क्या कोई कल्पना कर सकता है कि एक बच्ची को सामूहिक बलात्कार के बाद कोयला भट्टी में जला दिया जाए और मीडिया में, स्त्री विमर्श में सन्नाटा बना रहे? इस कदर सन्नाटा उन लेखकों के कीबोर्ड में सहम कर बैठ जाए कि वह कुछ कह ही न पाएं। उनके पास विरोध के स्वर ही न रहें। इस कदर मौन धारण है कि जैसे कुछ हुआ ही नहीं। और वास्तव में उन लोगों के लिए तब तक कुछ नहीं होता है, जब तक आरोपी राज्य की सरकार उनके अपने एजेंडे वाली सरकार हो।
दिल को दहला देने वाली यह घटना हुई है कांग्रेस शासित राज्य राजस्थान में, जहां पर अभी हाल ही में मणिपुर में हुई घटनाओं के आधार पर मणिपुर में महिला सुरक्षा को लेकर केंद्र और मणिपुर राज्य सरकार की आलोचना हुई थी। और जब उन्हीं के मंत्री ने यह याद दिलाया था कि महिला सुरक्षा पर तो दरअसल राजस्थान को अपने गिरेबान में झांककर देखना चाहिए तो उन्हें ही बर्खास्त कर दिया गया।
सत्य की जीत कहने वाले कांग्रेस के नेताओं को सत्य ऐसा चुभा कि राजेन्द्र गुढ़ा को मंत्रिमंडल से ही हटा दिया। उन्होंने एनसीआरबी के आंकड़ों का हवाला देते हुए कहा था कि राजस्थान महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों में सबसे ऊपर है। परन्तु राजस्थान की सरकार को यह सत्य बहुत चुभा था। फिर भी उसके बाद कई घटनाएं ऐसी हुईं जिन्होनें राजेन्द्र गुढ़ा की दावे पर अपनी मोहर लगाई।
जो घटना प्रकाश में आई है, वह भयानक है। वह वीभत्स है। वह ऐसी है जो हर कल्पना और हर शब्दों से परे है। इस घटना में एक चौदह वर्षीय बच्ची का सामूहिक बलात्कार किया गया और फिर जब यह लगा कि आरोपियों की पोल खुल जाएगी तो उन्होंने उसे जिंदा ही कोयले की भट्टी में डाल दिया। यह घटना इसलिए और भयावह है कि इसमें आरोपियों की पत्नियों ने ही उस बच्ची को जिंदा भट्टी में डाल दिया।
इस घटना में बताया जा रहा है कि इस बच्ची पर आरोपियों की नजर पिछले 2 महीनों से थी और वह मौक़ा तलाश रहे थे। घटना वाले दिन जब उन्होंने उस बच्ची को अकेले मवेशी चराते हुए देखा तो उसे पकड़ लिया और उसके साथ बलात्कर किया। दोपहर में उसे बेहोश किया और जब उन्हें पता चल गया कि अब वह नहीं बचेंगे तो फिर उसे ठिकाने लगाने के लिए उनकी बीवीयां भी आगे आईं और उन्होंने ही भट्टी का दरवाजा खोलकर उस बच्ची को फेंक दिया। अधजला शव टुकड़े टुकड़े बरामद हुआ। यह घटना दिल को दहलाती है।
राजस्थान में एक और ऐसी घटना हाल ही में हुई है, जो महिलाओं की आजादी और सुरक्षा पर एक बहुत बड़ा प्रश्न चिह्न लगाती है। परन्तु दुर्भाग्य से यह घटना तो एकदम ही विमर्श से बाहर रह गयी। इस घटना में कहा जा रहा है कि एक मुस्लिम महिला ने अपने घर के बाहर भाजपा का नाम लिखना और उसका चुनाव चिह्न लगाना भारी पड़ गया और भीड़ ने उसके घर पर हमला कर दिया। पहले घर का मुख्य दरवाजा खोला और फिर ऊपरी मंजिल पर बने कमरे का दरवाजा खोला और घसीट कर बाहर ले गयी और फिर कीचड़ में फेंककर लात घूंसों से मारा!
