सर्वसम्मति निर्माण कराने वाले एक आदर्श व्यक्ति के रूप में सभी हितधारकों को एक साथ लाने के लिए वह किसी भी सीमा तक जाते थे। मदनदास जी का यही गुण उन्हें कठिन और चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में एक उत्कृष्ट संवादकर्ता बनाता था।
अन्य बहुत से लोगों की तुलना में मेरा श्री मदनदास जी से परिचय काफी देर से हुआ। इसका मुख्य कारण यह था कि मैं कॉलेज के दिनों में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में सक्रिय नहीं था। उनसे मेरी पहली मुलाकात 1994 में अमेरिका में हुई थी।
यह उनकी पहली अमेरिका यात्रा थी। वह सीधे हिंदू स्वयंसेवक संघ के ग्रीष्मकालीन शिविर में पहुंचे थे। जब वह साधारण व्यक्ति की तरह रात्रि भोजन के लिए कतार में खड़े थे, तब मैं उसके पास आया और उन्हें अपना परिचय दिया। उन्होंने मुझे रात्रि भोज के बाद मिलने को कहा और यह भी बताया कि उनके पास मेरे पिता का एक पत्र है। उन दिनों ईमेल या व्हाट्सएप का चलन नहीं था। हस्तलिखित पत्र और लैंडलाइन फोन ही संचार के एकमात्र साधन थे।
संगठनात्मक कौशल
उस रात भोजन के बाद हम खुली हवा में बेंच पर बैठे और देर रात तक कई मुद्दों पर चर्चा करते रहे। जिस बात से मैं आश्चर्यचकित था, वह थी उनकी जिज्ञासा, सुनने की क्षमता और उस समय में हिंदू स्वयंसेवक संघ (एचएसएस) की स्थिति का आकलन। बाद में उन्होंने पूरे अमेरिका की यात्रा की और एक महीने बाद वह एचएसएस के प्रमुख कार्यकर्ताओं की बैठक के लिए न्यूजर्सी लौट आए। उनका मुख्य उद्देश्य नए और युवा लोगों को एचएसएस से जोड़ना था। स्वाभाविक रूप से पुराने कार्यकर्ताओं में थोड़ी बेचैनी थी। श्री मदनदास जी अपनी विशिष्ट शैली में वरिष्ठ कार्यकर्ताओं को एक-एक करके अपने साथ एडिसन, न्यूजर्सी की सड़कों पर सैर के लिए ले गए और उनके साथ बहुत ही स्पष्ट और प्रेरणादायक बातचीत की। उनके इस अभ्यास से एचएसएस यूएसए की राष्ट्रीय टीम में बहुत सहज बदलाव संभव हो सका।
उन्हीं दिनों एक और उल्लेखनीय घटना घटी, जो श्री मदनदास जी के संगठनात्मक कौशल को दर्शाती है। एचएसएस की नई टीम की शुरुआत में एक वरिष्ठ कार्यकर्ता, जिनसे बैठक में उपस्थित होने की अपेक्षा नहीं की गई थी, बैठक कक्ष में बरबस आ गए। उन्हें आमंत्रित नहीं किया गया था, इसलिए वह बहुत नाराज थे। उन्होंने मदनदास जी से कहा कि पहले तो उन्हें हर बैठक में बुलाया जाता था, इस बार क्यों नहीं बुलाया गया। मदनदास जी और अन्य लोगों ने उन्हें समझाने की कोशिश की, लेकिन वह अड़े रहे। अंतत: मदनदास जी ने अन्य सभी को बैठक कक्ष से बाहर जाने के लिए कहा।
जब सब लोग कक्ष से चले गए, तो मदनदास जी ने उनसे कहा कि अब वह जो कहना चाहते हैं; जो भी उनकी टिप्पणियां, शिकायतें, प्रतिक्रिया आदि हों, वह सब कुछ व्यक्त कर सकते हैं। उन कार्यकर्ता महोदय ने बातचीत शुरू की और मदनदास जी ने उनके साथ लगभग 2 घंटे बिताए, धैर्यपूर्वक उनकी बातें सुनीं। चर्चा समाप्त होने के बाद मदनदास जी ने उनसे कहा कि वह चर्चा का सारांश टीम को बताएंगे। और उन्हें जाने के लिए कहा। इसके बाद नई टीम के साथ औपचारिक बैठक शुरू हुई। अगले दिन उन कार्यकर्ता ने मदनदास जी को फोन किया और पिछले दिन के अपने व्यवहार के लिए उतनी ही भावुकता से माफी मांगी।
