सामाजिक न्याय या सोशल जस्टिस के नाम पर कई युवा कई बार समाज को तोड़ने वाले एजेंडे का शिकार हो जाते हैं, जैसा हमने भारत में लगातार देखा है। भारत में नागरिकता संशोधन विरोधी आन्दोलन हो या फिर कृषि कानूनों का विरोध करने वाले आन्दोलन, सभी में सामाजिक न्याय के नाम पर भारत के सामाजिक तानेबाने को छिन्न-भिन्न करने के लिए हरसंभव कदम उठाए गए थे।
विशेषकर नागरिकता संशोधन अधिनियम का विरोध करने वाले आन्दोलन में, जिसमें पाकिस्तान, अफगानिस्तान से पीड़ित होकर आए हिन्दुओं के लिए नागरिकता और न्याय का विरोध किया गया था। और वह सब किया गया था उन लोगों द्वारा जो कथित सामाजिक न्याय की घुट्टी विद्यार्थियों को पिलाते हैं। और उन्हें समाज के विरुद्ध खड़ा कर देते हैं। मगर जब कोई ऐसी घटना होती है, जिस पर सामाजिक न्याय का विकृत एजेंडा चलाने वालों की प्रतिक्रिया नहीं आती है तो हजारों ऐसे लोग होते हैं, जो सत्य देखते हैं। वह एजेंडे की परत तोड़कर देखते हैं। भारत में वह देखते हैं कि सामाजिक न्याय की बात करने वाले कभी कश्मीरी पंडितों के जीनोसाइड की बात नहीं करते, वह मोपला में हुए हिन्दुओं के जीनोसाइड को किसान विद्रोह बताकर पूरा विमर्श बदलते हैं, उनके लिए गिरिजा टिक्कू की जिंदा कटने की पीड़ा और कश्मीरी पंडितों के दुधमुंहे बच्चों की हत्या कोई मायने नहीं रखती है और तब उन्हें समझ आता है कि दरअसल यह सारा कथित सामाजिक न्याय एक छलावे के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
वह देखते हैं कि रोज दिनदहाड़े पाकिस्तान में हिन्दू लड़कियों का अपहरण और उनका जबरन निकाह हो रहा है, मगर “देह ही देश है” लिखने वाली लेखिकाओं की चुप्पी उन लड़कियों की पीड़ा पर नहीं टूटती! आठ साल से लेकर 40 साल तक की हिन्दू महिलाएं वहां पर शिकार हो रही हैं, मगर एक भयानक चुप्पी ही नहीं छाई रहती है बल्कि साथ ही उसे नकारने का और कहीं न कहीं सही भी ठहराने का प्रयास होता है और कई कारण दिए जाते हैं। जैसे कश्मीरी पंडितों का एकाधिकार नौकरियों पर था आदि आदि!
यहाँ तक कि वह बिट्टा कराते के उस इंटरव्यू पर भी कुछ नहीं कहते हैं जिसमें वह साफ़ कहता हुआ पाया गया कि उसने 20 कश्मीरी पंडितों की हत्या की थी और उसने सिर या दिल पर गोली मारी थी और उसने कहा था कि अगर उसे अपनी मां या भाई का कत्ल करने का आदेश भी मिलता तो वह उनकी भी हत्या करने से नहीं हिचकता।
और जब इन कथित सामाजिक न्याय के एजेंडे से प्रभावित लोगों का मोहभंग होता है तो वह विलाप करते हैं। ऐसा ही विलाप सोशल मीडिया पर इन दिनों कई वह लोग कर रहे हैं जो लेफ्ट लॉबी के सोशल जस्टिस मूवमेंट अर्थात सामाजिक न्याय आन्दोलनों का शिकार हुए। वह लोग देख रहे हैं कि कैसे जैसे ही इजरायल में यहूदियों को मारना आरम्भ किया गया और बच्चों को निर्ममता पूर्वक मारा इतना ही नहीं एक बच्चे को जिंदा ही ओवन में भून दिया गया, मगर उस पर कथित सोशल जस्टिस वालों ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। और जैसे ही इजरायल ने अपनी रक्षा के लिए हमास के आतंकियों पर पलटवार करना आरम्भ किया, एक अजीब सी क्रांति पूरी दुनिया में आ गयी। लोग कहने लगे कि इजरायल जीनोसाइड कर रहा है, वह विस्तारवादी