प्रधानमंत्री का कार्यालय, जो आजकल इंदिरा गांधी संग्रहालय बना हुआ है, वहीं पर मंत्रिमंडल की बैठक बुलाई गई थी। उस कैबिनेट में इंदिरा गांधी ने सूचना दी कि देश में आपातकाल लगाना जरूरी है और हम इसकी घोषणा करने जा रहे हैं। किसी ने कोई सवाल नहीं उठाया। सिर्फ स्वर्ण सिंह, जो कि उस समय विदेश मंत्री थे, ने पूछा कि मैडम इसकी जरूरत क्या थी? खैर, कैबिनेट ने प्रस्ताव मंजूर कर दिया।
आपातकाल लगने के चार दिन बाद मैं गिरफ्तार हुआ था। मेरे बारे में कांग्रेसी सांसद ने पुलिस के कान भरे थे। उन दिनों पुलिस कांग्रेसी नेताओं के इशारे पर काम कर रही थी। 25 जून की रात में आपातकाल लगा, लेकिन इसकी घोषणा 26 जून की सुबह हुई थी। संवैधानिक घोषणा के लिए राष्ट्रपति और कैबिनेट की भी मंजूरी जरूरी थी। राष्ट्रपति की मंजूरी जबरदस्ती 25 जून की रात को ले ली गई थी। मंत्रिमंडल के लोगों को सुबह चार-पांच बजे जगाकर 6 बजे की बैठक में बुलाया गया।
प्रधानमंत्री का कार्यालय, जो आजकल इंदिरा गांधी संग्रहालय बना हुआ है, वहीं पर मंत्रिमंडल की बैठक बुलाई गई थी। उस कैबिनेट में इंदिरा गांधी ने सूचना दी कि देश में आपातकाल लगाना जरूरी है और हम इसकी घोषणा करने जा रहे हैं। किसी ने कोई सवाल नहीं उठाया। सिर्फ स्वर्ण सिंह, जो कि उस समय विदेश मंत्री थे, ने पूछा कि मैडम इसकी जरूरत क्या थी? खैर, कैबिनेट ने प्रस्ताव मंजूर कर दिया। सुबह आठ बजे अंतत: इंदिरा गांधी ने रेडियो के माध्यम से देश में आपातकाल की घोषणा की। आपातकाल किन परिस्थितियों में लगाना पड़ा, यह झूठ भी बोला। आपातकाल क्यों लगाया गया, इसे आज की पीढ़ी को बताना जरूरी है। 12 जून, 1975 को इंदिरा गांधी के लिए तीन गंभीर घटनाएं हुई। सुबह 6 बजे डीपी धर का देहांत हुआ था।
‘इंदिरा गांधी के कहने पर मैं राष्ट्रपति से मिलने जा रहा था। रास्ते में इंदिरा गांधी ने मुझसे पूछा, सिद्धार्थ ये बताओ कि कैबिनेट की बैठक बुलाए बिना आपातकाल कैसे लगाया जा सकता है?’ -सिद्धार्थ शंकर रे
10 बजे इंदिरा गांधी की हाईकोर्ट से लोकसभा की सदस्यता समाप्त हो गयी और शाम को गुजरात चुनाव में जनता मोर्चा विजयी हो गया। जब इंदिरा गांधी का चुनाव अवैध घोषित हो गया तो उनके पास सिर्फ दो ही रास्ते थे। सर्वोच्च न्यायालय में जाएं या लोकतांत्रिक मर्यादा का पालन करते हुए संसदीय समिति को रिपोर्ट करें और बताएं कि मेरी सदस्यता समाप्त हो गयी है, लिहाजा आप अपना नेता चुन लीजिए। ये दोनों तरीके लोकतांत्रिक होते। इंदिरा गांधी को सर्वोच्च न्यायालय से भी राहत नहीं मिली। अगर उनको सर्वोच्च न्यायालय से राहत मिल जाती तो वह प्रधानमंत्री रह जातीं। परंतु राहत न मिलने के कारण उनके सामने खतरे की घंटी बजनी शुरू हो गयी थी।
अब उनके सामने दो रास्ते बचे, या तो कांग्रेस नया नेता ने या लोकतंत्र का गला घोंटकर तानाशाही करें। इसलिए उन्होंने 12 जून से ही सिद्धार्थ शंकर रे को पश्चिम बंगाल से बुला लिया था। शाह कमीशन में सिद्धार्थ शंकर रे ने जो बात कही है, वह प्रामाणिक बात है। उन्होंने कहा कि ‘इंदिरा गांधी के कहने पर मैं राष्ट्रपति से मिलने जा रहा था। रास्ते में इंदिरा गांधी ने मुझसे पूछा, सिद्धार्थ ये बताओ कि कैबिनेट की बैठक बुलाए बिना आपातकाल कैसे लगाया जा सकता है?’ इसका मतलब यह था कि इंदिरा गांधी के दिमाग में आपातकाल लगाने की बात घूम रही थी। सिद्धार्थ रे ने कहा कि ‘मुझे कुछ समय दें, देखकर बताता हूं, इसमें क्या हो सकता है।’
