भारत अब बड़े खिलाड़ियों के क्लब में शामिल हो गया है। अर्थव्यवस्था, पूंजी बाजार जैसे-जैसे आगे बढ़ेंगे, अपनी गति बनाए रखने के लिए हमें अपने प्रयासों में भी नेतृत्वकारी पक्ष शामिल करने होंगे
मुंबई शेयर बाजार (मुंशेबा) का सूचकांक बीते माह 30 नवंबर को 66,988 अंक पर बंद हुआ तो 6 दिसंबर को यह 69,653.73 अंक के उच्चतम स्तर पर रहा। इस वर्ष के आरंभ से लेकर अभी तक इसमें लगभग 10 प्रतिशत की वृद्धि हो चुकी है। 11 माह में 10 प्रतिशत की वृद्धि को किसी भी दृष्टि से बहुत अच्छा माना जा सकता है, पर आंकड़ा सिर्फ यही नहीं है। बड़ा आंकड़ा यह है कि मुंशेबा में सूचीबद्ध कंपनियों की बाजार कीमत चार ट्रिलियन डॉलर से ऊपर जा चुकी है। पूरे विश्व में जिन पांच शेयर बाजारों में यह आंकड़ा हासिल किया गया है, अब भारत उनमें से एक है। बाकी चार हैं-अमेरिका, चीन, जापान और हांगकांग।
बड़े खिलाड़ियों के क्लब में भारत
इसके कुछ समय पहले ही, 19 नवंबर को यह समाचार आया था कि भारत की जीडीपी पहली बार 4 ट्रिलियन डॉलर के आंकड़े को पार कर गई। हालांकि इस ऐतिहासिक मील के पत्थर के बारे में अधिकृत तौर पर कुछ नहीं कहा गया है। फिर भी, इसका सीधा-सा अर्थ है कि भारत अब बड़े खिलाड़ियों के क्लब में शामिल हो गया है। अब उसे किसी महारथी की ही तरह व्यवहार करना होगा। इस अर्थ में यह प्रसन्नता के साथ-साथ चुनौतियों का भी नया दौर है। हमारी अर्थव्यवस्था, पूंजी बाजार जैसे-जैसे आगे बढ़ेंगे, अपनी गति को बनाए रखने के लिए हमें अपने प्रयासों में भी नेतृत्वकारी पक्षों को शामिल करना होगा। जैसे- नई तकनीक, नए प्रबंधन मॉडल, नवाचार, नए बाजारों का विकास आदि। यही हमारी नई अर्थव्यवस्था, हमारी नई जीवनचर्या होगी।
फिर से मुंशेबा में सूचीबद्ध कंपनियों का बाजार मूल्य 4 ट्रिलियन डॉलर से ऊपर जाने के बिंदु पर लौटें। एक रोचक पक्ष जो बहुत-से लोगों और भारत के अधिकांश अंग्रेजी मीडिया के विशेषज्ञों को विरोधाभासी लगेगा, वह यह है कि भारत का इक्विटी बाजार इस मील के पत्थर तक तब पहुंचा है, जब विदेशी निवेशकों का स्वामित्व एक दशक के सबसे निचले स्तर (16.6 प्रतिशत) पर पहुंच चुका है। इसका अर्थ यह है कि पूंजी प्रवाह की गतिशीलता में परिवर्तन आ रहा है।
सरल शब्दों में कहें, यह हमारी अपनी ताकत है, किसी का उपकार नहीं है। हमारे पूंजी बाजार पर हमारी घरेलू पूंजी का नियंत्रण है। यह विशेष रूप से खुदरा व्यवस्थित निवेश योजनाओं (एसआईपी) के माध्यम से हुआ है, जिससे लगभग 2 बिलियन डॉलर की मासिक घरेलू बचत हो रही है। पिछले वर्ष 35 अरब डॉलर का घरेलू प्रवाह रहा, जो 15 अरब डॉलर के विदेशी बहिर्प्रवाह पर भारी पड़ा। इस बदलाव ने सेंसेक्स को कई वैश्विक झटकों के प्रति लचीला बना दिया है और यही कारण है कि हमने 2022 में सकारात्मक 4 प्रतिशत रिटर्न हासिल किया। भारतीय बाजार का वैश्विक रुझानों से अलगाव आईपीओ बाजार में तेजी से भी स्पष्ट है। भारत का आईपीओ परिदृश्य फल-फूल रहा है, जबकि कई अन्य भौगोलिक क्षेत्रों में सुस्ती का अनुभव हो रहा है। हाल ही में भारतीय आईपीओ इतिहास में अब तक का सबसे ऊंचा आईपीओ भी आया है, यहां तक कि एलआईसी से भी बड़ा।
