जिस समय चर्च यह मानता था कि रात का आसमान एक काली चादर है, जिसमें छेद हो गए और उसमें से स्वर्ग का प्रकाश तारों के रूप में दिख रहा है, उस समय भारत के एक चोट्टे को भी ये पता था कि चंद्रमा की सतह समतल नहीं है और उस पर जो दाग हैं, वो उल्काओं के गिरने से बने हैं।
नीतू सोनी
भारत में सदियों पहले एक किताब- #मेरुतुंगाचार्य_रचित_प्रबन्ध_चिन्तामणि आई थी जिसमें महान लोगों के बारे में कई हस्तलिखित कहानियां थीं। कोई कहता है किताब 1310 के दशक में आई तो कोई उसे 1360 के दशक का मानता है, 1310 वाले ज्यादा लोग हैं। खैर मुद्दा वो नहीं है, किताब का 14 वीं सदी का होना ही काफी है। उसमें राजा भोज पर भी कई कहानियां हैं जिसमें से एक ये है, जिसे थोड़ा ध्यान से पढ़ा जाना चाहिए।
पहली बार टेलिस्कोप से चंद्रमा देखा और अपनी डायरी में नोट किया कि, ‘चंद्रमा की सतह चिकनी नहीं है जैसी कि मानी जाती थी (क्योंकि केवल आंखों से वह ऐसी ही दिखती है), बल्कि असमतल और ऊबड़-खाबड़ है।’ वहां उन्हें पहाड़ियां और गड्ढों जैसी रचनाएं नजर आई थीं। उन्होंने टेलिस्कोप से खुद के देखे चंद्रमा का एक स्केच भी अपनी डायरी में बनाया।
एक रात अचानक आंख खुल जाने से राजा भोज ने देखा कि चांदनी के छिटकने से बड़ा ही सुहावना समय हो रहा है, और सामने ही आकाश में स्थित चन्द्रमा देखने वाले के मन मेें आह्लाद उत्पन्न कर रहा है। यह देख राजा की आंखें उस तरफ अटक गर्इं और थोड़ी देर में उन्होंने यह श्लोकार्ध पढ़ा-
यदेतइन्द्रान्तर्जलदलवलीलां प्रकुरुते।
तदाचष्टे लोक: शशक इति नो सां प्रति यथा॥
अर्थात् –‘चांद के भीतर जो यह बादल का टुकड़ा सा दिखाई देता है लोग उसे शशक (खरगोश) कहते हैं। परन्तु मैं ऐसा नहीं समझता।’
संयोग से इसके पहले ही एक विद्वान चोर राज महल में घुस आया था और राजा के जाग जाने के कारण एक तरफ छिपा बैठा था।
जब भोज ने दो तीन वार इसी श्लोकार्ध को पढ़ा और अगला श्लोकार्ध उनके मुंह से न निकला तब उस चोर से चुप न रहा गया और उसने आगे का श्लोकार्ध कह कर उस श्लोक की पूर्ति इस प्रकार कर दी-
अहं त्विन्दु मन्ये त्वरिविरहाक्रान्ततरुणो।
कटाक्षोल्कापातव्रणशतकलङ्काङ्किततनुम्॥
अर्थात् – ‘मैं तो समझता हूं कि तुम्हारे शत्रुओं की विरहिणी स्त्रियों के कटाक्ष रूपी उल्काओं के पड़ने से चन्द्रमा के शरीर में सैकड़ों घाव हो गए हैं और ये उसी के दाग हैं।’
अपने पकड़े जाने की परवाह न करने वाले उस चोर के चमत्कार पूर्ण कथन को सुनकर भोज बहुत खुश हुए और सावधानी के तौर पर उस चोर को प्रात:काल तक के लिए एक कोठरी में बंद करवा दिया। परंतु उस समय विद्वता की पूछ परख ज्यादा थी, सो अगले दिन प्रात: उसे भारी पुरस्कार देकर विदा किया गया।
लगभग 250 साल के लंबे अंतराल के बाद, गेलीलियो ने 30 नवंबर सन् 1609 को पहली बार टेलिस्कोप से चंद्रमा देखा और अपनी डायरी में नोट किया कि, ‘चंद्रमा की सतह चिकनी नहीं है जैसी कि मानी जाती थी (क्योंकि केवल आंखों से वह ऐसी ही दिखती है), बल्कि असमतल और ऊबड़-खाबड़ है।’ वहां उन्हें पहाड़ियां और गड्ढों जैसी रचनाएं नजर आई थीं। उन्होंने टेलिस्कोप से खुद के देखे चंद्रमा का एक स्केच भी अपनी डायरी में बनाया।
कहानी का सार बस इतना है कि जिस समय चर्च यह मानता था कि रात का आसमान एक काली चादर है, जिसमें छेद हो गए और उसमें से स्वर्ग का प्रकाश तारों के रूप में दिख रहा है, उस समय भारत के एक चोट्टे को भी ये पता था कि चंद्रमा की सतह समतल नहीं है और उस पर जो दाग हैं, वो उल्काओं के गिरने से बने हैं।
बात खत्म।
अब ये अलग बात है कि स्वयंभू वामपंथी इतिहासकारों, सेक्युलरता के घातक रोग से पीड़ित लिबरलों, और खुद पर ही शर्मिंदा कुछ भारतीय गोरों को यह बात आज भी नहीं पता, क्योंकि ना तो उन्हें इतिहास का अध्ययन करना आता है और ना ही उनमें इतनी क्षमता ही है।
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