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पेरिस जा रहे हैं तो जरा संभलकर, वहां खटमल का है आतंक

क्या यह बात नहीं होनी चाहिए कि आखिर फैशन का केंद्र कहे जाने वाले पेरिस में इतने खटमल आए कैसे और क्यों प्रशासन इतनी बड़ी समस्या का हल निकालने में विफल रहा है

by सोनाली मिश्रा
Oct 3, 2023, 05:28 pm IST
in विश्व
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किसी शहर या देश जाते समय तमाम हिदायतें दी जाती हैं कि इस बात की सावधानी रखी जाए या रास्ते में ठगों अदि से बचा जाए, मगर किसी शहर या देश जाते समय यह कहा जाए कि उस देश में उस शहर में खटमलों से बचना, तो अचानक से उस देश की छवि आएगी, जिसे पश्चिमी या कहें ईसाई मीडिया पिछड़ी तीसरी दुनिया के देश कहती है और उसमें भी वह देश जो अपनी मूल जड़ों से जुड़े हैं जैसे भारत।

यदि भारत आना हो तो औपनिवेशिक और हिन्दू द्रोही मानसिकता से ग्रसित पश्चिम का मीडिया अपने दुराग्रहों से पूर्ण रिपोर्ट देता रहता है और यह दुराग्रह लगभग हर अवसर पर उनकी रिपोर्टिंग से प्रदर्शित होता रहता है। मगर क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि एक ऐसे शहर के विषय में खटमल को लेकर कोलाहल मचा हो, जिसे कथित रूप से सबसे विकसित माना जाता है और जिसे कथित रूप से फैशन, कला, साहित्य, संगीत आदि का केंद्र माना जाता है। जहां की ख़ूबसूरती के कसीदे पढ़े जाते हैं। जी हां, यह शहर है पेरिस! पेरिस में मेट्रो की सीटों के नीचे से खटमल निकल रहे हैं, वहां पर मूवी थिएटर में खटमल काट रहे हैं और होटलों में भी खटमलों की भरमार है। वहां पर मेमस बनाए जा रहे हैं कि “कोई भी सुरक्षित नहीं है!”

लोग वहां पर अपने शरीर की तस्वीरें साझा कर रहे हैं और दिखा रहे हैं कि कैसे उन्हें खटमलों ने काटा है। इतना ही नहीं सोशल मीडिया इस बात से भरा पड़ा है कि कैसे और देशों को पेरिस से आने वाले लोगों के लिए अपनी सीमाएं बंद कर देनी चाहिए। लोग कह रहे हैं कि खटमल इस दुनिया के सबसे बड़े शैतान हैं और वह आपकी शांति, आपका फर्नीचर आदि सब खत्म कर देंगे। पेरिस में वर्ष 2024 में ओलंपिक्स होने हैं और अब लोग कह रहे हैं कि कैसे ओलंपिक्स का आयोजन होगा? वहीं पेरिस फैशन वीक में आने वाले लोगों को सुझाव दिया जा रहा है कि वह कैसे खटमलों से बचें। यह कहा जा रहा है कि कैसे वह खटमलों की पकड़ में न आएं। अपना सामान बात टब में रखें। यदि आप सार्वजनिक परिवहन से जा रहे हैं तो फैब्रिक सीट पर न बैठें और अमेज़न से खटमल मारने वाला हीटर खरीदकर ले जाएं।

तमाम मीडिया पोर्टल्स लोगों को खटमलों के कारण होने वाली समस्या के विषय में तो बात कर रहे हैं, मगर साथ ही यह भी कह रहे हैं कि यह तो आम शहरी समस्या है। केंटुकी यूनिवर्सिटी में शहरी एंटोमोलॉजी के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर ज़चारी डेवरीज का कहना है कि बड़े शहरों में, खटमल होते ही हैं। मगर कुछ वीडियो बहुत चेतावनी देने वाले हैं, विशेषकर सार्वजनिक परिवहन को लेकर जो दिखाए जा रहे हैं, और वह भी तब जब आप देखते हैं कि दिन में खटमल वहां चल रहे हैं।”

