आईएनडीआई अलायंस के लिए संभव नहीं है। ऐसे में जनता का भरोसा और विश्वास बनाए रखने में उसे गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है।
अगले वर्ष होने वाले लोकसभा चुनावों से पहले सत्तारूढ़ भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ संयुक्त मोर्चा पेश करने के लिए आधिकारिक तौर पर ‘आईएनडीआई अलायंस’ नाम से 21 विपक्षी पार्टियों ने गठबंधन बनाया है। गठबंधन का लक्ष्य एक साझा घोषणापत्र का प्रस्ताव देकर और 543 संसदीय सीटों में से अधिकांश पर संयुक्त उम्मीदवार खड़ा करके सत्तारूढ़ राजग की पकड़ को चुनौती देना है। हालांकि समर्थन जुटाने के लिए गठबंधन के दृष्टिकोण को लेकर चिंता व्यक्त की गई है। आलोचकों का तर्क है कि इस तरह के गठबंधन की रणनीति देश को जातीय, धार्मिक और भाषाई आधार पर गहरे ढंग से विभाजित करने पर जोर देती है, जिससे राष्ट्रीय एकता और सर्व-समावेशी शासन को सुदृढ़ करना कठिन होता जाता है।
यह स्थापित तथ्य है कि कांग्रेस ने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के साथ समझौते किए, जब वह सत्ता में थी। इससे देश की वैश्विक स्थिति व अंतरराष्ट्रीय संबंधों में पारदर्शिता की आवश्यकता के बारे में चिंता पैदा हो गई है। गठबंधन का एक सशक्त घटक है-डीएमके। यह पार्टी क्षेत्रीय अस्मिताओं के अधिकारों की वकालत करती है। साथ ही, हिंदी की मुखर विरोधी रही है। समाचारों के अनुसार, तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने 17 मार्च, 2018 को तमिलनाडु के इरोड में एक प्रश्न के उत्तर में कहा, ‘‘अगर यह (द्रविड़नाडु की ऐसी स्थिति) आती है, तो इसका स्वागत किया जाएगा। हमें उम्मीद है कि ऐसी स्थिति आएगी।’’
विपक्षी जमघट की वास्तविकता के बारे में आगे बात करने के पहले एक नजर ‘यूनाइटेड स्टेट्स आफ साउथ इंडियन स्टेट्स’ (दक्षिण भारतीय राज्यों के संयुक्त राज्य) की अवधारणा पर। यह विचार ब्रेकिंग इंडिया ब्रिगेड का है। खुले तौर पर इसे पृथकतावादी कहने से परहेज किया जाता है, लेकिन बाकी कोई कसर भी नहीं छोड़ी जाती है। यह तथ्य है कि दक्षिण भारत अधिक कर देता रहा है और बदले में उसे केंद्र से कम प्राप्त होता है। इस बिंदु को लेकर कारवां, फ्रंटलाइन जैसी वामपंथी-उदारवादी पत्रिकाओं, अन्य समाचारपत्र व वेबसाइट इस ‘विचार’ पर ‘बहस’ करते हैं। रामचंद्र गुहा जैसे स्वयंभू इतिहासकार इसके लिए दृढ़ता से तर्क देते रहे हैं। यह चिंतन का मार्क्सवादी तरीका है। मार्क्सवाद इस आईएनडीआई अलायंस की प्रेरक शक्तियों में से एक है।
वास्तव में, मार्क्सवादी दृष्टिकोण समाज को एक रैखिक अंदाज में देखता है। हां या न। तीसरा कुछ नहीं। मार्क्सवादी इतिहास भी रेखीय प्रक्रिया में होता है। इसमें हर समाज को सामंतवाद से पूंजीवाद की ओर बढ़ता देखा और दिखाया जाता है और फिल्म की कहानी एक राज्यविहीन समाज पर पहुंच कर समाप्त होती है। इस फार्मूले में सिर्फ एक पक्ष के आधार पर समाज को देखा जाता है, जबकि बाकी अन्य सारे पक्षों को स्थिर मान लिया जाता है। मार्क्सवाद से पीड़ित भारतीय बुद्धिजीवियों के साथ भी यही समस्या है। जैसे कि वे आर्थिक उत्पादकता के एकमात्र तर्क के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं कि दक्षिणी राज्यों को एक संघ बनाना चाहिए। यहां तक कि आर्थिक उत्पादकता के लिए भी आवश्यक अन्य पक्षों, जैसे सुरक्षा-प्रतिरक्षा, कार्यबल, बाजार जैसे अन्य बिंदुओं की अनदेखी कर दी जाती है।