बढ़ रहा निवेशकों का विश्वास
इसमें कोई संदेह नहीं कि शेयर बाजार का ऊपर-नीचे जाना तमाम आकलनों और अनुमानों पर आधारित होता है। लेकिन एक और सच यह है कि जो कंपनियां शेयर जारी करके निवेशकों से पैसा ले रही हैं, उन्हें बहुत उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया मिल रही है। इसका अर्थ यह है कि अर्थव्यवस्था में निवेशकों का विश्वास बढ़ रहा है। हाल में अडाणी समूह की कंपनियों के शेयरों की कीमतों में एक ही दिन में लगभग एक लाख करोड़ रुपये की वृद्धि हुई। यानी निवेशकों को अडाणी समूह के शेयरों की कीमतों में संभावनाएं दिखाई दे रही हैं। इतनी ही महत्वपूर्ण बात यह है कि अडाणी समूह हिंडनबर्ग की रिपोर्ट के बाद तमाम नकारात्मक दबावों का शिकार रहा है। बड़े खिलाड़ी वाली बात यह कि अडाणी समूह से संबंधित हिंडनबर्ग रिपोर्ट को यहां निहित स्वार्थी व गैरजिम्मेदार तत्वों ने ‘अपने मीडिया’ में डाला और उसके आधार पर याचिकाएं दायर कीं। अब सर्वोच्च न्यायालय ने भी कहा है कि अडाणी के खिलाफ दायर याचिका बिना किसी सबूत के थी। ऐसी अफवाह छाप साजिशों से सतर्क रहने की जिम्मेदारी किसकी थी? उत्तर है भारत की उस जनता की, जिसका धन, विश्वास और भविष्य इस बाजार में लगा है।
शेयर बाजार और बाजार का एक अलिखित नियम है कि जिसकी रकम लगी होती है, वह अपना विश्लेषण ठोस आंकड़ों पर करता है, सिर्फ रिपोर्ट या आरोपों पर फैसले नहीं करता। 1980 के दशक में उस वक्त के बहुत महत्वपूर्ण नेता विश्वनाथ प्रताप सिंह ने खुद रिलायंस समूह के खिलाफ मुहिम चलाई थी। उस मुहिम के बावजूद निवेशकों को रिलायंस समूह की कंपनियों के शेयरों में उम्मीद नजर आती थी, तो रिलायंस के भाव लगातार ऊपर जाते रहे। इसका अर्थ यह कि बाजार के निवेशकों के विश्लेषण का आधार आरोप नहीं होते, बल्कि आंकड़े और परफॉरमेंस ही यह तय करते हैं कि शेयर बाजार और बाजार में किसी कंपनी की प्रगति होनी है या दुर्गति है।
1970-80 के दशक में टाटा-बिरला की कंपनियों के खिलाफ सतत वामपंथी मुहिम चला करती थी। टाटा-बिरला समूह की कंपनियों की प्रगति अपने स्तर पर लगातार हुई, उनके कारोबारी मॉडलों के आधार पर। दरअसल, बाजार के आकलन के तौर-तरीके अलग होते हैं। उनके आधार अलग होते हैं। बाजार के नियम राजनीतिक आरोपों के आधार पर नहीं चलते। कुल मिलाकर अर्थव्यवस्था और बाजार के नियम अलग ही होते हैं, यहां बातें या वाग्जाल नहीं, ठोस आंकड़े काम आते हैं।