यह सही है कि कीड़े हर शहरी तंत्र का भाग होते हैं, मगर स्वच्छता, सुधार एवं व्यवस्था के स्तर पर पश्चिम को सिरमौर बताने वाला पश्चिमी मीडिया इतनी बड़ी समस्या को लेकर आलोचनात्मक लेख नहीं लिख रहा है। जबकि ऐसी कोई भी समस्या न होने पर भी भारत के प्रति दुराग्रहपूर्ण रिपोर्टिंग बार-बार दिखती है। जितने भी लेख दिखे हैं, उनमें लोगों की समस्याएं हैं, पीड़ा है, मगर व्यवस्था तंत्र के प्रति कोई भी आलोचना नहीं है। अर्थात सरकार की आलोचना कहीं नहीं है। पेरिस सिटी हॉल विशेषकर ओलंपिक्स एवं पैरा ओलंपिक्स गेम्स में आने वाले मेहमानों के लिए खतरों को लेकर बहुत चिंतित है। मेयर ने फ्रांस की प्रधानमंत्री एलिजाबेथ बोर्न से चिट्ठी लिखकर अनुरोध किया है कि खटमल सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या है और इसे ऐसे ही घोषित किया जाए।

परन्तु यहाँ पर प्रश्न यह है कि भारत जैसे देशों की छोटी छोटी बातों पर बुराई करने वाला कथित कल्चर्ड एवं लिबरल पश्चिम मीडिया स्वच्छता की इतनी बड़ी विफलता के विषय में कुछ नहीं कह रहा है। वह मौन है। रिपोर्टिंग और आलोचनात्मक रिपोर्टिंग में जमीन आसमान का अंतर होता है। क्या खटमल से कोई रोग नहीं फैलेंगे? जाहिर हैं खटमल लोगों का खून चूसते हैं, तो वह त्वचा को तो हानि पहुंचाते ही हैं और साथ ही कई और रोग भी पैदा कर सकते हैं। मगर इतनी बड़ी विफलता को लेकर कोई अवधारणात्मक आलोचना नहीं है। ऐसा क्यों? व्यवस्था के ढहने को लेकर न ही पेरिस की इतनी बड़ी घटना को लेकर औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त पश्चिमी मीडिया में आलोचना के स्वर हैं और न ही बाढ़ के चलते न्यूयॉर्क में आई बाढ़ को लेकर घोषित हुई इमरजेंसी को लेकर आलोचनात्मक स्वर है।

क्या कारण है कि जब पश्चिम या कहें उनकी भाषा में गढ़े गए अपने ही सभ्य देशों में कोई व्यवस्थागत त्रुटि और दुर्घटना होती है तो वह मात्र घटना का विवरण करने वाली रिपोर्टिंग के योग्य होती है, परन्तु भारत में आने वाली बाढ़ या कोई और आपदा भारत के ढाँचे पर प्रश्न खड़ा करने वाली होती है? कोरोना के समय यह पूरी दुनिया ने देखा था कि कैसे भारत अपने सीमित संसाधनों के चलते मुकाबला कर रहा था, तो वहीं अमेरिका में लाशें न दिखाने वाला पश्चिमी मीडिया भारत में जलती चिताओं की तस्वीरें पोस्ट कर रहा था। क्या कथित विकास का मुखौटा ओढ़े उन पश्चिमी देशों और शहरों की इतनी बड़ी व्यवस्थागत खामियों पर बात नहीं होनी चाहिए जो पूरे विश्व में स्वयं को कल्चर, कला, विकास, संगीत और फैशन आदि का मुखिया समझते हैं।

क्या यह बात नहीं होनी चाहिए कि आखिर फैशन का केंद्र कहे जाने वाले पेरिस में इतने खटमल आए कैसे और क्यों प्रशासन इतनी बड़ी समस्या का हल निकालने में विफल रहा है, जो अब मेट्रो, होटल और अन्य सार्वजनिक स्थानों पर पहुँच गया है कि वहीं के लोग कह रहे हैं कि “कोई भी सुरक्षित नहीं है!”  मगर इस सुरक्षा के विश्लेषण पर आलोचनात्मक विश्लेषण का न होना, मीडिया के उस पक्षपात को दिखाता है जो वह भारत जैसे देशों के साथ करता है, क्योंकि कथित लिबरल एवं कल्चर्ड मीडिया भारत के प्रति औपनिवेशिक सोच से आजाद नहीं हो पाया है।

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