वे इस तथ्य की भी अनदेखी कर देते हैं कि किसी भी देश की व्यवस्था देश की आवश्यकताओं के अनुसार, खुद को समायोजित करती है और विभिन्न क्षेत्र अपने-अपने सर्वश्रेष्ठ कार्य की जिम्मेदारी लेते हैं। किसी क्षेत्र के लोग प्रौद्योगिकी में अच्छे हो सकते हैं, कुछ रक्षा के क्षेत्र में अच्छे हो सकते हैं, कुछ कृषि में अच्छे हो सकते हैं, लेकिन एक इकाई के रूप में आगे बढ़ने के लिए भारत के सभी अभिन्न अंग होते हैं। अंग्रेजों की सत्ता का पूरे देश में विस्तार हुआ था, स्वतंत्रता आंदोलन मुख्य रूप से आधुनिक पंजाब, बंगाल, महाराष्ट्र में शुरू हुआ, लेकिन स्वतंत्रता सेनानियों ने कभी भी किसी विशेष क्षेत्र की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष नहीं किया, बल्कि पूरे देश की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया था। उत्तर बनाम दक्षिण की बहस मूर्खतापूर्ण है, लेकिन आईएनडीआई अलायंस के लिए यही काम की चीज है।
ये सारी वे जटिलताएं और संभावित विरोधाभास हैं, जिन पर प्रश्न उठने से रोक सकना आईएनडीआई अलायंस के लिए संभव नहीं है। ऐसे में जनता का भरोसा और विश्वास बनाए रखने में उसे गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है।
फिर गठबंधन में ममता बनर्जी जैसे साझेदार हैं, जिन पर सीमावर्ती क्षेत्रों के पास बांग्लादेशी रोहिंग्या मुसलमानों को फिर से बसाने के आरोप लगे हैं, जिससे उन क्षेत्रों की जनसांख्यिकीय स्थिति में बदलाव को लेकर बहुत स्पष्ट चिंताएं पैदा हो गई हैं। और आगे देखें, गठबंधन में शामिल अन्य प्रमुख क्षेत्रीय दलों में अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली सपा और तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाली राजद हैं। इन पार्टियों को अपराधियों को प्रश्रय देने वाली, जातिवादी और अवसरवादी करार देने के लिए किसी को इन पार्टियों का आलोचक होना अनिवार्य नहीं है। यह पार्टियां देश के हितों को प्राथमिकता देने के बजाय वंशवादी राजनीति पर ध्यान केंद्रित करती हैं। यह भी एक स्वत: स्पष्ट सी बात है। इतना समझने के लिए राजनीति का क-ख-ग भी जानना जरूरी नहीं है।
खतरनाक गठजोड़
इसके अलावा, यह ध्यान देने योग्य बिंदु है कि इस गठबंधन में वे कम्युनिस्ट पार्टियां और कांग्रेस पार्टी एक साथ हैं, जो न केवल वैचारिक रूप से एक-दूसरे से भिन्न हैं, बल्कि केरल, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा जैसे राज्यों में इनका आपस में सांप-नेवले वाला रिश्ता है। एक-दूसरे के खून के प्यासे रहे कार्यकर्ताओं के साथ गठबंधन की एकजुटता और प्रभावी ढंग से एक साथ काम करने की क्षमता क्या रहेगी, यह देखने वाली बात होगी।
आईएनडीआई अलायंस पर लगे विभिन्न आरोप और चल रहे मामले इस गठबंधन की व्यावहारिकता पर प्रश्न उठाते हैं। आरोप यह भी है कि गठबंधन को जॉर्ज सोरोस से पर्याप्त धन मिला है और यह कथित तौर पर एक वैश्विक गुट के हितों को बढ़ावा दे रहा है, जो भारत की रणनीतिक स्वायत्तता से समझौता करने जैसी बात है। इन आरोपों के कारण गठबंधन की स्वतंत्रता पर प्रश्न उत्पन्न होता है। सवाल यह भी है कि ऐसा गठबंधन विदेशी प्रभावों के मुकाबले देश के हितों को कैसे प्राथमिकता दे सकेगा।
इसके अलावा, जॉर्ज सोरोस के ओपन सोर्स फाउंडेशन पर उन कार्यकर्ताओं और समूहों को वित्तीय सहायता प्रदान करने का आरोप है, जिनके बारे में माना जाता है कि वे टूलकिट जैसे तरीकों से सोचे-समझे विरोध प्रदर्शन आयोजित करते हैं और विघटनकारी भीड़ जुटाते हैं। इस प्रकार की हरकतों ने देश की शांति और सौहार्द पर असर डाला है, जिससे विपक्षी गठबंधन के भीतर, कम से कम कुछ तत्वों के इरादों और तरीकों के बारे में चिंता पैदा होती है।
ये सारी वे जटिलताएं और संभावित विरोधाभास हैं, जिन पर प्रश्न उठने से रोक सकना आईएनडीआई अलायंस के लिए संभव नहीं है। ऐसे में जनता का भरोसा और विश्वास बनाए रखने में उसे गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। बाहरी वित्तीय प्रभावों और संदिग्ध लोगों की संलिप्तता-सक्रियता ने गठबंधन की विश्वसनीयता को भी संदिग्ध कर दिया है।
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