पवन सारस्वत मुकलावा
25 जून 1975 की मध्य रात्रि को भारत के इतिहास में एक ऐसा काला अध्याय लिखा दिया गया था। शायद ही किसी को आभास हुआ होगा कि यह अंधेरा लम्बे समय तक छटने वाला नहीं है। उस रात की कालिमा ने भारतीय लोकतंत्र पर 21 महीने तक ग्रहण लगा दिया था। आज भी जब कोई 48 साल पहले भारत में लगे आपातकाल को याद करता है तो उसकी रूह कांप उठती है।
विपक्षी नेता और सिविल सोसाइटी के लोग सन 1975 के उस काले दिन को नहीं भूल सकते जब उस समय की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने घोषणा की थी कि राष्ट्रपति ने देश में आपातकाल घोषित कर दिया है और इसी घोषणा के साथ देश को गैर-लोकतांत्रिक मोड में धकेल दिया था। लोगों की स्वतंत्रता पर रोक लगा दी थी। कुछ ही मिनटों में तत्कालीन केंद्र सरकार ने लगभग भारतीय संविधान का अपहरण ही कर लिया था, नागरिकों के मौलिक अधिकारों सहित सभी संवैधानिक अधिकारों को जबरन हटा दिया था। एक झटके में लोकतंत्र से ‘लोक’ हटा कर ‘तानाशाही’ लिख दिया गया। जिस आज़ादी के लिए असंख्य देशभक्तों ने अपना सर्वस्व बलिदान दिया, अमानवीय यातनाएं झेली, उस आज़ादी को इंदिरा गांधी ने पिंजरे में कैद कर लिया। जिस संविधान की शपथ लेकर श्रीमती गांधी सिंघसनस्पद हुई थी, सिंहासन बचाए रखने के लिए उसी संविधान पर ताला लगा दिया एवं सभी नागरिक अधिकार छीन लिए गए। भारतीय लोकतांत्रिक इतिहास में काला अध्याय जुड़ चुका था।
1975 में लगा आपातकाल भी भारतीय इतिहास की एक ऐसी ही बड़ी घटना है जिसका मूल्यांकन समय-समय पर करना बेहद जरूरी हो जाता है। लेकिन ये मूल्यांकन किन आधारों पर हो ये प्रश्न थोड़ा जटिल है। जब आपातकाल के 48 वर्ष बाद हम पीछे मुड़कर उन परिस्थितियों को देखते हैं तो उस दौर में खींची गई सारी लकीरें स्पष्ट नज़र आती हैं। जब इंदिरा गांधी ने अपने कुछ विश्वस्त सलाहकारों की राय पर रातों-रात देश में आपातकाल लगाया तो उस वक्त भारत की जनसंख्या आज की तुलना में बहुत कम थी। यानि देश की वर्तमान की आधी आबादी ने आपातकाल के उस दंश को झेला ही नहीं है जिसमें नागरिक अधिकार अपने हाशिए पर थे। तो आपातकाल के बाद की पीढ़ी के लिए लोकतंत्र को लगे आघात को समझने के लिए उस समय की स्थितियों को जानना और मूल्याकंन करना जरूरी है। जैसे की मीडिया, सुप्रीम कोर्ट और संवैधानिक संस्थाएं आखिर उस दौर में कर क्या रही थीं और क्या इनमें से किसी ने खुलकर इसके खिलाफ आवाज उठाई थी।
वर्तमान में बहुत सी राजनीतिक पार्टी यह प्रचारित करने में लगी रहती हैं कि लोकतंत्र एवं संविधान खतरे में है और असहमति की आवाज को दबाया जा रहा है। ऐसा कहने वालों को यह याद करना आवश्यक है कि जब 25 जून 1975 की रात को आपातकाल लागू किया गया तो देश में क्या-क्या हुआ था? सत्ता के लालच में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश को इमरजेंसी की बेड़ियों में कैद कर दिया था। आपातकाल के किस्से सुनकर आज भी रूह कांप जाती है, आपातकाल के 21 महीनों में ही देशवासियों को अंग्रेजों का शासन याद आ गया था। इंदिरा के एक फैसले ने जनता के सारे अधिकार छीन लिए थे, रातों-रात मीडिया पर सेंसरशिप लग गई थी। सरकार चाहती नहीं थी कि मीडिया के जरिए तेजी से यह सूचना देश के आम जन तक पहुंचे, ऐसे में मीडिया संस्थानों पर अंकुश लगाना जरूरी था।
उस दौर में प्रमुख राष्ट्रीय अखबारों के कार्यालय दिल्ली के जिस बहादुरशाह जफर मार्ग पर थे, वहां की बिजली काट दी गई, ताकि अगले दिन अखबार प्रकाशित न हो सकें। जो अखबार छप भी गए, उनके बंडल जब्त कर लिए गए। आदेश था बिजली काट दो, मशीन रोक दो, बंडल छीन लो। 26 जून की दोपहर तक प्रेस सेंसरशिप लागू कर अभिव्यक्ति की आजादी को रौंद दिया गया। अखबारों के दफ्तर में अधिकारी बैठा दिए। बिना सेंसर अधिकारी की अनुमति के अखबारों में राजनीतिक समाचार नहीं छापे जा सकते थे। अखबारों और समाचार एजेंसियों को नियंत्रित करने के लिए सरकार ने नया और कठोर कानून बनाया और साथ ही प्रेस के लिए आचार संहिता की घोषणा कर दी गई। कई संपादकों को सरकार के विरोध में लिखने पर गिरफ्तार कर लिया गया।