परन्तु मणिपुर की घटना पर भाजपा को घेरने वाले या हमेशा सत्ता के विपक्ष में रहने का दावा करने वाले एक भी कथित रचनाकार ने इस घटना पर मुंह नहीं खोला है, वैसे भी भाजपा समर्थक महिलाओं के साथ की गयी हिंसा इनके लिए हिंसा नहीं होती है। यह याद रखा जाना चाहिए कि जब नुपुर शर्मा के खिलाफ सर तन से जुदा के नारे लग रहे थे, उस समय यह कथित महिलाविमर्श करने वाले लोग कुछ भी नहीं बोले थे। उनके लिए बंगाल की वह एक भी महिला पीड़ित नहीं है, जो तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं द्वारा चुनावी हिंसा का शिकार हुई थीं। उनके लिए किसी भी उस महिला की पीड़ा पीड़ा नहीं है जो उनके एजेंडे में नहीं आती है।
बात राजस्थान की। जहां पर एक पंद्रह वर्ष की बच्ची के साथ बाड़मेर में बलात्कार होता है और बलात्कार के बाद राणा खान उसकी अश्लील तस्वीरें सोशल मीडिया पर जारी कर देता है। जब बच्ची के माता-पिता इसे देखते हैं तो चौंक जाते हैं और फिर बच्ची के द्वारा यह बताया जाता है कि राणा खान ने उसके साथ बलात्कार किया था। यह घटना भी अधिक पुरानी नहीं है, तभी की है, जब पूरे देश में मणिपुर के बहाने महिला सुरक्षा की बात की जा रही है। परन्तु इन घटनाओं पर बात नहीं होती। विमर्श नहीं होता। यहाँ तक कि राजस्थान के रचनाकार भी इन घटनाओं पर चुप रहते हैं। चुप रहने का सिलसिला 18 जुलाई को तो टूट ही नहीं सकता था जब यह समाचार आया था कि जोधपुर के एक स्कूल में एक चपरासी ने 7 साल की बच्ची के साथ लगभग 6 महीने तक बलात्कार किया था।
ये हाल ही के मामले हैं। मगर ये मामले यहां पर थमते नहीं हैं। यही कारण है कि अब राज्यसभा में भारतीय जनता पार्टी के नेता पियूष गोयल ने नियम 176 के तहत राजस्थान में महिलाओं के खिलाफ अत्याचार पर चर्चा की मांग की है। राज्यसभा में चर्चा हो या न हो, मगर स्वयं को विमर्श का ठेकदार बताए जाने वालों की सोशल मीडिया पर इन घटनाओं पर चुप्पी सालती है। वह कहीं न कहीं परेशान करती है कि आखिर क्या बात है कि पीड़ा को दलीय समर्थन के आधार पर आंका जा रहा है? आखिर क्या कारण है कि जिन दलों का कथित निष्पक्ष लोग समर्थन करते हैं, उनके नेताओं के शासन वाले राज्यों में महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों पर सभी लेखक मौन रहते हैं? ऐसा क्यों है?
क्या हिन्दी का कथित प्रगतिशील वर्ग जो स्वयं को मात्र भाजपा विरोध या कहें हिन्दू विरोध की क्रान्ति तक सीमित रखता है, वह बंगाल में महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों पर मौन रहता है, केरल में तो उसकी जुबां खुलती ही नहीं है, बिहार में उसे दिखता नहीं है और राजस्थान में तो भट्टी वाली घटना पर मौन रहना ही सारी कहानी बयान कर रहा है! राजस्थान की महिलाओं का दर्द राजेन्द्र गुढ़ा को दिख सकता है, जब उनकी ही अपनी सरकार उन पर हमलावर हो गयी है तो कथित निष्पक्षता के ठेकेदारों की देहरी पर दर्द क्यों नहीं पहुंच रहा? या कहा जाए कि उन्होंने अपने दरवाजे बंद कर रखे हैं गैर-भाजपा शासित राज्य की महिलाओं के प्रति?
काश कि यह दायरे कथित निष्पक्षता में न होते, काश कि वह लोग उन महिलाओं की पीड़ा विमर्श में लाते, जो दिनों दिन दम तोड़ रही हैं! परन्तु यह काश काश ही बन कर रह जाएगा, यही प्रतीत होता है।
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