दिल्ली-एनसीआर गैस चैम्बर का भयावह रूप ले चुका है। सरकार की ओर से प्रतिबंधों के नित नए निर्देश जारी किए जा रहे हैं। महामारी से पूर्व लॉकडाउन शब्द से परिचय ही नहीं था परन्तु अब दिल्ली में फिर से लॉकडाउन लागू करने के आसार बनने लगे हैं। ऊपर से एक-दूसरे राज्य पर दोषारोपण की बौछारें, जो दर्शाती हैं “अपनी गलती का ठीकरा दूसरे के माथे फोड़ना”। गलती में सुधार करना तो जैसे बीते ज़माने की बात हो गई ।
हम आज जहां भी हैं परंपराओं से कटे- फटे हैं । आज भगदड़ में पड़ी कथित सभ्यता ने प्रकृति से सामंजस्य बैठाकर चलने वाली अपनी परंपराओं से लगभग सभी नाते तोड़ लिए हैं । हर कोई शाख़ से टूटे पत्ते की तरह यहाँ –वहां टकरा रहा है। विश्वास और संतोष की जो परंपराएँ समाज को टिकाए रखती थीं, उसे संचालित करती थीं, उनकी प्रतिष्ठा को गैर जरूरी विकास की आपाधापी ने छिन्न-भिन्न कर दिया है। नए विकल्प ढूंढे बिना पुरानी व्यवस्थाएँ तोड़ दी गईं । परिणाम यह हुआ कि न नया बचा ,न पुराना । और विडंबना यह कि नए- पुराने की जांच के बगैर नई योजनाएं और एक ही प्रकार के नियम भिन्न-भिन्न भौगोलिक स्थितियों को नज़रअंदाज़ कर पूरे देश में लागू कर दिए। परिणाम यह हुआ कि जो व्यवस्थाएं सदियों से अनेक आक्रांताओं के प्रहारों के बीच भी सिर उठाए खड़ी रहीं, वे कथित विकास को सर्वेसर्वा मानने वालों की नासमझी की भेंट चढ़ गईं।
घर बनाना हो या नया गाँव, शहर बसाना हो, दिशा विशेष का ध्यान रखा जाता था। राजस्थान में अधिकांशतः उत्तर से पश्चिम और पश्चिम से पूर्व हवा बहती है । इसी कारण उन व्यावसायिक जातियों को गाँव से दक्षिण पूर्व दिशा में बसाया जाता था जिनके व्यवसाय से वायु प्रदूषण हो। जैसे कुम्हार, चमड़े का काम करने वाले गाँव से दक्षिण पूर्व दिशा में अपनी बसावट करते थे, जिससे उनके व्यवसाय की गंध या धुआं सीधे पश्चिम से पूर्व की दिशा से होते हुए गाँव की सीमा से बाहर हो जाता था। जोधपुर शहर में आज भी यह दिशा ज्ञान प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। मेहरानगढ़ के दक्षिण पूर्व की ओर कुम्हारों, रंगरेज़ों , चर्मकारों की बस्ती है। बसावट का यह नियम छुआ- छूत से परे विशुद्ध वैज्ञानिक था ।
देश की राजधानी दिल्ली जो कि साल में अधिकांशतः औसत वायु गुणवत्ता की संतोषजनक स्थिति में नहीं रहती। बड़ी-बड़ी तकनीकों को ठेंगा दिखाते हुए अक्तूबर, नवंबर में प्रशासन की नींद उड़ा देती है। और अपने दम पर विकास रूपी गाड़ियों को ज्यों का त्यों रोक देती है। प्रकृति का यह रौद्र रूप उसकी अनदेखी और नासमझी से ही हुआ है। हवा की रफ्तार की ही तरह इस महीने में प्रदूषण के लिए हवा की दिशा भी एक कारक है। दिल्ली में मानसून के बाद हवाओं की प्रमुख दिशा उत्तर-पश्चिमी है। खासतौर पर इस महीने में उत्तर-पश्चिम की ओर चलनेवाली हवा के कारण पंजाब-हरियाणा के खेतों से आनेवाला पराली का धुआं भी दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण बढ़ाता है। जब हरियाणा और पंजाब में पराली जलाई जा रही होती है तो ये हवाएं शहर में धूल और धुआं लाती हैं। यानी हवा की दिशा अपना रुख़ बदलेगी तभी इस धुएं से राहत मिलेगी।
गैस चैम्बर बनने का एक अन्य कारण है तापमान में गिरावट। इसका मतलब यह है कि जब तापमान गिरता है और हवा में आद्रता बढ़ती है तो प्रदूषण के कण आसानी से हवा में जमा हो जाते हैं। वहीं दिसंबर-जनवरी में पूर्वी दिशा की ओर से हवा बहती है और इस कारण दिल्ली-एनसीआर का प्रदूषण मैदानी इलाकों में आकर ठहर जाता है। आज दिल्ली गैस का एक स्थायी चैम्बर बनी है । इसका प्रमुख कारण है उसकी अवैज्ञानिक बसावट और बेढंग आधुनिकीकरण। दिल्ली का अधिकांश औद्यौगिक क्षेत्र उस दिशा में स्थापित है जहां से प्रदूषित हवा सीधे शहर के अंदर पहुंचती है। अलवर, फरीदाबाद, गुरुग्राम हो नरेला या फिर नोएडा सभी की ज़हरीली हवा दिल्ली पहुँचती है। क्योंकि दिल्ली में अधिकांश उत्तर पश्चिम हवाएँ चलती हैं।
कैसी है ये बे तरतीब बसावट और कैसा है ये विकास, जहां कभी प्रदूषित हवा, कभी बाढ़ तो कभी शुद्ध जल की बूँद -बूँद को तरसती है देश की राजधानी । बीती बारिश में भी दिल्ली प्रकृति के सामने पानी-पानी हो गई थी। दो-तीन दिन के लिए ही सही, यमुना ने लाल किले की दीवार तक का अपना पुराना इलाका फिर से नाप लिया था। पूरा तंत्र उसके सामने लाचार हो गया। क्या सचमुच विकास के यही प्रमाण हैं हमारे पास ? सदियों से जहां बसावट में दिशा, जलवायु , औसत वर्षा, अन्य सभी निर्धारित मानदंडों का ध्यान रखा जाता था । बसावट के प्राकृतिक सिद्धांतों में उन सभी नियमों को शामिल किया जाता था, जिससे राज और समाज दोनों लाभान्वित हों और उनका चुहुंमुखी विकास हो सके। नई बसावट का मुख्य उद्देश्य राज्य सरकारों द्वारा आर्थिक या राजनीतिक उन्नति करना ही नहीं था बल्कि प्रजा की सुख-समृद्धि भी उन मानदंडों में समाहित थी। इसी नियम के तहत सदियों- सदियों देश के राज्य अपने क्षेत्रफल, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं प्राकृतिक समृद्धि को बनाए रख सके । आवश्यकता आज भी यही कि पुरखों के बताए रास्तों को अपना कर हम दूरगामी सोच के साथ आगे बढ़ें, ताकि हमारे नगरों का जीवन और संतुलित वातावरण बना रह सके।
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