व्यक्ति के जीवन में सात्विक व्यवहार ‘कुशलता’ को वह आवश्यक गुण मानते थे। लेकिन वह यह भी जानते थे कि संगठन के लिए कार्यकर्ताओं की आवश्यकता होती है।
हंसमुख और विनोदी स्वभाव के धनी माननीय मदनदास जी कुशल संगठनकर्ता तो थे ही, वह व्यक्तियों को परखने में भी सिद्धहस्त थे। वह मानते थे कि हर व्यक्ति में गुण और दोष होते हैं। लेकिन उसका पूरा मूल्यांकन टेढ़ी खीर होता है, जिसे कोई योग्य संगठनकर्ता टाल नहीं सकता।
एक बार उन्होंने मुझसे कहा था कि विद्यार्थी परिषद का कार्यकर्ता बहुत सरल नहीं होना चाहिए। उनका मानना था कि सामाजिक संगठन में प्रमुख भूमिका निभा रहे व्यक्ति को इस बात की समझ होनी चाहिए कि कोई व्यक्ति उससे क्यों मिल रहा है। व्यक्ति के जीवन में सात्विक व्यवहार ‘कुशलता’ को वह आवश्यक गुण मानते थे। लेकिन वह यह भी जानते थे कि संगठन के लिए कार्यकर्ताओं की आवश्यकता होती है। इसलिए कार्यकर्ता का निर्माण, उसका विकास और उसकी संभाल उनके लिए परिपूर्ण विषय होता था, जिसके अंतर्गत वह व्यक्ति को स्नेहपूर्वक और धैर्यपूर्वक कार्यकर्ता बनाते थे।
वह 22 वर्ष तक अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के संगठन मंत्री रहे और देशभर में सैकड़ों कार्यकर्ता तैयार किए। 1970 में उनका संगठन मंत्री और मेरा महामंत्री बनना, एक साथ हुआ। यद्यपि वह मुझसे पांच वर्ष बड़े थे, लेकिन मुझे उन्होंने मित्रवत् माना। इसी कारण मैं उनका मित्र बन गया और यह संबंध अंत तक रहा।
श्री यशवंतराव केलकर और श्री बाल आप्टे के साथ अभाविप को देश का और संभवत: विश्व का सबसे बड़ा उद्देश्यपूर्ण और स्वयंपूर्ण छात्र संगठन बनाने वाली त्रिमूर्ति का वह भाग थे। जहां केलकर जी उनके अनुकरणीय आदर्श थे, वहीं आप्टे जी उनके बड़े भाई और मित्र थे। आप्टे जी थोड़ा गुस्सैल स्वभाव के थे, लेकिन मदनदास जी इसे भी बहुत सहजता से लेते थे।
वर्ष 1991 में उन्हें संघ का दायित्व मिला और कुछ वर्ष वह सहसरकार्यवाह भी रहे। संघ में भी उनका योगदान बहुत बड़ा रहा। जहां वर्ष 2000 के आसपास उन्हें अटलजी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के साथ समन्वय का दायित्व मिला, वहीं वह विश्व विभाग के पालक अधिकारी भी बनाए गए। संघ की आंतरिक संगठन रचना में उनकी राय विशेष महत्व रखती थी। वर्ष 2001 के अंत में उनकी राय पर ही मुझे अंतरराष्ट्रीय सहयोग परिषद में जोड़ा गया, जो अभाविप के बाद मेरा अगला कार्यक्षेत्र बना।
यह एक सुखद संयोग था कि उनका जन्मदिन और विद्यार्थी परिषद का स्थापना दिवस एक था- 9 जुलाई। उनकी आयु 75 की होने के पश्चात् हर वर्ष मैं यह प्रयास करता रहा कि उनका जन्मदिन अवश्य मनाया जाए। गत वर्ष जुलाई में जब उनकी आयु 80 हुई, तब दीनदयाल शोध संस्थान के अतुल जैन ने दिल्ली में एक गरिमामय कार्यक्रम आयोजित किया। इस वर्ष वह बेंगलुरु में थे। वहां एक मित्र को मैंने संकेत किया और निधन से 15 दिन पूर्व उनका अंतिम जन्मदिन मनाया गया। उनकी स्मृति को मेरा शत शत नमन।
एक रोचक घटना का उल्लेख आवश्यक है, जिससे उनकी व्यवहार कुशलता और बुद्धिमता का अनुभव हुआ। आपातकाल में दिल्ली में उनको मेरे कारण (किसी अन्य प्रावधान के तहत) बंदी बनना पड़ा था। वह विद्यार्थी परिषद के संगठन मंत्री के नाते भूमिगत थे और पुलिस को चकमा देने में सफल भी रहे थे। पुलिस उनको पहचान नहीं पाई और वह मीसाबंदी बनने से बच गए थे।
यह विधि का विधान था कि वह लंबे काल तक अस्वस्थ रहे। यद्यपि उनकी बुद्धि और स्मरणशक्ति साथ देती रही, परंतु वाणी और शरीर साथ नहीं देता था। पहले उनके प्रवास बंद हुए और फिर बैठकों में जाना कम होता गया। देश में केवल 3-4 स्थानों पर उनका अधिक समय बीतता था, जिसमें से एक दिल्ली भी थी।
मैं उनका दिल्ली निवासी मित्र था। वह भी अपेक्षा करते थे कि दिल्ली में मैं उनको उपलब्ध रहूं। दिल्ली में उनका समय अच्छे से बीते इसका प्रयास हम सभी करते थे। व्यक्तियों से मिलने में उनकी रुचि थी। इसलिए कुछ व्यक्तियों की उनसे मिलने की योजना निरंतर रहती थी।
यह एक सुखद संयोग था कि उनका जन्मदिन और विद्यार्थी परिषद का स्थापना दिवस एक था- 9 जुलाई। उनकी आयु 75 की होने के पश्चात् हर वर्ष मैं यह प्रयास करता रहा कि उनका जन्मदिन अवश्य मनाया जाए। गत वर्ष जुलाई में जब उनकी आयु 80 हुई, तब दीनदयाल शोध संस्थान के अतुल जैन ने दिल्ली में एक गरिमामय कार्यक्रम आयोजित किया। इस वर्ष वह बेंगलुरु में थे। वहां एक मित्र को मैंने संकेत किया और निधन से 15 दिन पूर्व उनका अंतिम जन्मदिन मनाया गया। उनकी स्मृति को मेरा शत शत नमन।
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