यहां ॐ भौतिक स्वरूप में दिखाई देता है। इस पर्वत के दूसरी तरफ अमरेश्वर धाम है। ओंकार क्षेत्र में कुल 68 तीर्थ हैं, जहां 33 कोटि देवता सपरिवार निवास करते हैं। यहां पर 14वीं और 18वीं शताब्दी के शैव, वैष्णव तथा जैन मंदिर भी हैं।
मध्य प्रदेश में नर्मदा नदी के तट पर स्थित ओंकारेश्वर भगवान् शिव के 12 पवित्र ज्योतिर्लिंगों में से एक है। इस तीर्थ स्थान की महिमा का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि कोई चाहे कितना भी तीर्थाटन कर ले, जब तक वह समस्त तीर्थों का जल लाकर ओंकारेश्वर में नहीं चढ़ाता, तब तक उसके सारे तीर्थ अधूरे माने जाते हैं। ओंकारेश्वर खंडवा जिले में स्थित मांधाता पर्वत के दक्षिण में है। यहां ॐ भौतिक स्वरूप में दिखाई देता है। इस पर्वत के दूसरी तरफ अमरेश्वर धाम है। ओंकार क्षेत्र में कुल 68 तीर्थ हैं, जहां 33 कोटि देवता सपरिवार निवास करते हैं। यहां पर 14वीं और 18वीं शताब्दी के शैव, वैष्णव तथा जैन मंदिर भी हैं।
ओंकारेश्वर से आद्य गुरु शंकराचार्य का गहरा संबंध है। जिस ओंकार पर्वत (मांधाता पर्वत) पर आचार्य शंकर की 12 वर्षीय बाल स्वरूप की अष्टधातु की प्रतिमा स्थापित की गई है, वहीं पर उन्हें गुरु रूप में गोविंद भगवद्पाद मिले थे। आज से लगभग 1200 वर्ष पहले मात्र 8 वर्ष की अल्पायु में समस्त वेदों, उपनिषदों का सांगोपान करने के बाद आचार्य शंकर गुरु की खोज में निकले थे। इस क्रम में केरल के कालड़ी से ओंकारेश्वर तक उन्होंने 1600 किलोमीटर की पैदल यात्रा की और नर्मदा के तट पर पहुंचे। यहां पर उन्होंने उफनती माता नर्मदा को शांत करने के लिए उनकी स्तुति में नर्मदाष्टकम् की रचना की।
आचार्य शंकर ने गुरु के सान्निध्य में रहकर 4 वर्ष तक ज्ञान प्राप्त किया। आचार्य गोविंद भगवद्पाद ने पहचाना कि आचार्य शंकर भगवान शिव के अवतार हैं, जिनका आविर्भाव विशेष प्रयोजन के लिए हुआ है। उन्होंने अपने शिष्य को ब्रह्मसूत्र पर टीका लिखने और अद्वैत दर्शन का प्रचार करने के लिए कहा। इसके बाद आचार्य शंकर भारतवर्ष को उसके ‘स्व’ से परिचित कराने तथा एकात्म के सूत्र में बांधने के उद्देश्य से देशाटन के लिए निकले। देश भ्रमण के दौरान उन्होंने अद्वैत का प्रचार-प्रसार कर समाज को जोड़ा, लोगों को एकजुट किया और उन्हें सनातन धर्म का ज्ञान कराया। उन्होंने समाज को बताया कि हम सब एक ही ब्रह्म के अंश हैं। सब एक समान हैं। आचार्य शंकर ज्ञान को अद्वैत ज्ञान की परम साधना मानते हैं, क्योंकि ज्ञान समस्त कर्मों को जलाकर भस्म कर देता है। यही सब देखते हुए संतों के मार्गदर्शन में सरकार ने मांधाता द्वीप पर आद्य शंकराचार्य को समर्पित ‘एकात्म धाम’ विकसित करने का निर्णय लिया।
हिंदू धर्म परंपरा में शंकराचार्य की उपाधि सर्वोच्च है, जो साक्षात् भगवान् द्वारा स्थापित है। आचार्य शंकर पहले शंकराचार्य हैं, इसीलिए उन्हें आद्य शंकराचार्य कहा जाता है। ‘एकात्म धाम’ में उनकी प्रतिमा की स्थापना के लिए उज्जैन स्थित महर्षि सांदीपनि राष्ट्रीय वेद प्रतिष्ठान ने वैदिक, शास्त्रीय व ज्योतिष, तीन रीति से मुहूर्त निकाला था।
जगद्गुरु मात्र 32 वर्ष तक इस धरा पर रहे। इस छोटी सी उम्र में ही उन्होंने तीन बार पूरे भारतवर्ष की यात्रा की। उनके जीवन का अधिकांश समय उत्तर भारत में बीता, जहां उन्होंने उपनिषदों, ब्रह्मसूत्र व श्रीमद्भगवद्गीता पर तीनों भाष्यों की रचना की।
आचार्य शंकर का आविर्भाव ऐसे समय हुआ, जब वेदों-उपनिषदों के बारे में भांति-भांति की भ्रांतियां फैलाकर सनातन धर्म को आहत कर दिया गया था। वेद मंत्रों की गलत व्याख्या कर लोगों को भ्रमित किया जा रहा था, जिस वजह से लोगों ने कुरीतियों को अपना लिया था। यह आज से लगभग 2,000 वर्ष पहले की बात है। आदिगुरु शंकराचार्य ने न केवल सनातन धर्म का वास्तविक अर्थ समझा कर लोगों की सुप्त चेतना को जाग्रत किया, बल्कि अद्वैत चिंतन को पुनर्जीवित कर सनातन धर्म को पुनर्स्थापित किया और इसके दार्शनिक आधार को मजबूती प्रदान की।
सनातन धर्म की ध्वज पताका फहराती रहे, इसी उद्देश्य से उन्होंने भारतवर्ष की चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना कर इन पर अपने शिष्यों को आसीन किया। शास्त्रार्थ में जिस मंडन मिश्र को उन्होंने पराजित किया, उन्हें पहला शंकराचार्य नियुक्त किया। हिंदू धर्म परंपरा में शंकराचार्य की उपाधि सर्वोच्च है, जो साक्षात् भगवान् द्वारा स्थापित है। आचार्य शंकर पहले शंकराचार्य हैं, इसीलिए उन्हें आद्य शंकराचार्य कहा जाता है। ‘एकात्म धाम’ में उनकी प्रतिमा की स्थापना के लिए उज्जैन स्थित महर्षि सांदीपनि राष्ट्रीय वेद प्रतिष्ठान ने वैदिक, शास्त्रीय व ज्योतिष, तीन रीति से मुहूर्त निकाला था।
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