चुनाव आयोग ने अगस्त-सितंबर, 2015 में ही कहा था कि ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ बिल्कुल संभव है। इसके साथ ही चुनाव आयोग ने यह भी बताया था कि पहले भी देश में चार बार लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ हो चुके हैं।
अभी हाल ही केंद्र सरकार ने ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ को लेकर पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविद की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया है। इसके साथ देश में इस पर चर्चा गर्म है। इस संबंध में हमें पता होना चाहिए कि देश में पहले भी लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ हुए हैं। देश के आजाद होने के बाद जब संविधान लागू हुआ था तब पहला चुनाव 1951-52 में हुआ। उस समय लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ हुए थे।
इसके बाद 1957, 1962 और 1967 में भी एक साथ चुनाव हुए। 1967 के बाद कुछ विधानसभाएं या तो भंग कर दी गईं या खुद भंग हो गईं। इस कारण इन विधानसभाओं के चुनाव लोकसभा से अलग होते गए। इससे अनेक तरह की परेशानियां बढ़ने लगीं। इन्हें देखते हुए चुनाव आयोग ने 1982-83 में सरकार से कहा कि अगर संविधान में कुछ संशोधन कर दें तो फिर से देश में एक साथ लोकसभा और विधानसभा के चुनाव हो सकते हैं। लेकिन उस समय इस पर कोई कार्रवाई नहीं हो पाई, क्योंकि वह दौर आपरेशन ब्लू स्टार का था।
फिर 31 अक्तूबर, 1984 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की दुर्भाग्यपूर्ण हत्या हो गई। इन कारणों से यह मामला लटकता गया। लगभग 33 वर्ष बाद 2015 में वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव आयोग से ‘एक राष्टÑ, एक चुनाव’ पर राय मांगी। उन्होंने चुनाव आयोग से यह भी पूछा था कि क्या ऐसा करना संभव है? इसके लिए और क्या करना होगा? प्रधानमंत्री के इन प्रश्नों को लेकर चुनाव आयोग ने अगस्त-सितंबर, 2015 में ही कहा था कि ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ बिल्कुल संभव है। इसके साथ ही चुनाव आयोग ने यह भी बताया था कि पहले भी देश में चार बार लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ हो चुके हैं। अपनी राय में चुनाव आयोग ने यह भी कहा कि एक साथ चुनाव कराने के लिए संविधान के पांच अनुच्छेदों और लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 में कुछ संशोधन करने होंगे।
इसके साथ ही लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव को हटाकर सकारात्मक प्रस्ताव (कंस्ट्रक्टिव मोशन) में बदलना होगा। इससे यह होगा कि जब भी आपको अविश्वास का माहौल लगे तो लिखकर भेज सकते हैं कि वर्तमान सरकार में हमें विश्वास नहीं है, लेकिन अगर इसके नेतृत्व में राजनीतिक दलों की मिली-जुली सरकार बनती है तो उसमें हमें विश्वास है। इससे यह होेगा कि लोकसभा या विधानसभा भंग करने की नौबत नहीं आएगी। इसके बाद एक सरकार से दूसरी सरकार बन जाएगी और पूरे पांच साल चलेगी। चुनाव आयोग ने ये सारे सुझाव दिए थे। चुनाव आयोग के सुझावों पर कुछ नहीं हुआ।
फिर 2017-18 में नीति आयोग ने भी इस पर एक रपट प्रस्तुत की। अब कई वर्ष बाद एक बार फिर से इस संबंध में सुगबुगाहट शुरू हुई है, लेकिन जब तक संविधान के संबंधित अनुच्छेदों में संशोधन नहीं होगा, तब तक इस दिशा में कोई ठोस परिणाम नहीं आ सकता। चुनाव आयोग कानून से बंधा है। जिस सदन का कार्यकाल पूरा होगा, उसका चुनाव कराने के लिए चुनाव आयोग बाध्य है। नियमानुसार चुनाव आयोग छह महीने पहले चुनावी प्रक्रिया शुरू कर देता है और सदन की अवधि पूरी होने से पहले चुनाव की घोषणा करता है। अभी मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में चुनाव आयोग यही प्रतिक्रिया चला रहा है। ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की बहस के बीच चुनाव आयोग के अधिकारी चुनाव से संबंधित राज्यों का दौरा कर रहे हैं।