शेयर बाजार ने नहीं किया निराश
अब भारत के निवेशकों को भी इस बिंदु को ध्यान में रखना होगा। स्टॉक बाजार के निवेशकों को आम तौर पर शेयर बाजार ने निराश नहीं किया। कोरोना काल इसका अपवाद है। वैसी आपदा शताब्दियों में एकाध बार आती है। मोटे तौर पर शेयर बाजार के निवेशकों ने अगर सट्टेबाजी में पैसा न लगाया होगा, तो वे नौ वर्षों में अच्छी-खासी कमाई कर चुके होंगे। शेयर बाजार से जुड़े एक बड़े कारोबारी रामदेव अग्रवाल के अनुसार, 2030 तक मुंशेबा का सूचकांक दो लाख बिंदुओं तक पहुंच जाएगा, अभी यह 67000 के आसपास टहल रहा है। यानी अब के मुकाबले सूचकांक तीन गुना से भी ज्यादा हो जाएगा, वह भी अगले छह वर्ष में।
उधर, भारतीय शेयर बाजार का आकार भी लगातार बढ़ रहा है। लेकिन अर्थव्यवस्था का अर्थ सिर्फ शेयर बाजार नहीं होता। उसमें और भी कई विषय निहित होते हैं। भारत का विदेशी मुद्रा भंडार मई 2014 में लगभग 311 अरब डॉलर था, जो 2023 में लगभग 600 अरब डॉलर हो चुका है। नौ वर्ष में विदेशी मुद्रा भंडार का लगभग दोगुना हो जाना यह दर्शाता है कि विदेशी निवेशकों का विश्वास भारत पर बढ़ा है। भारतीय पूंजी बाजारों में निवेश करने वाले भी जमकर पैसा लगा रहे हैं। भारतीय पूंजी बाजारों, भारत के प्लांट और फैक्ट्रियों में भी विदेशी निवेश हो रहा है।
कोविड के दौरान चीन की जो हालत हुई, उसे देखकर विश्व भर के उद्योगपतियों को यह पता चला कि उत्पादन के मामले में सिर्फ चीन पर निर्भरता ठीक नहीं है। इसलिए विदेशी पूंजी अब भारत से लेकर वियतनाम तक का रुख कर रही है, जो प्लांट और फैक्ट्रियों की शक्ल में दिखाई भी दे रही है। इसी प्रकार, प्रति व्यक्ति औसत वार्षिक आय जो 2014 में 1,573.9 डॉलर थी, अब 2023 में 2,601 डॉलर है। जीडीपी के मामले में भारत 2014 में 10वें स्थान पर था और अब यह शीर्ष की पांच अर्थव्यवस्थाओं में शुमार होता है। एक बड़ा युगांतकारी कदम था जीएसटी। मोदी सरकार 2017 में जीएसटी व्यवस्था लेकर आई। अक्तूबर 2023 में एकत्रित सकल जीएसटी राजस्व लगभग 1,72,000 लाख करोड़ रहा। यह संग्रह अक्तूबर 2022 के मुकबले 13 प्रतिशत अधिक है। डेढ़ लाख करोड़ रुपये प्रति माह से ज्यादा का जीएसटी संग्रह अब लगभग सामान्य बात हो गया है।
लुभा रहा भारतीय बाजार
