प्रो. विजय कुमार मल्होत्रा
दीनदयाल जी क्या थे, वे कैसे थे, इसका अध्ययन करें तो आपको ‘कथनी और करनी’ में कोई अन्तर न रखने वाला एक नेता दिखाई देगा। सबको रोटी के दो कौर मिल चुके हैं, इसका विश्वास कर लेने के बाद ही कुछ खाने के लिए बैठने वाला परिवार-प्रमुख उनके रूप में हमें यहां मिलेगा। थके-मांदे बच्चे के पांव दुखने लगे हों तो उनके पास बैठकर अपने हाथों दबाने-सहलाने की ममता रखने वाला ही अनुशासन का कड़ाई से पालन करा सकता है, यह बात अपने आचरण द्वारा दिखाने वाले वे भारतीय संस्कृति के आदर्श प्रतिनिधि हैं। प्रगति के नित्य नए चरण पार करते समय भी अपने कुल, कुलधर्म तथा कुलाचार को न भुलाने वाला, उसके बारे में गर्व अनुभव करने वाला और जिस पर उनके कुल को भी गर्व हो, ऐसा यह कुलभूषण व्यक्तित्व है।
क्या है यह कुल? क्या है उसका कुलधर्म और कुलाचार? दीनदयाल उपाध्याय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आम्रवृक्ष में लगा सुमधुर फल हैं। जैसे लोकमान्य तिलक मूलत: राजनीतिज्ञ या राजनेता नहीं थे, किन्तु देश की आवश्यकता के नाते उन्होंने राजनीति अपनाई। पंडित जी भी देश की आवश्यकता के नाते ही राजनीति में उतरे थे। उनके समूचे जीवन में संघ के ही मूल्य साकार हुए थे। इसका भी कारण यही था। उनके सामने एकाध चुनाव नहीं था, वरन् सारे समाज की पुनर्रचना करने का अजस्र काम था। 1,000 वर्ष के मुसलमानी आक्रमण तथा 150 वर्ष तक रही अंग्रेजों की सत्ता के कारण छिन्न-भिन्न हुए समाज को उसके अपने सभी मूल्यों के साथ फिर से खड़ा करने का प्रचण्ड दायित्व दीनदयाल जी ने उठाया था। राजनीति उसका एक भाग मात्र थी। उनकी राजनीति का सिंहावलोकन एवं विश्लेषण करते समय और उनके उद्देश्य की खोज करते समय इस पृष्ठभूमि का विचार करना अपरिहार्य है।
भारतीय जनसंघ की स्थापना दिल्ली में 21 अक्तूबर, 1951 को हुई थी। पं. दीनदयाल उस समय संघ के प्रचारक थे। श्रीगुरुजी ने डॉ. मुखर्जी के आग्रह पर संघ के कुछ प्रचारक जनसंघ में दिए थे, जिनमें दीनदयाल जी प्रमुख थे। इस सम्मेलन में पंडित जी ने भाग तो नहीं लिया था पर मेरी पंडित जी से पहली व्यक्तिगत मुलाकात 1953 में कानपुर अधिवेशन के दौरान हुई। क्योंकि जनसंघ एक नवोदित दल था, हमारे मन में जहां उत्सुकता थी, वहीं संघ के नाते सहोदर होने के कारण पंडित जी के प्रति भी मन में एक आदर का भाव था। 1953 से लेकर 1968 में उनके देहावसान तक राजनीतिक जीवन में उनसे प्रत्यक्ष भेंट करने, अनेक विषयों पर उनसे चर्चा करने और उसमें उनके साथ होने वाले अपने तात्कालिक मतभेदों को व्यक्त करने के अनेक अवसर मुझे मिले थे। मैंने प्रत्येक बार उनके अकाट्य तर्कों को अनुभव किया। एक दृष्टि से देखा जाए तो यह सब मेरे लिए एक राजनीतिक प्रशिक्षण ही था।
पं. दीनदयाल ने बहुत अल्पावधि में देश की राजनीति में एक नया विचार प्रस्तुत किया। कांग्रेस के प्रादेशिक राष्ट्रवाद, साम्यवादियों के मार्क्सवादी साम्यवाद तथा समाजवादियों के लोकतंत्रीय समाजवाद के साथ ही उन्होंने जनमानस में उन ‘वादों’ के विकल्प में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, आर्थिक विकेन्द्रीकरण और शिखर-तल से धरातल तक जाने वाली जनपद लोकतंत्रीय प्रणाली का बीज बोया और एकात्म मानववाद को परिलक्षित किया। ऐसी उनकी वैचारिक उड़ान तथा उनका संगठन कौशल चकित करने वाला था। उन्होंने इस सत्य का आकलन भली-भांति कर लिया था कि विचार के बिना कृति अंधी होती है और कृति के बिना विचार पंगु। इसलिए उनकी गति एकात्म मानवदर्शन से लेकर कच्छ-समझौते के विरोध में आयोजित विराट प्रदर्शन तक अप्रतिहत थी।
वे विचारक थे और अपने विचारों को अनुयायियों में संक्रमित करने का असाधारण कौशल उनमें था। वे दार्शनिक एवं शिक्षक अर्थात् गुरु थे। समर्थ रामदास गुरु के संबंध में कहते हैं, ‘‘पारस लोहे को सोने में तो बदल देता है, किन्तु स्पर्श मात्र से किसी को सोना बनाने का अपना गुण वह उसे नहीं देता। उस गुण को वह अपने ही पास रखता है। किन्तु सद्गुरु स्वयं उपदेश तो देता ही है, साथ ही ऐसा उपदेश अन्य को देने का अधिकार भी वह अपने शिष्यों को देता है।’’
यही दीनदयाल जी के कृतित्व का रहस्य है जिसके कारण वे अल्पावधि में ही इतना देशव्यापी, विशाल और आचार-विचारों के साथ निष्ठावान रहने वाला संगठन खड़ा कर सके।
(लेखक भाजपा के वरिष्ठ नेता हैं और यह लेख पाञ्चजन्य में पूर्व में प्रकाशित हो चुका है। उस लेख के अंश।)
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