारों को भी प्रोत्साहित करता है, जिनसे हमारे शिल्पकारों, बुनकरों, व्यापार मालिकों और व्यापारियों को लाभ होगा। कांचीपुरम् की चमकदार रेशम साड़ियां और वाराणसी की बनारसी रेशम साड़ियां अपने-अपने क्षेत्रों में प्रसिद्ध हैं, लेकिन संगमम् कारीगरों को उनके पारंपरिक बाजारों से परे पहुंचने की अनुमति देता है।
दोनों क्षेत्रों के बुनकरों और व्यापार मालिकों के बीच बातचीत, साथ ही ब्रांडिंग, गुणवत्ता आश्वासन, विपणन, उत्पाद स्थिरता और मूल्य संवर्धन के समकालीन तरीकों से संपर्क बहुत फायदेमंद है। तमिलनाडु के तंजौर में एक हिंदू मंदिर है, जो 11वीं सदी के आरंभ में बनाया गया था। विश्व में यह अपनी तरह का पहला और एकमात्र मंदिर है, जो ग्रेनाइट का बना हुआ है। यह अपनी भव्यता, वास्तुशिल्प और बीचोंबीच बनी विशालकाय गुंबद से लोगों को आकर्षित करता है। इस मंदिर को यूनेस्को ने विश्व धरोहर घोषित किया है। 13 मंजिल वाले इस मंदिर का निर्माण 1003-1010 ई. के बीच चोल राजा राजराज चोल प्रथम ने करवाया था। उनके नाम पर इसे राजराजेश्वर मंदिर कहा जाता है।
काशी तमिल संगमम् भारत की सांस्कृतिक विविधता में एकता के सूत्रों को सुदृढ़ करता है व ‘एक भारत-श्रेष्ठ भारत’ की अवधारणा को बल पहुंचाता है। चाह कर भी इस आयोजन को राजनीति या राजनीतिक निहितार्थों से पूरी तरह काट कर नहीं देख सकते।
चार शब्दों पर ध्यान दें, जिनके पीछे सांस्कृतिक विचार आसानी से देखा जा सकता है। संस्कृत शब्द आत्मा- इसे तमिल में आन्मा कहा जाता है। संस्कृत शब्द जीवन- इसे तमिल में जीवनम् कहा जाता है। इसी प्रकार संस्कृत शब्द कर्म को तमिल में कर्मम् कहा जाता है और धर्म शब्द तमिल में धर्मम् हो जाता है। क्या भारत की संस्कृति के किसी आयाम को इससे भिन्न किया जा सकता है? इसी प्रकार तीन भावों करुणा (तमिल में करुणई), मोह या आसक्ति (तमिल में मोकनम्), प्रकटीकरण/अभिव्यक्ति (तमिल में प्रकथि) पूरी तरह एक ही हैं। कांचीपुरम् का कामाक्षी अम्मन मंदिर पार्वती/शैलजा/अपर्णा को समर्पित है। तमिलनाडु के पलानी में शिवगिरी पर्वत पर कार्तिकेय (मुरुगन) का विशाल प्राचीन मंदिर है, जो कैलास से रूठ कर वहां पहुंचे थे।
सनातन थोपने की बजाय खोजने का भाव है। अद्वैत वेदांत में चार महावाक्य आते हैं। प्रज्ञानं ब्रह्म, तत्वमसि, अयं आत्म्ब्रह्म और अहं ब्रह्मास्मि। सनातन क्या है, इसे अद्वैत वेदांत या फिर चार महावाक्यों में समझा जा सकता है।
कृष्ण यजुवेर्दीय उपनिषद् ‘शुकरहस्योपनिषद’ में महर्षि व्यास के आग्रह पर भगवान शिव उनके पुत्र शुकदेव को चार महावाक्यों का उपदेश ‘ब्रह्म रहस्य’ के रूप में देते हैं। वे चार महावाक्य ये हैं-
ज्ञान ही ईश्वर है, अर्थात् प्रज्ञानम् ब्रह्म।
स्वभाव से लेकर शरीर तक को जीवित रखने वाली अप्रत्यक्ष शक्ति ही ‘आत्मा’ है।
यह ही ईश्वर है अर्थात् अयमात्मा ब्रह्म।
जो तुझमें है, जो मुझमें है, जो सबमें है, जो शरीर से बाहर तत्व में भी है वह ईश्वर है। अर्थात् तत्वमसि।
अहं ब्रह्मास्मि -जीव और ईश्वर की एकता
सर्वं खल्विदं ब्रह्म, नेह नानास्ति किंचन॥ यह महावाक्य निरलम्बोपनिषद् (9) में आता है, इसका अर्थ है कि ‘यह समस्त विश्व ही ब्रह्म हैं, उसी से आता है, उसी में समा जाता है।’ आचरण/ व्यवहार का सूत्र है – संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्। अर्थात् हम सब एक साथ चलें, एक साथ बोलें, हमारे मन एक हों। इसी प्रकार सनातन का सूत्र है –
सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दु:खभाग् भवेत।।
(अर्थात् सभी सुखी हों, सभी रोग मुक्त रहें, सभी मंगलमय के साक्षी बनें और किसी को भी दु:ख का भागी न बनना पड़े।)
वास्तव में काशी तमिल संगमम् दक्षिण की शैव परंपरा को नष्ट करने के आयातित विचार का भी प्रतिकार करती है। शैव परंपरा के केंद्र में शिव हैं। पार्वती और मुरुगन उसके केंद्र में हैं। चोल और चालुक्य के गौरव को छीनने का जो षड्यंत्र तमिलनाडु में चलता दिख रहा है, काशी उस गौरव का संरक्षण करती है।