अमेरिका के वे उद्यमी भी अब भारत में निवेश की बात कर रहे हैं, जो कुछ समय पहले तक निवेश में हिचक दिखा रहे थे। एलन मस्क, अमेजन सबको भारत में बेहतरीन भविष्य दिख रहा है। जाहिर है, विश्व को भारत में संभावनाएं नजर आ रही हैं। पर मसला सिर्फ आंकड़ों का नहीं है। चीन से उठकर भी तमाम अमेरिकी कंपनियां भारत आ रही हैं। इसका एक स्पष्ट कारण यह है कि अमेरिकी कंपनियों के लिए चीन अब उतना भरोसेमंद साझेदार नहीं रह गया है। लोगों को आशंका है कि चीन को लेकर कुछ भी निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता। वहां कभी भी, कुछ भी हो सकता है। इसके विपरीत भारत एक स्थिर लोकतंत्र है और यह बात विश्व को समझ आ रही है। विशेष रूप से अमेरिका को यह बात कुछ ज्यादा समझ आ रही है। अमेरिका के सामने अतिरिक्त चुनौती चीन के विस्तार से निबटने की भी है। पश्चिम के कई देश चीन की तुलना में भारत को विश्व भर में सर्वश्रेष्ठ तुल्यभार (काउंटरवेट) मानते हैं।
बदलती वैश्विक राजनीति में रूस और चीन लगभग साथ आ रहे हैं। ऐसे में भारत विश्व का एकमात्र ऐसा देश हो गया है, जो रूस और अमेरिका, दोनों से कई मसलों पर खरी बात कर सकता है। नरेंद्र मोदी जब पहली बार प्रधानमंत्री बने थे, तब कहा जाता था कि उन्हें विदेश नीति का कोई अनुभव नहीं है। पर आज विदेश नीति के मोर्चे की उपलब्धियां मोदी सरकार की बड़ी उपलब्धियों में गिनाई जाती हैं। विदेश नीति का एक आयाम यह भी है कि मध्यपूर्व के वे देश (सऊदी अरब, यूएई) भारत में निवेश के लिए उत्सुक दिखाई दे रहे हैं, जिन्हें कभी लगभग हर मुद्दे पर पाकिस्तान के हितचिंतक बन कर भारत की राह में रोड़े अटकाने वाला माना जाता था। सऊदी अरब को यह बात अच्छी तरह समझ आ गई है कि पेट्रोल आधारित कमाई लंबे समय तक नहीं चल सकती। आधुनिक उद्योगों में निवेश जरूरी है। भारत इसके लिए एक साझेदार हो सकता है, यह बात सऊदी अरब को समझ में आ गई है। इन्हीं कारणों से यूएई भारत का महत्वपूर्ण कारोबारी साझेदार है।
एक उदाहरपण देखिए, एप्पल आईफोन के लिए कल-पुर्जे बनाने वाली ताइवानी कंपनी फॉक्सकॉन ने भारत में इलेक्ट्रिकल वाहन बनाने का फैसला किया है। खबर सिर्फ इतनी नहीं है कि एक विदेशी कंपनी ने भारत में विदेशी निवेश का फैसला किया। विदेशी निवेश तो आएगा ही और जाहिर है कि वह एक बहुराष्ट्रीय कंपनी से आएगा। पर इस निवेश के गहरे भू-राजनीतिक अर्थ हैं। चीन के साथ ताइवान एक लंबे संघर्ष में उलझा हुआ है। ताइवान को लेकर चीन ने कई धमकियां दी हैं कि वह उस पर आक्रमण भी कर सकता है। कोई भी कंपनी एक शांतिपूर्ण माहौल चाहती है। खासतौर पर उन कंपनियों के लिए तो स्थिर वातावरण अनिवार्य है, जो एप्पल जैसे किसी दूसरे बहुराष्ट्रीय ब्रांड के लिए काम करती हैं। इलेक्ट्रिकल वाहन के क्षेत्र में फॉक्सकॉन के आने का अर्थ है कि इलेक्ट्रिक वाहनों में लागत और गुणवत्ता के स्तर पर नवाचार देखने में आएगा।