मीसा और डीआईआर के तहत देश में एक लाख से ज्यादा लोगों को जेलों में ठूंस दिया गया। उस काले दौर में जेल-यातनाओं की दहला देने वाली कहानियां भरी पड़ी हैं। देश के जितने भी बड़े नेता थे, सभी के सभी सलाखों के पीछे डाल दिए गए। एक तरह से जेलें राजनीतिक पाठशाला बन गईं। आपातकाल के दौरान पुलिस की भूमिका किसी खलनायक से कम नहीं थी। अपने ही देश की पुलिस के अत्याचार ब्रिटिश राज के अत्याचारों को भी मात दे रहे थे। जो जहाँ, जिस हालत में मिला, उसे जेल की सलाखों के पीछे डाल दिया गया। देश के आम व्यक्ति की तो हैसियत ही क्या थी जब नामी-गिरामी राजनेताओं को रातों रात गिरफ्तार कर जेलों में ठूस कर अमानवीय यातनायें दी गईं। इस कानून के इस कदर दुरुपयोग के कारण ही इसे आजाद भारत का सबसे कुख्यात कानून भी कहा जाता है। इस दौरान ऐसा कानून बनाया गया जिसके तहत गिरफ्तार हुए व्यक्ति को कोर्ट में पेश करने और जमानत मांगने का भी अधिकार नहीं था।
नेताओं की गिरफ्तारी की सूचना उनके रिश्तेदारों, मित्रों और सहयोगियों तक को नहीं थी। जेल में बंद नेताओं को किसी से भी मिलने की अनुमति नहीं थी। उनकी डाक तक सेंसर होती थी, और मुलाकात के दौरान खुफिया अधिकारी मौजूद रहते थे। कह सकते हैं कि देश को पूरी तरह एक जंगल बना दिया गया था। आपातकाल के शुरुआत में ही संविधान के अनुच्छेद 14, 21 और 22 को निलंबित कर दिया गया। ऐसा करके सरकार ने कानून की नजर में सब की बराबरी जीवन और संपत्ति की सुरक्षा की गारंटी और गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर अदालत के सामने पेश करने के अधिकारों को रोक दिया। जनवरी 1976 में अनुच्छेद 19 को भी निलंबित कर दिया गया इसके तहत अभिव्यक्ति की आजादी, प्रकाशन करने, संघ बनाने और सभा करने की आजादी को भी छीन लिया गया। आपातकाल के दौरान किशोर कुमार जैसे गायकों को काली सूची में डाल दिया गया और कई फिल्म पर पाबंदी लगा दी गई। एक तरफ देशभर में सरकार के खिलाफ बोलने वालों पर जुल्म हो रहा था तो दूसरी तरफ संजय गांधी ने देश को आगे बढ़ाने के नाम पर पांच सूत्रीय एजेंडे पर काम करना शुरू कर दिया था। पांच सूत्रीय कार्यक्रम में ज्यादा जोर परिवार नियोजन पर था। लोगों की जबरदस्ती नसबंदी कराई गई। 19 महीने के दौरान देशभर में करीब 83 लाख लोगों की जबरदस्ती नसबंदी करा दी गई। कहा तो ये भी जाता है कि पुलिस बल गांव के गांव घेर लेते थे और पुरुषों को पकड़कर उनकी नसबंदी करा दी जाती थी। ओर अविवाहित युवा तक को भी नही छोड़ा गया उनकी ज़बरदस्ती नसबंदी करवा दी गयी।
आर्थिक मोर्चे पर भी आपातकाल का काफी नकारात्मक प्रभाव पड़ा। इस दौरान आर्थिक नीति में मनचाहा परिवर्तन और श्रमिकों के बुनियादी अधिकारों को खत्म करने की कोशिश की गई। इस दौरान जहां कहीं भी मजदूर हड़ताल हुई, वहां उन्हें कुचलने की कोशिश की गई। आपातकाल के दौरान नागरिक अधिकारों की रक्षा करने वाले वकीलों और जजों को भी नहीं बक्शा गया।
इस भयंकर त्रासदी को पूरा देश 21 महीनों तक झेलता रहा। जनवरी 1977 में घोषणा की गई कि 16 मार्च को देश में चुनाव होंगे। देश में चुनाव हुए और इंदिरा गांधी को जनता ने इमरजेंसी का सबक सिखा दिया। इसके बाद 21 मार्च 1977 को आपातकाल खत्म हो गया, लेकिन ये देश का सबसे काला वक्त साबित हुआ, जिसका दर्द लोगों के दिलों में आज भी जिंदा है। बहरहाल, देखा जाये तो आपातकाल के ‘‘काले दिनों’’ को कभी नहीं भूला जा सकता जब संस्थानों को सुनियोजित तरीके से ध्वस्त कर दिया गया था। आपातकाल की बरसी हमें निरंकुश ताकतों के खिलाफ विद्रोह तथा तानाशाही, भ्रष्टाचार और वंशवाद के विरुद्ध संग्राम का सबक और साहस भी देती है। लोकतंत्र की मूल अवधारणाओं को तभी मजबूत किया जा सकता है जब हम तानाशाहों के खिलाफ आवाज उठाते रहेंगे। हमें ऐसे राजनीतिक दल और ऐसे राजनीतिक परिवार से भी सावधान रहना होगा, जो सत्ता के लिए लोकतंत्र और संविधान को एक झटके में खत्म कर देते हैं।
लेखक- कृषि एवं स्वतंत्र लेखक, स्तम्भकार हैं।
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