हमारी उम्र के लोगों की आबादी का बड़ा हिस्सा चटोरी जबान का था। हमें हर चीज कम पड़ जाती थी, जो स्नैक्स हम मन भर खाना चाहते थे, वह मिलते भी थे तो नाप-तोल कर, गिनकर।
इनसान ध्यान नहीं देता है, फिर अचानक उसे याद आता है कि जो चीज उसे कभी बहुत अजीज थी, वह 4-5 वर्ष से उसकी जिंदगी का हिस्सा नहीं है और उसने कभी ध्यान भी नहीं दिया। हमारी उम्र के लोगों की आबादी का बड़ा हिस्सा चटोरी जबान का था। हमें हर चीज कम पड़ जाती थी, जो स्नैक्स हम मन भर खाना चाहते थे, वह मिलते भी थे तो नाप-तोल कर, गिनकर।
जरा सा खाने के बाद जबान पर समोसे या चाट की लज्जत चिपकी रहती थी और पेट की हालत ऐसी कि उसे जीरा भी नसीब नहीं हुआ हो। उस वक्त एक उम्मीद रहती थी कि बड़े होकर रोज मन भर यही सब खाएंगे। बड़े हुए तो पता चला कि स्ट्रीट फूड का पूरा सिलेबस बदल गया है। जिस चीज का अरमान लेकर हम इतने साल से जी रहे थे उसका रूप बदल गया है।
हमारे समय में स्ट्रीट फूड बहुत साधारण हुआ करते थे, बेचने वाले के लिए उसका ठेला दुकान नहीं, पहचान हुआ करता था। पर अब खाने के स्वाद से ज्यादा उसके रूप को अहमियत दी जा रही है। हर चीज के दाम बढ़ा दिए गए हैं। पैकेजिंग प्रीमियम हो गई है और स्वाद जीरो। कई दफा कुछ खाने का दिल तो बहुत करता है, पर उसका रंग देखकर लगता है कि खाकर पछताने- कोसने से बेहतर है, देखा ही न जाए।
बचपन की हर चीज बाजार में मिल तो रही है, पर उसमें वह स्वाद नहीं है। हमारी तरफ मिलने वाली ‘फुल्की’ को फिल्मों में गोलगप्पा, कहीं पुचका, कहीं बताशा तो कहीं आरएक्स 100 नाम रख दिया गया है। हमारे यहां फुल्की की दुकान पर एक पत्ता थमाया जाता था, फिर दुकानदार एक-एक फुल्की पत्ते पर रखता जाता था। फुल्की हमेशा चाट के ठेले पर ही मिलती थी।
हमारे समय में स्ट्रीट फूड बहुत साधारण हुआ करते थे, बेचने वाले के लिए उसका ठेला दुकान नहीं, पहचान हुआ करता था। पर अब खाने के स्वाद से ज्यादा उसके रूप को अहमियत दी जा रही है। हर चीज के दाम बढ़ा दिए गए हैं। पैकेजिंग प्रीमियम हो गई है और स्वाद जीरो। कई दफा कुछ खाने का दिल तो बहुत करता है, पर उसका रंग देखकर लगता है कि खाकर पछताने- कोसने से बेहतर है, देखा ही न जाए।
आटे की तली हुई करारी फुल्की को फोड़ कर उसमें गरमागरम पके हुए (उबले हुए नहीं) चाट/छोले को भरा जाता था। चुटकी भर डालने का रिवाज नहीं था। साथ में सिर्फ एक तरह का जबान झनझना देने वाला चटपटा पानी। मीठे के शौकीन लोग फुल्की में पानी नहीं डलवाते थे। ऐसे ग्राहकों को दुकानदार पानी की जगह बारीक कटी प्याज, धनिया और टमाटर की गाढ़ी चटनी डालकर देता था और क्या स्वाद होता था उसका। उसे खाने का मजा ही अलग होता था।
आज की तरह कंचे के साइज की फुल्की नहीं होती थी। होने वाला दामाद गुटखा दोहरा खाता है या नहीं, इसकी जांच करने के लिए लड़की वाले उसे फुल्की खिलाकर परखते थे। फुल्की को जबान पर रखकर दांतों से दबाने पर एक साथ कई स्वाद के ‘फ्लेवर बॉम्ब’ फूटते थे। पहले क्रंच इतना मिलता था कि 3-4 फुल्की में मसूड़ा जख्मी हो जाता। उसके साथ पहले पानी मुंह में घुलता था, फिर पानी, छोला और फुल्की मिलकर ऐसा स्वाद बनाते थे कि खाने के दो घंटे बाद भी जबान भूलती नहीं थी।
तब चीजें बहुत सामान्य थीं, अब हर चीज खूब बिक रही है, लेकिन उनका कोई मतलब नहीं है। दुकानदारों को भेड़ चाल और रील्स की दौड़ छोड़कर गुणवत्ता पर ध्यान देना चाहिए। कोई जरूरत नहीं है सात तरह का पानी रखने की। बस इतना करो कि फुल्की में उबली मटर, अंकुरित अनाज भरकर मत दो। हम महीने-दो महीने में स्वाद बदलने के लिए खाते हैं, तुम लोग जायका मत बिगाड़ो हमारा।
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