सभी जानते हैं कि 1947 में अगस्त के बरसाती मौसम में बरसात से नहीं, खून से भीगी हुई स्वतंत्रता प्राप्त हुई। आज भी राष्ट्रगान में ‘पंजाब सिंध गुजरात मराठा…….!’ का उच्चारण करते हुए हर भारतीय अपने मन मस्तिष्क पर अंकित वर्तमान भारत के मानचित्र के किसी कोने में सिंध को जरूर तलाशता है। वह तलाशता है शेर ए पंजाब महाराजा रणजीत सिंह की राजधानी लाहौर को जिसका उल्लेख श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी के अंग क्रमांक 1412 में वर्णित है – –
लाहौर सहरु अंम्रित सरु सिफती दा घरु।।
(श्री गुरु अमरदास साहिब जी फरमाते है कि श्री गुरु रामदास जी के आगमन पर लाहौर शहर नामामृत का सरोवर तथा प्रभु-स्तुति का घर बन गया है)
इसी अंग क्रमांक पर बाद की घटनाओं की छाया भी दिखाई देती है, जहाँ कहा गया –
लाहौर सहरु जहरु कहरु सवा पहरु ॥
(लाहौर शहर में जुल्म का जहर फैला हुआ है, सवा पहर मासूम लोगों पर मौत का कहर मचा हुआ है)
लाहौर का शहीदी गंज पांचवें गुरु साहिब श्री अर्जन देव जी महाराज शहादत स्थल है। जनवरी 1929 को जिस रावी तट पर पहली बार पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव पारित हुआ वह भी लाहौर में है। इसलिए लाहौर भुलाना कृतघनता होगी। कैसे भुला दें ननकाना साहिब, पंजा साहिब, तक्षशिला को !
‘पाकिस्तान मेरी लाश पर बनेगा’ पर विश्वास कर तथा ‘कुछ दिनों में सब शांत हो जाएगा’ मानकर उस भाग में निश्चिंत बैठे लाखों लोगों की बेबसी को भुलाना आसान है क्या? विश्व के सबसे बड़े और भयानक कत्लेआम पर मन मस्तिष्क कैसे मौन रह सकता है?
15 अगस्त 1947 को देश का विभाजन नहीं, मानवता का चीर हरण भी हुआ परंतु हर छोटी सी बात पर मचलने वाले हमारे तत्कालीन कर्णधार मौन अथवा ‘आधी रात को नये सवेरे का उदघोष कर रहे थे।’
आखिर क्या कारण है कि 76 वर्ष बाद भी जख्म नहीं भरे? उस पार रह गए शेष हिंदू लगभग अशेष हो गए लेकिन इस पार एक संप्रदाय विशेष की बस्तियों के आसपास जनसंख्या का संतुलन बहुत तेजी से बदला है। क्या कारण है कि आज भी दोनों संप्रदाय सौहार्द से मिलकर रहना नहीं सीख पाए? इन 76 वर्षों में हम धर्म मजहब संप्रदाय जाति प्रांत भाषा से ऊपर उठकर प्रत्येक बच्चे के मन मस्तिष्क पर राष्ट्र प्रथम अंकित क्यों नहीं कर पाए? सबको एक समान वैज्ञानिक शिक्षा से क्यों नहीं जोड़ पाए?
हर विवाद दुर्भाग्यपूर्ण होता है लेकिन विवाद के समाधान के लिए उचित वातावरण तैयार करना किसी एक पक्ष नहीं, सभी का कर्तव्य है। इतिहास में अंकित बर्बरतापूर्ण अपराधों को आखिर साथ लेकर कब तक चलेंगे? यह सत्य है कि प्रत्येक गलती को सुधार नहीं जा सकता। कई पीढ़ियों पहले जिन्हें अपनी उपासना पद्धति बदलने को मजबूर किया गया, उनके वंशज यदि वही जुड़े रहने में गौरव महसूस करते हैं तो उनके इस अधिकार पर किसी को अंगुली उठाने का अधिकार नहीं है परंतु उन्मादियों के पाप जो आज भी स्पष्ट देखे जा सकते है, उससे देश के बहुसंख्यक लोगों को होने वाली पीड़ा और अपमान से मुक्ति का मार्ग तलाशना आवश्यक है। ऐसे विवाद जितने लंबे समय तक चलेंगे राष्ट्र का उतना ही अहित होगा। यह भी विचारणीय है कि इस विलम्ब के लिए राजनीति ही दोषी है या मजहबी उन्माद की भी कोई भूमिका है?
आज अखंड भारत दिवस के अवसर पर प्रत्येक भारतीय को वह चाहे किसी भी धर्म मजहब संप्रदाय से संबंधित हो, स्थायी शांति, सद्भाव के लिए निष्ठा और ईमानदारी से समाधान के बारे में सोचना चाहिए। गलतियों को सुधारने का अपने लोगों पर नैतिक दबाव बनाना चाहिए। दूसरों के बहकावे में आकर हम लाख इंकार करें, लेकिन शाश्वत सत्य है कि कल सब के पुरखे साझे थे । आज भी सबके हित साझे है। भविष्य भी साझा रहे इसके लिए पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर निष्पक्षता से चिंतन की आवश्यकता है। अपने आप से पूछना चाहिए कि समाधान की चर्चा से मुंह मोड़ना और सब कुछ जानते हुए भी आंखें बंद करना समाधान है या समस्याओं के विस्फोट को निमंत्रण? इस उत्तर में ही भारत की अनेक समस्याओं का समाधान निहित है।
– विनोद बब्बर जी की फेसबुक वाल से
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