इलेक्ट्रिक वाहनों को लेकर आम उपभोक्ता में बहुत भ्रम है। अभी इन्हें कंसेप्ट वाहनों के तौर पर ही देखा जा रहा है। ये मुख्यधारा में लोकप्रिय नहीं हुए हैं। फॉक्सकॉन का व्यापक स्तर पर भारत में आना एक तरह से चीन के लिए संदेश है कि यदि उसने ताइवान को अधिक परेशान किया, तो ताइवान की कंपनियां चीन के प्रतिस्पर्धी के तौर पर भारत को मजबूत बनाने का काम करेंगी। चीन की दिक्कत यह है कि उसे एक साथ विश्व में विस्तारवादी झगड़े भी करने हैं और कारोबार भी करना है। और दोनों काम एक साथ नहीं चल सकते। इस मामले में भारत की वैश्विक छवि ठीक है। भारत बेवजह झगड़ों में नहीं उलझता और यहां राजनीतिक स्थिरता है, लोकतंत्र है, न्यायिक व्यवस्था है। ये सब कारण भारत को तमाम कंपनियों के लिए पसंदीदा देश बनाते हैं।
बढ़ता वैश्विक संकट
कोरोना ने भारत ही नहीं, पूरे विश्व की अर्थव्यस्था पर भीषण आघात किया है। भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर एक समय बुरी तरह से नकारात्मक तौर पर प्रभावित हुई। लेकिन वे बातें अब बहुत पुरानी लगती हैं। कोरोना काल में मनरेगा ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। 2022-23 यानी पिछले वित्त वर्ष के बजट में मनरेगा के लिए 78,000 करोड़ रुपये की राशि रखी गई थी। इसे बाद में बढ़ाया गया था। 2022-23 के संशोधित अनुमान के अनुसार, यह राशि लगभग 89,000 करोड़ कर दी गई है। लेकिन 2023-24 के लिए मनरेगा मद में लगभग 61,000 करोड़ रुपये ही रखे गए हैं। मनरेगा राजनीतिक तौर पर बहुत संवेदनशील योजना है और कोरोना काल में इस योजना से ग्रामीण क्षेत्रों को बहुत सहारा मिला था।
उधर, यूक्रेन का संकट लगातार खिंच रहा है। गाजापट्टी के युद्ध ने वैश्विक अर्थव्यवस्था की स्थिति को और गंभीर बना दिया है। तमाम पक्षों की तरफ से ऐसे कोई संकेत नही हैं कि युद्ध के बादल जल्दी छंट सकते हैं। कोरोना, यूक्रेन, गाजापट्टी का युद्ध ये ऐसे असाधारण कारक हैं, जिनसे विश्व का कोई देश नहीं बच सकता। पर इन कारकों पर कुछ असर डाल पाना विश्व के ज्यादातर देशों के वश में नहीं है। यूक्रेन युद्ध के बाद कच्चे तेल के भाव लगातार ऊपर गए। इसका असर भारतीय अर्थव्यवस्था ने भी झेला।
सरकार की चुनौतियां
महंगाई एक चुनौती के तौर पर हाल के वर्षों में मोदी सरकार के सामने रही है। मनमोहन सरकार के लिए भी महंगाई बहुत बड़ी चुनौती थी। संप्रग के चुनाव हारने का एक कारण मंहगाई भी थी। औसतन देखें तो मनमोहन सिंह के कार्यकाल में मुद्रास्फीति दर 7.5 प्रतिशत रही थी। अक्तूबर 2023 में खुदरा महंगाई की दर 4.87 प्रतिशत पर थी।
