अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष कह चुका है कि भारत इस वर्ष सकल घरेलू उत्पाद में 5.9 की वृद्धि दर्ज कर सभी प्रमुख उन्नत और उभरती अर्थव्यवस्थाओं से बेहतर प्रदर्शन करेगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारत को, भारत की अवधारणा को एक आकार देने का प्रयास कर रहे हैं।
दो वर्ष पहले सितंबर में भारत के पूंजी बाजार का कुल आकार (मार्केट कैप) फ्रांस से आगे निकल गया था। इस वर्ष जून में भारतीय इक्विटी का कुल मूल्य यूरोप के दो सबसे बड़े शेयर बाजारों, ब्रिटेन व फ्रांस से अधिक हो चुका था। भारत अब अमेरिका, चीन, जापान और हांगकांग के बाद दुनिया में 5वें स्थान पर है।
घर के अंदर की बात करें, तो मध्यम वर्ग की आय में तिगुना उछाल आ चुका है। वित्त वर्ष 2011 से लेकर वित्त वर्ष 2022 तक के लिए दाखिल किए गए आयकर रिटर्न्स पर आधारित एसबीआई की शोध रिपोर्ट बताती है कि भारतीय मध्यम वर्ग की औसत वार्षिक आय 2012-13 में 4.4 लाख रुपये थी, जो 2021-22 में 13 लाख रुपये हो चुकी है। रिपोर्ट के अनुसार, 2047 तक भारतीय मध्यम वर्ग की औसत वार्षिक आय के 49.70 लाख रुपये होने का अनुमान है।
इधर, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष कह चुका है कि भारत इस वर्ष सकल घरेलू उत्पाद में 5.9 की वृद्धि दर्ज कर सभी प्रमुख उन्नत और उभरती अर्थव्यवस्थाओं से बेहतर प्रदर्शन करेगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारत को, भारत की अवधारणा को एक आकार देने का प्रयास कर रहे हैं। भारत की यह अवधारणा या उसका आकार सिर्फ वैचारिक नहीं, भौतिक भी है और इस भारत में भारत का आर्थिक परिदृश्य भी अंतर्निहित है। अगर आपको लगता है कि भारत का यह आर्थिक परिदृश्य किसी उदारीकरण की पुरानी नीति का परिणाम है, तो यह एक बहुत बड़ी गलतफहमी है। भारत को गढ़ने के लिए एक देशभक्त नेतृत्व की आवश्यकता होती है, फिर वह ‘चायवाला’ ही क्यों न हो, कैम्ब्रिज निर्मित ‘रोबोटों’ से उनकी तुलना नहीं की जा सकती।
नरसिम्हाराव-मनमोहन के कार्यकाल संस्थागत भ्रष्टाचार के आरोपों सहित महत्वपूर्ण चुनौतियों से भरे रहे। मनमोहन सिंह के कार्यकाल में घोटालों ने सरकार की पारदर्शिता व जवाबदेही को संदिग्ध बनाए रखा
निस्संदेह जो आर्थिक नीतिगत निर्णय 1991 में लिए गए थे, वे महत्वपूर्ण थे और उन्होंने भारत की आर्थिक नियति पर गहरी छाप छोड़ी है। लेकिन भारत के विकास में नया अध्याय खोलने वाले निर्णयों की असली शुरुआत हुई 2014 में। 2014 में शुरू हुआ यह युग 1991 में शुरू किए गए सुधारों से एक पूरी तरह भिन्न आर्थिक दर्शन है, जिसने भारत की आर्थिक नियति पर एक अमिट छाप छोड़ी है।
देश के विकास के लिए दो विरोधी दृष्टिकोणों की प्रमुख अवधारणाओं और निहितार्थों को देखें। पहले बात मनमोहन सिंह की। मनमोहन दो कार्यकाल के लिए प्रधानमंत्री और 1991-96 तक वित्त मंत्री रहे। यह सही है कि जब वे वित्त मंत्री बने, तब देश के सामने भुगतान संतुलन की गंभीर समस्या थी। लेकिन इस बिंदु के अतिसरलीकरण से बचना होगा। उनसे पहले प्रो. मधु दंडवते (यशवंत सिन्हा के संक्षिप्त कार्यकाल को छोड़ दें) वीपी सिंह सरकार में वित्त मंत्री थे। प्रो. दंडवते ने देश की (तत्कालीन) आर्थिक समस्याओं में भुगतान संतुलन की समस्या, राजकोषीय घाटा, बेरोजगारी, मुद्रास्फीति और कमजोर विकास दर की समस्या को चिह्नित किया था।