मदनदास जी ने युवा पीढ़ी, विशेषकर बच्चों के बीच हिंदू मूल्यों को विकसित करने के लिए विशिष्ट कार्यक्रम विकसित करने की आवश्यकता पर जोर दिया। उनके विचार एचएसएस यूएसए में बच्चों के लिए विशिष्ट गतिविधियों को डिजाइन करने में उपयोगी थे।
परिवार शाखा का प्रयोग
1994 में मदनदास जी के दौरे ने अमेरिका में एचएसएस के अगले 8-10 वर्षों के काम को एक आकार दे दिया था। उनके दौरे का असर इतना व्यापक था। उदाहरण के लिए, जैसा कि मेरे मित्र खंडेराव कांड ने किसी अन्य स्थान पर कहा है कि बे एरिया की अपनी यात्रा के दौरान, जब उन्होंने देखा कि शाखा में भाग लेने वाले सभी युवा जोड़े हैं, तो उन्होंने युवा पीढ़ी, विशेषकर बच्चों के बीच हिंदू मूल्यों को विकसित करने के लिए विशिष्ट कार्यक्रम विकसित करने की आवश्यकता पर जोर दिया। उनके विचार अमेरिका में एचएसएस में बच्चों के लिए विशिष्ट गतिविधियों को डिजाइन करने में उपयोगी थे। इसी प्रकार, वह पश्चिमी देशों में परिवारों के एक साथ आने के महत्व को बहुत जल्दी समझ गए थे और इसीलिए उन्होंने ‘परिवार शाखा’ के प्रयोग को प्रोत्साहित किया।
विशिष्ट कार्यशैली
नए परिवेश को तुरंत समझना, उसके अनुरूप स्वयं को ढालना, नए प्रयोगों को प्रोत्साहित करना, उन पर कड़ी निगरानी रखना, आवश्यकता पड़ने पर परिवर्तन करना मदनदास जी की कार्यशैली की पहचान थी। अमेरिका से वापस आने के बाद एक बार मैंने उनसे कहा था कि संघ का काम इतना संरचित है कि मेरे जैसे व्यक्ति की, जिसके पास रा.स्व.संघ में कोई विशेष जिम्मेदारी नहीं है, सुनने वाला कोई नहीं है। जवाब में उन्होंने मुझसे पहल करने और समान विचारधारा वाले कुछ लोगों का एक सम्मेलन आयोजित करने को कहा। यह व्यवस्था में एक नया प्रयोग था, लेकिन केवल मदनदास जी के समर्थन के कारण 1998 में मुंबई में दो दिनों की अनौपचारिक बैठक में हममें से कई लोग एक साथ आए।
वह कार्यकर्ताओं से बातचीत करते समय उनके स्तर तक आ जाते थे, जिससे कार्यकर्ता उनके साथ किसी भी विषय पर चर्चा करने में सहज हो जाते थे। लेकिन साथ ही, वह हर किसी को ध्यान से देखते थे तथा उसकी ताकत और सीमाओं को पहचान लेते थे। व्यक्तियों के बारे में उनका आकलन शायद ही कभी गलत हुआ हो। वह उनकी जरूरतों और वास्तविक चिंताओं के प्रति सहानुभूति रखते थे, लेकिन स्पष्ट प्रतिक्रिया देने में भी उतने ही स्पष्टवादी थे। लेकिन किसी की भावनाओं या आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाए बिना ही अपनी बात रखते थे। सर्वसम्मति निर्माण कराने वाले एक आदर्श व्यक्ति के रूप में सभी हितधारकों को एक साथ लाने के लिए वह किसी भी सीमा तक जाते थे। मदनदास जी का यही गुण उन्हें कठिन और चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में एक उत्कृष्ट संवादकर्ता बनाता था।
उनके साथ समय बिताने के मुझे कई अवसर मिले। अमदाबाद में कभी-कभी वह रात्रि पड़ाव के लिए हमारे घर आते थे। परिवार में सभी के लिए यह एक उत्सव जैसा और देर रात तक हंसी-मजाक करने का अवसर होता था। पिछले कुछ वर्षों में, भले ही वह अपनी प्रसन्नता मौखिक रूप से व्यक्त करने में असमर्थ थे, लेकिन उनकी आंखों और उनके चेहरे के भावों को देखकर उनसे मिलते समय कोई भी उनकी गर्मजोशी को सरलता से महसूस कर सकता था।