संविधान में संशोधन के साथ ही चुनाव आयोग को अतिरिक्त ईवीएम खरीदने के लिए धनराशि मुहैया करानी होगी, क्योंकि अभी देश के पास उतने ईवीएम नहीं हैं। 2018 में देश में 20,00,000 ईवीएम मशीनें थीं। ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ के लिए 35,00,000 मशीनें चाहिए। 15,00,000 अतिरिक्त ईवीएम बनवाना, उसकी व्यवस्था करना इसके लिए भी समय चाहिए।
रामनाथ कोविद की अध्यक्षता में समिति बनते ही देश में कई तरह के सवाल उठ रहे हैं। विपक्षी दल शोर मचा रहे हैं। ऐसा होना स्वाभाविक है। इसलिए विपक्षी दलों को भरोसे में लेना होगा। उन्हें सरकार को बताना होगा कि इसके पीछे कोई परोक्ष एजेंडा नहीं है। यह भी चर्चा है कि ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ के अंतर्गत हर तरह के चुनाव एक साथ होंगे। यानी पंचायत से लेकर संसद तक के चुनाव की बात चल रही है। ऐसा असंभव है, हो ही नहीं सकता। हम सब देख रहे हैं कि दक्षिण भारत की अपेक्षा उत्तर भारत के राज्यों में आबादी अधिक बढ़ रही है। इसलिए हर 10 वर्ष में पंचायत और निकाय चुनावों के लिए सीटों का पुनर्सीमांकन होता है।
दक्षिण के राज्यों में ऐसा कम ही होता है। इसलिए उत्तर के राज्यों में पंचायत और स्थानीय निकाय की सीटों में वृद्धि होती है और दक्षिण के राज्यों में पुरानी सीटें ही रहती हैं। यह तो ठीक नहीं है। लोकसभा और विधानसभा के लिए हमने 2002 में ही बंदिश लगा दी थी कि 2026 के बाद की जनगणना के आने तक कोई भी सीट न घटेगी और न ही बढ़ेगी। यानी जितनी सीटें हैं, उतनी ही रहेंगी। लेकिन पंचायत और नगरपालिका में ऐसा नहीं हुआ। उनकी सीटें तो घटती-बढ़ती रहती हैं। इसलिए मुझे लग रहा है कि पंचायत से लेकर संसद तक के चुनाव एक साथ नहीं हो सकते।
चुनाव आयोग कानून से बंधा है। जिस सदन का कार्यकाल पूरा होगा, उसका चुनाव कराने के लिए चुनाव आयोग बाध्य है। नियमानुसार चुनाव आयोग छह महीने पहले चुनावी प्रक्रिया शुरू कर देता है और सदन की अवधि पूरी होने से पहले चुनाव की घोषणा करता है। अभी मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में चुनाव आयोग यही प्रतिक्रिया चला रहा है। ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की बहस के बीच चुनाव आयोग के अधिकारी चुनाव से संबंधित राज्यों का दौरा कर रहे हैं।
एक बात और है कि पंचायत के चुनाव बहुत ही संवेदनशील होते हैं। हिंसा भी खूब होती है। हर वर्ष हर पंचायत को 5 करोड़ रुपए मिलते हैं। इसलिए लोग जी-जान लगाकर चुनाव लड़ते हैं। इसमें हिंसा आम बात हो गई है। कुछ दिन पहले ही पश्चिम बंगाल में पंचायत के चुनाव हुए हैं। हम सबने देखा कि वहां कितने लोग मारे गए। ऐसे ही मध्य प्रदेश में भी बहुत लोग मारे गए थे। इसलिए पंचायत चुनाव के लिए भारी मात्रा में सुरक्षा बल तैनात करने पड़ते हैं। ऐसे में पंचायत से लेकर संसद तक के चुनाव एक साथ होंगे तो अंदाजा लगा सकते हैं कि कितने सुरक्षा बलों की जरूरत पड़ेगी। इतने सुरक्षा बल देश के पास हैं भी नहीं।
हां, लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ हो सकते हैं। इस कारण न तो मतदान केंद्रों की संख्या बढ़ेगी और न मतदाता बढ़ेंगे। मतदाताओं को सिर्फ एक भवन में जाकर ईवीएम का बटन दबाना है। इसमें चुनाव लड़ने वालों को कुछ ज्यादा रैलियां करनी पड़ेंगी। नामांकन और बैठकें अधिक होंगी। इसके लिए इंतजाम तो हो जाएगा। जैसे मान लिया जाए कि उत्तर प्रदेश में 7 चरण, बंगाल में 8 चरण में चुनाव होते हैं तो एक देश एक चुनाव हम 10 चरण में कर लेंगे। इसके लिए सुरक्षा बलों की टुकड़ियां इधर से उधर चली जाएंगी। इसमें असली अड़चन है ईवीएम को 35,00,000 तक पहुंचाने में। इसमें लगभग 2 साल लगेंगे।
(अरुण कुमार सिंह से बातचीत पर आधारित)
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