महानिशा के महालक्ष्मी पूजन और दीपोत्सव के बाद प्रतिपदा तिथि को गोवर्धन पूजा और अन्नकूट का आयोजन किया जाता है। श्रीमद्भागवत के अनुसार द्वापर युग में ब्रजमंडल में गोवर्धन पूजा से पूर्व देवराज इंद्र के पूजन की परम्परा प्रचलित थी; मगर श्रीकृष्ण ने उस विधान को बदल कर गोवर्धन पर्वत के पूजन की परम्परा डाली। किशोरवय कान्हा ने गोवर्धन पर्वत को अपनी कनिष्ठका पर धारणकर इंद्र के कोप से बृजवासियों की रक्षा की थी। कृष्ण द्वारा इस बदलाव को लाने के पीछे दो मूल उद्देश्य थे- पहला इन्द्र के अहंकार का नाश और दूसरा प्रकृति के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना।
अपने स्थान पर गोवर्द्धन पूजा के आयोजन से क्रुद्ध इन्द्र ने सात दिन तक मूसलाधार बारिश कर दी। तब गोवर्द्धन को अंगुली पर उठाकर श्रीकृष्ण ने इन्द्र की प्रलयकारी वर्षा बेअसर कर दी। अंततः इंद्रदेव का अहंकार टूटा तो उन्होंने कृष्ण से माफी मांगी। श्रीमदभागवत का कथानक कहता है कि देवराज इंद्र का अभिमान चूर होता देख प्रसन्न हुई गौ माता ने अपने दुग्ध से भगवान श्रीकृष्ण के साथ गोवर्धन का भी अभिषेक किया और तभी से गोवर्द्धन पूजा की परम्परा शुरू हो गयी।
दरअसल गोवर्धन पूजा के पीछे भगवान श्री कृष्ण का प्रकृति संरक्षण का मूल भाव निहित है। गोवर्धन पूजा इस बात का प्रतीक है कि पर्वत प्रकृति का श्रंगार हैं। पहाड़ों से वर्षा होती है। पहाड़ों से वन पनपते हैं। पहाड़ों से हजारों नदियां निकलती हैं जो हमें शुद्ध जल देती हैं। आज जिस तरह समूची दुनिया पर्यावरण प्रदूषण से कराह रही है। पहाड़ों पर कूड़ा कचरा और प्लास्टिक फैला कर पर्यावरण प्रदूषण बढ़ाया जा रहा है; ऐसे में गोवर्धन पूजा से हमें स्वच्छता और प्रकृति प्रेम का दिव्य संदेश मिलता है। भगवान कृष्ण ने गोकुलवासियों को तर्क दिया था कि गोवर्धन पर्वत हमारे गोधन का संवर्धन एवं संरक्षण करता है, जिससे पर्यावरण भी शुद्ध होता है। इसीलिए गोवर्धन पूजा में गोधन यानी गायों की भी पूजा की जाती है।
बताते चलें कि उत्तर भारत खास तौरपर ब्रजमंडल में गोवर्धन पूजा की पुरातन परम्परा है। सनातनधर्मी श्रद्धालु इस दिन घरों में गोबर का गोवर्धन पर्वत बना कर पुष्पों से सुसज्जित कर षोडशोपचार पूजन करते हैं। फिर गोवंश (गाय-बैल) को स्नान कराकर फूल माला, धूप, चन्दन आदि से उनका पूजन किया जाता है। गायों को मीठा खिलाकर उनकी आरती उतार प्रदक्षिणा की जाती है। श्रद्धालु इस मौके पर ब्रजमंडल में गिरिराज गोवर्धन पूजा-प्रदक्षिणा भी करते हैं। यूं तो गोवर्धन ब्रज की छोटी पहाड़ी है, किन्तु इसे गिरिराज (अर्थात पर्वतों का राजा) कहा जाता है। इसे यह महत्व इसलिए प्राप्त है क्योंकि यह भगवान कृष्ण के समय का एकमात्र स्थिर अवशेष है। द्वापर युग की यमुना नदी जहां समय-समय पर अपनी धारा बदलती रही है, वहीं गोवर्धन अपने मूल स्थान पर ही अविचलित रूप में विद्यमान है। शास्त्रीय मान्यता है कि दीपावली के दिन भगवान श्रीकृष्ण ने नंदगाव से आकर गोवर्धन की सप्तकोसीय परिक्रमा लगायी थी, इसलिए दीपावली के दिन हजारों श्रद्धालु इस पर्व को मनाने यहां आते हैं और गोवर्धन परिक्रमा करते हैं। वर्तमान के अत्याधुनिक समाज में भी ये पौराणिक परम्पराएं हमें प्रकृति प्रेम की अनुपम प्रेरणा देती हैं।
गोवर्धन पूजा के दौरान छप्पन भोग बना कर भगवान को भोग लगाये जाने की भी परम्परा है। अन्नकूट पूजा का यह उत्सव मन्दिरों में सामूहिक रूप से भी मनाया जाता है। इस अन्नकूट उत्सव के आयोजन के पीछे एक अत्यंत रोचक पौराणिक प्रसंग है। कहा जाता है कि माता यशोदा रोज अपने लाडले लाल को आठ बार भोग लगाती थीं। मगर गोवर्धन धारण के दौरान वे सात दिन बिना कुछ खाये पिये निराहार रहे। जब संकट टला तो माता यशोदा तथा ब्रजवासियों से मिलकर ने सात दिन की कसर एक दिन में ही पूरी कर दी। सात दिन के आठ भोग का हिसाब लगा 56 व्यंजन का भोग कान्हा को लगाया गया। तभी से अन्नकूट उत्सव की परम्परा पड़ गयी। श्रीमद्भागवत के एकादश स्कंध में अन्नकूट के विषय में उल्लेख मिलता है-
यद्धदिष्टतम लोके यच्चापि प्रियमात्मन:। ततन्निवेदयान्महन्म ।।
अर्थात प्रकृति में मौजूद रसों का समावेश कर श्रीकृष्ण भक्ति के सोपान में अन्नकूट महोत्सव का आयोजन किया जाता है। अन्नकूट का एक अन्य अर्थ अन्न का पहाड़ भी है। कथानक है कि कान्हा ने प्रत्येक ब्रजवासी को गोवर्धन पूजा के प्रसाद के लिए सामग्री लाने को कहा था। ब्रजवासियों द्वारा लायी गयी सामग्री की मात्रा इतनी ज्यादा हो गयी कि गोवर्धन पर्वत के समानांतर अन्न का पहाड़ बन गया था।
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