गौर से देंखें, भले ही ये सारी समस्याएं ‘भारत’ की थीं, लेकिन व्यवहार में ‘भारत सरकार’ की थीं, भारत सरकार की टेबल पर रहती थीं। और व्यवहार में सिर्फ वित्त मंत्रालय को इनसे जूझना होता था। सिस्टम ही ऐसा था। अब वापस मनमोहन सिंह के वित्त मंत्री कार्यकाल पर लौटें। इसके ठीक पहले अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से ऋण प्राप्त करने के लिए भारत ने सोने की हिस्सेदारी का एक हिस्सा गिरवी रखा, जो ऐतिहासिक रूप से एक महत्वपूर्ण घटना थी। इससे तात्कालिक समाधान तो हो गया था। लेकिन फिर दो घटनाएं घटीं।
एक अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की शर्तें व दूसरे विश्व व्यापार संगठन डब्ल्यूटीओ का एक बड़े स्तंभ के रूप में उदय, जिसके आगे नरसिम्हाराव सरकार या वित्त मंत्री मनमोहन सिंह पूरी तरह नतमस्तक थे। प्रतिबंधात्मक लाइसेंस/ परमिट राज की समाप्ति से लेकर राजकोषीय संयम व आर्थिक स्थिरता जैसी जिन भी नीतियों के लिए आज मनमोहन सिंह को श्रेय दिया जाता है, वह सब उस समय आईएमएफ-डब्ल्यूटीओ की बाध्यताएं भर थीं, जो नीति कम और मजबूरी ज्यादा थीं। उदारीकरण व वैश्वीकरण ने ‘भारत सरकार’ की समस्या को ‘भारत की जनता’ की समस्या में बदल दिया था।
बहरहाल, उदारीकरण और वैश्वीकरण की मनमोहन सिंह की नीति ने भारत में विदेशी निवेश को आकर्षित करना प्रारंभ किया, जिससे वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ भारत का एकीकरण शुरू हुआ। इन सुधारों का भारतीय समाज पर भी प्रभाव पड़ा, जिससे आर्थिक विकास, उपभोक्ता की पसंद और उच्च जीवन स्तर जैसे शब्द आम जनता के सामने आने लगे। प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री, दोनों रूपों में भारत के आर्थिक परिदृश्य को बदलने में नरसिम्हाराव-मनमोहन सिंह की भूमिका देश के इतिहास में एक ऐतिहासिक अध्याय है। इन सारे सुधारों को ‘मनमोहनॉमिक्स’ कहा गया।
इसी का एक और पहलू है। प्रधानमंत्री के रूप में नरसिम्हाराव और मनमोहन सिंह, दोनों के कार्यकाल संस्थागत भ्रष्टाचार के आरोपों सहित महत्वपूर्ण चुनौतियों से भरे रहे। मनमोहन सिंह के कार्यकाल में बैंकिंग क्षेत्र की कमर तोड़ देने वाला क्रोनी पूंजीवाद एक वास्तविकता थी, जिसके परिणामस्वरूप चुनिंदा उद्योगपतियों को संदिग्ध ऋण मिले। इसके अतिरिक्त, भारत में 2जी घोटाला, सीडब्ल्यूजी घोटाला, थोरियम घोटाला और कैपिटल गुड्स घोटाला सहित हाई-प्रोफाइल भ्रष्टाचार घोटाले देखे गए। वास्तव में कितने घोटाले हुए, इन पर पूरी पुस्तक लिखी जाए तो भी कम है। इन घोटालों ने सरकार में पारदर्शिता और जवाबदेही को संदिग्ध बनाए रखा। इस दौरान आर्थिक विकास अधिक से अधिक असंतुलित होता गया, जिसमें कुछ चुनिंदा लोगों को लाभ हुआ, जबकि आय की असमानता बढ़ती गई। मनमोहन सिंह के कार्यकाल के दौरान भारत का ‘फ्रैजाइल फाइव’ अर्थव्यवस्थाओं में शामिल होना देश के सामने आने वाली आर्थिक चुनौतियों का एक बड़ा अध्याय है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीतियां सरकार की चिंता को जनता की चिंता बनाने में नहीं, बल्कि दीर्घकालिक कठिनाइयों को समाप्त करने की दिशा में है। यह देश की आर्थिक अक्षमताओं को दूर कर और दीर्घकालिक विकास को बढ़ावा देता है