है आदि आदि! परन्तु यह नींद तब नहीं टूटी थी जब निर्दोष इजरायली नागरिकों को हमास के आतंकियों ने जिस वीभत्सता से मारा था, उसे देखकर हैवानियत भी शरमा जाए। क्या वास्तव में सामाजिक न्याय या सोशल जस्टिस इस सीमा तक एकतरफा है कि वह हमास के आतंकियों द्वारा इजरायल के नागरिकों को मारे जाने पर मौन रहता है और इजरायल के निर्दोष नागरिकों को बंधक बनाने पर भी चुप्पी साधता ही नहीं है बल्कि कथित मानवता का दावा करने वाले उन तमाम पोस्टर्स को भी उखाड़ फेंकते हैं, जिनमें उस हमले में लापता हुए बच्चों की तस्वीरें होती हैं।
सोशल मीडिया पर तमाम लोग उस मोहभंग और पीड़ा से होकर गुजर रहे हैं। Jordyn नामक एक यूजर ने लिखा कि
Before October 7, I actually believed in social justice movements. I believed that there were large swaths of people who cared unequivocally about women, who cared unequivocally about people of color, who cared unequivocally about members of the LGBTQ+ community.
Then I saw…
— Jordyn (@JordynTilchen) October 31, 2023
7 अक्टूबर से पहले, वास्तव में सामाजिक न्याय आंदोलनों में मेरा विश्वास था। मेरा मानना था कि बड़ी संख्या में ऐसे लोग थे जो स्पष्ट रूप से महिलाओं की परवाह करते थे, जो स्पष्ट रूप से रंग के लोगों की परवाह करते थे, जो स्पष्ट रूप से एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के सदस्यों की परवाह करते थे।
मगर फिर मेरे सामने आया कि उन्हें महिलाओं की परवाह नहीं है (यदि वे यहूदी हैं), उन्हें कलर्ड लोगों की अर्थात श्वेत या अश्वेत जैसे किसी भी परवाह नहीं है (यदि वे यहूदी हैं), और उन्हें एलजीबीटीक्यू+ लोगों की परवाह नहीं है (यदि वे पुनः यहूदी हैं))। अरे, उन्हें बच्चों की भी परवाह नहीं है (यदि वे यहूदी हैं)।
आपका लबादा उतर चुका है। आपके सामाजिक न्याय आंदोलन नकली हैं।
इस पोस्ट पर तमाम लोग लगभग इसी स्वीकारोक्ति की बात कर रहे हैं। और एक यूजर ने लिखा कि हम हिन्दू इसे पहले ही अनुभव कर चुके हैं। मगर यह बात सत्य नहीं है। आज भी भारी संख्या में युवा पीढ़ी इसी सामाजिक न्याय के झुनझने वाले आन्दोलन का शिकार हो रही है, जो तमाम चुप्पियों को समेटे रहता है।
उन्हें मरती हुई महिलाओं या लड़कियों की परवाह नहीं होती है (यदि वह हिन्दू हैं, तो! कहीं भी नहीं, पाकिस्तान, बांग्लादेश एवं कट्टर मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों में), उन्हें उन मुस्लिम लड़कियों या महिलाओं की परवाह नहीं हैं जो मुस्लिमों की ही कट्टरता का शिकार हो रही हैं, उन्हें मरते बच्चों की परवाह नहीं हैं, (यदि वह हिन्दू हैं या फिर भारतीय जड़ों से जुड़े लोग हैं तो) और उन्हें एलजीबीटीक्यू+ लोगों की परवाह नहीं है (यदि वह मुस्लिम कट्टरता का शिकार हैं तो)!
ऐसा प्रतीत होता है कि कथित सामाजिक न्याय मात्र कट्टरपंथी मुस्लिम का एक सहायक टूल बनकर रह गया है, जो उन तमाम हिंसाओं पर मौन साधता है जो कट्टरपंथी आतंकियों द्वारा की जाती हैं, जैसे वह हमास के आतंकियों द्वारा की गयी हिंसा पर मौन ही नहीं बल्कि उसे विद्रोह या प्रतिरोध कह रहा है!
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