15 अगस्त को अफगानिस्तान में तालिबान के सत्ता अधिग्रहण के दो वर्षों के उपरान्त जहां महिलाएं अभी भी अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रही हैं। वहीं, एक और बड़ी खबर अफगानिस्तान से आई है और वह चौंकाने वाली होकर भी अप्रत्याशित नहीं है, क्योंकि किसी भी मजहबी सत्ता में लोकतंत्र नहीं होता है। अब तालिबान ने अफगानिस्तान में हर राजनीतिक दल पर प्रतिबन्ध लगा दिया है।
यह निर्णय इसलिए चौंकाने वाला नहीं लग रहा है क्योंकि यह अप्रत्याशित नहीं है। यह ऐलान वह सत्ता संभालने के समय ही कर चुके थे कि अब सबकुछ शरिया के अनुसार चलेगा। शरिया आधारित ही सारे काम होंगे। वर्ष 2021 में ही तालिबान प्रवक्ता ने यह स्पष्ट कर दिया था कि अफगानिस्तान में कोई भी लोकतांत्रिक व्यवस्था लागू नहीं होगी क्योंकि हमारे देश में इसका कोई आधार नहीं है। उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया था कि यहाँ पर शरिया क़ानून है और वही रहेगा।
अब आकर दो वर्षों के बाद, जब वह महिलाओं को सार्वजनिक जीवन से बाहर कर चुके हैं और जब उनकी शिक्षा को भी पूर्णतया समाप्त कर चुके हैं, उसके बाद अब उन्होंने यह कहा है कि अब अफगानिस्तान में किसी भी प्रकार का कोई राजनीतिक दल नहीं रहेगा। यह भी उन्होंने घोषणा की कि देश में राजनीतिक दलों की गतिविधियों को रोक दिया गया है क्योंकि इनमे से कोई भी पार्टी शरिया के कानूनों पर खरी नहीं उतरती है।
तालिबान के न्याय मंत्री हकीम शरेई ने खाड़ी देशों का उदाहरण देते हुए कहा वहां भी तो कोई राजनीतिक दल नही हैं। वर्ष 2021 में जब तालिबान ने अफगानिस्तान में सत्ता संभाली थी, तभी से यह अनुमान लगाए जा रहे थे कि अफगानिस्तान में मजहबी शासन ही चलाया जाएगा, परन्तु जो पहले वार्ताएं आदि होती थीं उनके अनुसार तालिबान ने अपना उदार चेहरा दिखाते हुए महिलाओं के प्रति उदार दृष्टि रखने की बात कही थी। यह भी सत्य है कि उन्होंने प्रेस कांफ्रेंस भी की थी और इसी प्रेस कांफ्रेंस का हवाला देते हुए भारत के एक बड़े मीडिया वर्ग और लेखक वर्ग ने भारत के प्रधानमंत्री पर हल्ला बोला था कि तालिबान ने भी प्रेस कांफ्रेंस कर ली है, मगर भारत के प्रधानमंत्री ने नहीं!
मगर प्रेस कांफ्रेंस करने के बाद ही मीडिया से महिलाओं को निकाले जाने की ख़बरें आई थीं और फिर महिलाओं को लेकर एवं समाज को लेकर एक प्रकार का दमनचक्र आरम्भ हुआ, जो अभी तक चल रहा है। क्या यह कहा जाए कि जो वर्तमान में प्रचलित लोकतंत्र है, उस पर आघात तो पहले ही दिन से होना आरम्भ हो गया था, मगर भारत में प्रधानमंत्री मोदी का विरोधी एक बड़ा वर्ग है, जो इस बात पर तो लहालोट हुआ था कि वह प्रेस कांफ्रेंस कर रहे हैं और तालिबान लड़के और लड़कियों को अलग-अलग ही सही परन्तु शिक्षा की अनुमति तो दे रहे हैं। परन्तु प्रशंसा करने वाला वर्ग आज जब तालिबान ने पूरी तरह से लोकतंत्र को समाप्त करने की घोषणा कर दी है, उस पर पूरी तरह से मौन हो गया है।
यद्यपि ऐसा नहीं है कि अफगानिस्तान में इन क़दमों का विरोध नहीं हो रहा है। विरोध हो रहा है और अत्यधिक विरोध हो रहा है। 15 अगस्त 2022 को जब तालिबान के सत्ता संभालने का एक वर्ष पूरा हुआ था तो सड़क पर कुछ महिलाओं ने उतर कर “15 अगस्त एक काला दिन है” का नारा लगाते हुए विरोध प्रदर्शन किया था। इसके साथ ही उन्होंने यह भी नारा लगाया था कि “रोटी, काम और आजादी!”। परन्तु आजादी उन्हें मयस्सर नहीं है।
साथ ही अब कथित रूप से लोकतंत्र भी नहीं रहेगा, वह लोकतंत्र जो दलीय व्यवस्था पर आधारित है। परन्तु यह भी बात ध्यान दिए जाने योग्य है कि जितने भी मुस्लिम देश हैं, जहाँ पर शरिया का शासन है, या कहा जाए कि मुस्लिम बाहुल्य लोकतंत्र है, वहां पर यदि दल होंगे भी तो वह उसी लोक की मानसिकता वाले होंगे।
जब लोक ही मुस्लिम हैं, तो राजनीतिक दल या राजनीतिक विरोधी भी उसी लोक के होंगे, लोक से परे का तंत्र नहीं हो सकता है। जब एक ही विचारों का लोक है, और एक ही मजहबी विचार के दल हैं, तो ऐसे में यह बहुत हैरान करने वाला है कि दलीय व्यवस्था को ही समाप्त कर दिया जाए। क्या यह समस्त विरोधी विचारों को दबाने का प्रयास है?
वैसे इस समय अफगानिस्तान में कोई भी ऐसा गुट दिखाई नहीं देता है, जो तालिबान को चुनौती दे सके, फिर भी दलीय व्यवस्था पर प्रतिबंध अपने आप में प्रश्न उठाता है, और इस इतने बड़े कदम पर भारत के उस वर्ग का मौन और बड़े प्रश्न उत्पन्न करता है, जो तालिबान के सत्ता संभालने पर इसलिए लहालोट हो रहा था कि उसने अमेरिका को भगा दिया, तो वह लोकतंत्र की इस हत्या पर क्यों एक भी शब्द नहीं कह रहे हैं?
एक और बात जो हैरान करने वाली है, वह यह कि अभी तक तालिबान की सरकार को किसी भी देश ने मान्यता प्रदान नहीं की है, परन्तु फिर भी उन्हें फ़िक्र नहीं है। यहाँ तक कि प्रेस की स्वतंत्रता पर कैंची चलाते हुए अफगानिस्तान में पिछले 10 दिनों में तालिबान अधिकारियों ने नौ पत्रकारों को गिरफ्तार कर लिया है।
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