अब आएं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आर्थिक नीतियों पर, जिन्हें वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने ‘नमोनॉमिक्स’ कहा है। यह एक व्यापक और बहुत हद तक संपूर्ण किस्म का आर्थिक मॉडल है, जिसने 2014 के बाद से भारत के आर्थिक माहौल में व्यापक बदलाव कर दिखाया है। यह दूरदर्शी दृष्टिकोण वाला मॉडल है। यह सरकार की चिंता को जनता की चिंता बनाने की दिशा में नहीं, बल्कि दीर्घकालिक कठिनाइयों को समाप्त करने की दिशा में है। यह देश की आर्थिक अक्षमताओं को दूर करता है और दीर्घकालिक विकास को बढ़ावा देता है। आप ‘नमोनॉमिक्स’ को कुछ बिंदुओं से आसानी से महसूस कर सकते हैं: –
विमुद्रीकरण : काले धन पर अंकुश लगाने और डिजिटल लेन-देन, वित्तीय पारदर्शिता को बढ़ावा देने के लिए एक साहसिक और निर्णायक कदम। खास बात यह है कि कैम्ब्रिज-हार्वर्ड किस्म का कोई भी ‘अर्थशास्त्री’ विमुद्रीकरण का साफ विरोध करेगा, क्योंकि ऐसे प्रयास विश्व में कहीं भी सफल नहीं हुए हैं। यह सिर्फ मोदी की नेतृत्व क्षमता थी, जिसने धारा के विपरीत जाकर सफलता प्राप्त करके दिखाई।
वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) : जीएसटी के कार्यान्वयन ने कराधान को सुव्यवस्थित कर दिया। जटिल कर संरचना को सरल बनाया और व्यापार करने में आसानी को बढ़ावा दिया। इसके अलावा, इसने महत्वपूर्ण तौर पर कर चोरी को बहुत कठिन बना दिया और इस प्रकार काले धन के एक बड़े स्रोत को ही बंद कर दिया। याद कीजिए दिल्ली के शराब घोटाले से संबंधित वह वीडियो, जिसमें शराब के ठेके से जुड़ा एक व्यक्ति यह शिकायत करता देखा जा सकता है कि उससे ‘नकद’ में घूस मांगी गई है और वह ‘नकद’ में घूस कहां से लाए! यह एक उदाहरण है।
जेएएम ट्रिनिटी : जन धन योजना (वित्तीय समावेशन), आधार (डिजिटल पहचान) और मोबाइल कनेक्टिविटी (वित्तीय सेवाओं तक आसान पहुंच) ने वित्तीय समावेशन को बढ़ावा दिया है। यह सरकार की समस्या को जनता की समस्या नहीं बनाता, बल्कि सरकार की सुविधा को जनता की सुविधा बना देता है।
दिवाला और दिवालियापन संहिता (आईबीसी) : कॉर्पोरेट दिवालियेपन को हल करने में एक गेम-चेंजर, इससे एक कुशल व्यावसायिक वातावरण सुनिश्चित हुआ। इसके बाद बड़े पैमाने की लूट और धोखाधड़ी बहुत कठिन हो गई।
सामाजिक कल्याण पहल: उज्ज्वला (स्वच्छ खाना पकाने का ईंधन और आयुष्मान भारत योजना (स्वास्थ्य देखभाल), प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना, प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना, किसान सम्मान निधि, मनरेगा की शर्तों-स्थितियों और उपयोगिता में सुधार जैसे बहुत सारे कदम कैम्ब्रिज-हार्वर्ड किस्म के अर्थशास्त्र में भले ही ‘कल्याणकारी’ योजनाओं में गिने जाएं, वास्तव में यह एक भिन्न चीज है। यह भारत के उन लोगों के जीवनस्तर में तीव्र सुधार पैदा करने वाले कदम हैं, जो अब तक चले आ रहे ‘सिस्टम’ के तहत शायद कई पीढ़ियों तक गरीबी में घिसटते रहने के लिए बाध्य रहे होते। इससे भी बड़ी बात यह कि इनमें से कोई भी योजना किसी तरह की रेवड़ी बांटने या मुफ्तखोरी का चलन शुरू कराने की गलती नहीं करती है।