रिजर्व बैंक की नीतिगत आकांक्षा यह है कि महंगाई दर चार प्रतिशत के आसपास रहे। गिरे तो गिरकर दो प्रतिशत से नीचे न जाए और बढ़े तो छह प्रतिशत से ऊपर न जाए। सरकार की चुनौतियों में महंगाई सिर्फ एक मुद्दा है। विपक्ष रोजगार के अवसरों और रोजगार की गुणवत्ता को लेकर भी सरकार की घेराबंदी करता है। जी-20 बैठक के ठीक बाद विपक्षी नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा था, ‘‘अब जब जी-20 की बैठक खत्म हो गई है। मोदी सरकार को घरेलू मुद्दों पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए।’’ उन्होंने आगे कहा था कि अगस्त में भोजन की एक आम थाली का दाम 24 प्रतिशत बढ़ गया। देश में बेरोजगारी दर 8 प्रतिशत है। विपक्ष ने चुनौतियां रेखांकित कर दी हैं। उपलब्धियों का पीछा कर रही चुनौतियां भी कम नहीं हैं। चुनावी दौर में मोदी सरकार इस बात को समझती है। मोदी सरकार के विरोध में किसानों का आंदोलन भी चला। किसी भी वस्तु के भावों में तेज गिरावट और वृद्धि के कारणों में आपूर्ति और मांग का संतुलन होता है। अगर किसी वस्तु की मांग तेजी से बढ़ जाए, तो भाव बढ़ जाते हैं और किसी वस्तु की आपूर्ति तेजी से गिर जाए, तो उसके भाव गिर जाते हैं। आपूर्ति गिरने के कारण कुछ भी हो सकते हैं, बाढ़ या सूखा या किसी भी प्राकृतिक आपदा के चलते किसी वस्तु की आपूर्ति बाधित हो सकती है। इसमें किसी सरकार का कोई दखल नहीं होता। पर सरकारें किसी एक दीर्घकालीन नीति पर काम कर सकती हैं, जिनसे किसानों और उपभोक्ताओं के हितों को सुनिश्चित किया जा सके।
देखने में यह आता है कि कभी इस आशय की खबरें आती हैं कि सस्ती कीमतों से नाराज किसान अपना प्याज सड़क पर ही छोड़कर चले गए। कई मामलों में यह भी देखने में आता है कि प्याज या किसी और कृषि उपज को खेत से बाजार तक लाने की लागत ज्यादा बैठती है, लेकिन कीमत उससे कम मिलती है। ऐसी सूरत में किसान अपनी फसल को सड़क पर छोड़कर जाने में ही भलाई समझते हैं। विरोध का यह तरीका कई बार देखा जाता है। ऐसा क्यों होता है कि एक किसान यह अनुमान नहीं लगा पाता कि इस मौसम में उसे फसल के भाव ठीक नहीं मिलेंगे? ऐसा इसलिए होता है कि इस तरह की व्यवस्थाएं अभी बनी नहीं हैं, जो किसानों को यह सलाह दे सकें कि प्याज-टमाटर की आवक ज्यादा होने की उम्मीद है, इसलिए इस बार प्याज के बजाए कुछ और उपजा लो। छोटा किसान आंख मूंदकर एक ही ढर्रे पर खेती कर रहा है। मांग और आपूर्ति के पूवार्नुमान उसके पास नहीं हैं। इसके लिए हमारे संस्थागत इंतजाम भी कमजोर ही हैं।
वहीं, बड़े किसान, चतुर सुजान होते हैं, जो अपना हिसाब-किताब जमा लेते हैं। इसलिए यह लगातार देखने में आता है कि बिचौलिये सस्ते भाव पर प्याज को स्टॉक करते हैं और महंगे पर बेचते हैं। पर महंगे भाव का फायदा बिचौलियों को होता है, छोटे किसान की समस्या तो वही रहती है कि इस बार प्याज बहुत ज्यादा हुआ, तो सस्ता बेचना पड़ा। या इस बार प्याज कम उगाया, तो बाजार में भाव बहुत बढ़े हुए मिल रहे हैं। छोटे किसान के लिए ठोस संस्थागत काम बढ़ाने की जरूरत है।
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