संगमम् के इस विचार और आयोजन को विभिन्न अन्य सरकारी नीतियों से भी पूरा प्रोत्साहन मिला है। यह सिर्फ भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय और उत्तर प्रदेश सरकार का ही काम नहीं था। आईआईटी मद्रास और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय जैसे शिक्षा के बड़े केंद्र भी इस कार्यक्रम से सीधे संबद्ध हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की काशी तमिल संगमम् की अवधारणा एक ऐसे अभिनव कार्यक्रम का निर्माण करती है, जो तमिल और हिंदी भाषाओं को ही नहीं, बल्कि तमिलनाडु के लोगों और उत्तर भारत के लोगों को भी आपस में जोड़ती है। वास्तव में प्रधानमंत्री ने मन की बात के एक एपिसोड में काशी तमिल संगमम् को सांस्कृतिक एकात्मता का एक उत्सव बताया था। काशी तमिल संगमम् का आयोजन उस धारणा का भी बहुत सशक्त ढंग से प्रतिरोध करता है, जो उत्तर को दक्षिण से बांटने की दिशा में काम कर रही है।
15 दिन तक चलने वाला काशी तमिल संगमम् का कार्यक्रम सिर्फ सांस्कृतिक घटनाओं, प्राचीन ग्रंथों के पाठन और वाचन, सेमिनारों और मंदिरों के दर्शन तक सीमित नहीं है। सरकार की इसके प्रति प्रतिबद्धता को इस दृष्टि से समझा जा सकता है कि काशी तमिल संगमम् के प्रतिनिधियों के लिए कन्याकुमारी से वाराणसी तक जाने के लिए एक नई ट्रेन शुरू की गई है। इसे उत्तर और दक्षिण को जोड़ने वाला एक और सूत्र माना जा सकता है। तमिलनाडु से काशी पहुंचे प्रतिनिधियों को अयोध्या ले जाने की भी योजना है। महत्वपूर्ण तौर पर काशी तमिल संगमम् भारत की सांस्कृतिक विविधता में एकता के सूत्रों को सुदृढ़ करता है और ‘एक भारत- श्रेष्ठ भारत’ की अवधारणा को बल पहुंचाता है। दोनों सुदूर स्थानों के बीच जो भावनात्मक और सांस्कृतिक निकटता है, उसे संत कवि तिरुवल्लुवर की केदार घाट पर स्थित प्रतिमा के रूप में देखा जा सकता है।
हम चाह कर भी काशी तमिल संगमम् के आयोजन को राजनीति अथवा राजनीतिक निहितार्थों से पूरी तरह काट कर नहीं देख सकते। तमिलनाडु के प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अन्नामलाई ने कहा है कि समूचा तमिलनाडु प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का इस बात के लिए आभारी है कि उन्होंने तिरुक्कुरल (तिरुवल्लुवर द्वारा रचित काव्य) के 16 अनुवादित संस्करणों का विमोचन किया है। इनमें से 10 अनुवाद 10 भारतीय भाषाओं में हुए हैं, पांच विदेशी भाषाओं में और एक संस्करण का ब्रेल लिपि में अनुवाद हुआ है, ताकि दिव्यांगजन भी इसका लाभ उठा सकें। पिछले वर्ष तिरुक्कुरल के 13 भाषाओं में संस्करण जारी किए गए थे। भारत सरकार इसके अतिरिक्त तमिल व्याकरण, संगम साहित्य और प्राचीन तमिल साहित्य के 46 ग्रंथों के अनुवादित संस्करण भी प्रधानमंत्री के हाथों से जारी करवा चुकी है। यह कार्य सेंट्रल इंस्टीट्यूट आॅफ क्लासिकल तमिल ने भारत सरकार और उत्तर प्रदेश सरकार के सहयोग से किया है।
इतना ही नहीं, पहली बार प्रधानमंत्री ने कृत्रिम बौद्धिकता की सहायता से तत्क्षण तमिल में भाषण भी दिया। प्रधानमंत्री की ही चिर-परिचित वाणी में तमिल भाषा में भाषण। काशी तमिल संगमम् में कृत्रिम बौद्धिकता की मदद से तत्काल अनुवाद की सुविधा का भी परीक्षण किया गया है। निश्चित रूप से इससे प्रधानमंत्री के संदेश और उनकी भावना को तमिलनाडु के उन लोगों तक पहुंचने में बहुत सहायता मिलेगी जो हिंदी समझने में कठिनाई महसूस करते हैं।
काशी तमिल संगमम् कार्यक्रम में शामिल होने के लिए तमिलनाडु से ढाई हजार प्रतिनिधि काशी पहुंचे हैं। इस अवसर पर संगमों के महत्व को रेखांकित करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि चाहे नदियों का संगम हो, विचारधाराओं का संगम हो, विज्ञान का अथवा ज्ञान का संगम हो, भारत की संस्कृति ने और भारत की परंपरा ने हर तरह के संगम को एक उत्सव के रूप में लिया है। इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण तौर पर उन्होंने यह कहा कि काशी तमिल संगमम् भारत की शक्ति और उसके चरित्र का उत्सव है। उन्होंने कहा कि जहां एक ओर काशी भारत की सांस्कृतिक राजधानी है, वहीं तमिलनाडु और तमिल संस्कृति भारत की प्राचीनता और गौरव का केंद्र है। गंगा और यमुना के संगम से तुलना करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि काशी तमिल संगम भी उतना ही पवित्र है। इसमें अपार संभावनाएं और शक्ति निहित हैं।
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