अंतरराष्ट्रीय सहयोग : अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन जैसे मंचों पर भारत की सक्रिय भागीदारी और व्यापारिक समुद्री मार्गों का विकास वैश्विक साझेदारी को मजबूत करता है। जब प्रधानमंत्री लगातार विदेश दौरे करते थे और एक ही बार में बिना विश्राम कई-कई देशों का दौरा करते थे, यह उसका सुफल है। आज भारत की अर्थव्यवस्था बहुत बड़े पैमाने पर भारत के विदेश संबंधों के साथ जुड़ी हुई है और यही बात विदेशी संबंधों के बारे में कही जा सकती है कि वह बहुत बड़े पैमाने पर भारत की आर्थिक मजबूती पर निर्भर है। यह वह दोष था, जिससे निपटना पहले न सरकार की जिम्मेदारी माना गया था, न सरकार उसे जनता के हवाले छोड़ सकती थी। अतीत में भारत के जो भी विदेशी आर्थिक संबंध रहे, वे भारत के शोषण पर आधारित थे। मोदी सरकार ने उन्हें बराबरी के स्तर पर लाकर खड़ा कर दिया है।
मेक इन इंडिया : घरेलू विनिर्माण, आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देना, निवेश आकर्षित करना और नौकरियां पैदा करना। यह वह कदम है, जो पूरी अर्थव्यवस्था के लिए किसी टॉनिक से ज्यादा कारगर रहा है।
उत्पादन-लिंक्ड प्रोत्साहन (पीएलआई) योजना : उत्पादन और निर्यात को बढ़ावा देने के लिए प्रमुख क्षेत्रों में निवेश को प्रोत्साहित करना। इसने भारत की अर्थव्यवस्था के लिए उन दरवाजों को खोल दिया, जो पहले अभेद्य दीवार जैसे नजर आते थे।
अंतरिक्ष अन्वेषण व रक्षा साझेदारी : अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी में भारत की क्षमताओं को आगे बढ़ाने व रक्षा संबंधों को मजबूत करने के इस उपाय के अनेक निहितार्थ भी हैं। एक सैन्य शक्ति के रूप में भारत के उदय ने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत को वह प्रतिष्ठा दी है, जो विदेशी संबंधों के लिए एक आधार का कार्य करती है। इसी के बूते भारत स्वतंत्र विदेश नीति का पालन कर सकने में समर्थ हो सका है।
डिजिटल भुगतान (यूपीआई) : नकदी रहित अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देना, वित्तीय समावेशन को बढ़ाना और निर्बाध लेन-देन को सक्षम करना। इसने काले पैसे की गुंजाइश को और घटा दिया है।
भारतीय रुपये में मुद्रा निपटान : भारतीय रुपये में वस्तुओं व सेवाओं का निपटान कर अंतरराष्ट्रीय व्यापार को सरल बनाना। अतीत में भारत की कोई सरकार इसकी कल्पना नहीं कर सकी थी। सबसे बड़ी बात कि यह पीएल 480 की तरह मजबूरी का नहीं, नए भारत की मजबूती का लक्षण है।
सेमीकंडक्टर पहल : आयात पर निर्भरता कम करने के लिए सेमीकंडक्टर विनिर्माण को बढ़ावा देना।
गिफ्ट सिटी : गुजरात इंटरनेशनल फाइनेंस टेक-सिटी अंतरराष्ट्रीय वित्त और व्यापार को बढ़ावा देता है।
बुनियादी ढांचे का विकास : सड़कों, रेलवे, हवाईअड्डों, जलमार्गों व नवीकरणीय ऊर्जा में व्यापक निवेश। इसने विकास को तो गति दी ही, रोजगार अवसरों से लेकर निवेश और वित्तीय प्रवाह को भी गति दी है।
पर्यावरणीय पहल : ईवी, हाइड्रोजन र्इंधन, इथेनॉल व नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा देना, विश्व जैव ईंधन गठबंधन, जो भविष्य के लिए अक्षय स्रोत हैं। यह वे भविष्यपरक योजनाएं हैं, जो देश की ऊर्जा सुरक्षा को सुनिश्चित करती हैं।
नमोनॉमिक्स ने न केवल भारत के आर्थिक परिदृश्य को बदल दिया है, भारत को वैश्विक मंच पर एक मजबूत शक्ति बनाया है, बल्कि भारत के भविष्य को भी सुनिश्चित और सुरक्षित किया है। वह भी एक टिकाऊ ढंग से।
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