मदनदास जी व्यक्ति की ताकत व सीमाओं को पहचान लेते थे। लोगों के बारे में उनका आकलन शायद ही कभी गलत हुआ हो। वह लोगों की जरूरतों व वास्तविक चिंताओं के प्रति सहानुभूति रखते थे, लेकिन स्पष्ट प्रतिक्रिया देते थे।
दुर्लभ व्यक्तित्व
1999-2000 में तरोताजा होने के लिए मैं एक सप्ताह के लिए बेंगलुरु स्थित प्रशांति कुटीर में उनके साथ था। यह मेरे लिए उनसे सीखने का सबसे अच्छा अनुभव रहा। वह कार्यक्रम की सभी गतिविधियों में भाग लेते थे, सुबह के योग से लेकर रात के भोजन के बाद की ‘भजन संध्या’ तक। उन्होंने अपने लिए कभी भी किसी विशेष व्यवस्था की मांग नहीं की और हमेशा ही परिसर के अनुशासन का पालन किया। हम दोनों शाम को लंबी सैर करते थे। वह अपनी गहरी टिप्पणियां मेरे साथ साझा करते थे। आसपास के परिवेश का सूक्ष्म निरीक्षण करने की उनकी क्षमता से मैं आश्चर्यचकित हो जाता था। उन्होंने मुझसे यह भी स्पष्ट रूप से कहा था, ‘‘चूंकि आप मेरे साथ हैं, इस कारण प्रशांति कुटीर का प्रशासन आपको शुल्क माफ करने की पेशकश कर सकता है। लेकिन आपको इसे स्वीकार नहीं करना चाहिए और पूरी राशि का भुगतान करना चाहिए।’’ हमारे प्रवास के आखिरी दिन ठीक यही हुआ था।
जैसा कि संघ के कई प्रचारकों के जीवन के संदर्भ में होता है, अधिकांशत: उनके देहत्याग के बाद उनके योगदान, उनकी भूमिका के बारे में कुछ बातें प्रलेखित की जाती हैं। लेकिन राष्ट्र के महत्वपूर्ण अवसरों पर उनका अधिकांश योगदान और भूमिका अज्ञात बनी रहती है। इनमें से कुछ अलिखित उदाहरण उन लोगों के लिए भी अज्ञात हैं, जो उनके साथ निकटता से जुड़ेहुए थे। अन्य मामलों में कुछ लोगों ने इन उदाहरणों को देखा होगा, लेकिन इसके बारे में कभी एक शब्द भी नहीं बोला होगा। मदनदास जी का जीवन और योगदान इस परंपरा का अपवाद नहीं है।
एकात्मता स्तोत्र के अंतिम छंद (जो संघ के स्वयंसेवकों द्वारा प्रतिदिन पढ़ा जाता है) में कहा गया है:
अनुक्ता ये भक्ता: प्रभुचरणसंसक्तहृदया:
अनिर्दष्टा वीरा: अधिसमरमुद्ध्वस्तरिपव:
समाजोद्धर्तार: सुहितकरविज्ञाननिपुणा:
नमस्तेभ्यो भूयात् सकलसुजनेभ्य: प्रतिदिनम्।
अर्थात् भारत माता के और भी कई भक्त हैं, जिनका नाम यहां सीमित स्थान में याद नहीं किया जा सकता है। उनका हृदय ईश्वर के साथ निरंतर संपर्क में रहता है। ऐसे अनगिनत योद्धा हैं, जिन्होंने भारत माता के दुश्मनों को धूल चटाई, लेकिन दुर्भाग्य से आज हम उनके नाम भी नहीं जानते। फिर भी, भूलवश महान समाज सुधारकों और कुशल वैज्ञानिकों के कुछ महत्वपूर्ण नाम छूट गए होंगे। हमारी गहरी श्रद्धा और सम्मान उन तक प्रतिदिन पहुंचे।
आने वाली पीढ़ियां भारत माता के कई अज्ञात और अल्प-ज्ञात प्रतिष्ठित बेटों और बेटियों को श्रद्धांजलि देना जारी रखेंगी, जिन्होंने अपना पूरा जीवन देश और इसके लोगों के लिए समर्पित कर दिया। उनमें से एक श्री मदनदास भी होंगे। उनको मेरी अश्रुपूरित विदाई।
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