सिद्धार्थ शंकर ने फार्मूला दिया कि ‘आपातकाल के कागजात पर राष्ट्रपति से रात में हस्ताक्षर करवा लीजिए। सुबह कैबिनेट में पारित कर इसकी घोषणा कर सकते हैं।’ यही फार्मूला इंदिरा ने अपनाया। इंदिरा गांधी ने सिर्फ अपनी प्रधानमंत्री की कुर्सी बचाने के लिए इस देश पर तानाशाही थोपी। देश के लिए ये बहुत बड़ी त्रासदी है। उस समय की परिस्थितियों को देखें तो किसी को इसकी उम्मीद नहीं थी। जयप्रकाश नारायण या विपक्ष के बड़े नेता सोच भी नहीं सकते थे कि इंदिरा इस हद तक जाएंगी। आज जो लोग कहते हैं कि लोकतंत्र की हत्या हो रही है तो वे लोग सिर्फ राजनीतिक जुमले की तरह इसे इस्तेमाल करते हैं। उन लोगों को मालूम नहीं है कि आपातकाल क्या होता है।
जिन महात्मा गांधी एवं अन्य स्वतंत्रता सेनानियों ने भारत को लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने के लिए बलिदान दिया, उस अध्याय को इंदिरा गांधी ने आगे बढ़ाने के बजाय इतिहास में एक काला अध्याय जोड़ा। आपातकाल लगाया। तानाशाही थोपने की कोशिश की और जनता ने उसे नकारा। इंदिरा गांधी और उनका पूरा खानदान दिमागी तौर पर तानाशाह है, इसमें कोई संशय नहीं है।
आपातकाल 21 महीने के लिए लगाया गया, जिसे तीन चरणों में बांट सकते हैं। पहला, हर व्यक्ति सदमे चला गया, क्योंकि उस समय इस तरह का कोई लक्षण नहीं था। समाचार पत्र के कार्यालयों पर ताला जड़ा जाने लगा। बिजली काटी जाने लगी। मदरलैंड के संपादक के.आर.मलकानी को जेल में बंद कर दिया। 25 तारीख को रैली के बाद जेपी दिल्ली में ठहरे हुए थे। उसी रात को 12:30 बजे पुलिस पहुंचती है और गांधी फाउंडेशन के सचिव से कहती है कि हमें जेपी को गिरफ्तार करना है। तो सचिव कहते हैं कि वह देर से सोये हैं। उनके शरीर में कई तकलीफें भी हैं।
कम से कम सुबह तक इंतजार करिए। लेकिन पुलिस ने कहा कि नहीं, हमें तुरंत गिरफ्तार करना है। अंतत: उन्हें जगाकर गिरफ्तार किया और थाने ले गए। उस समय के विधि सचिव ने चन्द्रशेखर जी को चुपके से सूचना करवायी कि जेपी गिरफ्तार हो गये हैं। चंद्रशेखर जी तुरंत पार्लियामेंट स्ट्रीट थाने गये। जब वह जेपी से मिलकर बाहर निकल रहे थे, तब वहां के डीएसपी ने कहा कि सर, आप गिरफ्तार हो चुके हैं। कुछ कपड़े वगैरह लेना है तो आपके घर साथ चलता हूं। इसी तरह से बड़े- बड़े नेताओं की पूरे देशभर में गिरफ्तारियां हुर्इं। इंदिरा गांधी के संकेत पर जिस तरह से कांग्रेस की सरकारों ने पुलिस प्रशासन के साथ अंधेरगर्दी मचाई, उसे शब्दों में बयां करना मुश्किल है।
‘आपातकाल के कागजात पर राष्ट्रपति से रात में हस्ताक्षर करवा लीजिए। सुबह कैबिनेट में पारित कर इसकी घोषणा कर सकते हैं।’ -सिद्धार्थ शंकर
यह सिलसिला कई महीने तक चला। पांच-छह महीने बाद दूसरा चरण आया, जिसमें लोगों ने हिम्मत बटोरी और लगने लगा कि हमको तानाशाही से लड़ना है। लोग सत्याग्रह करने के लिए सड़क पर उतर आए। यह संघर्ष साल भर तक चलता रहा। उस समय चंडीगढ़ में जेपी की हत्या करने तक की कोशिश की गयी। जेपी 24 दिन तक सदमे में थे। 23 जुलाई को जेपी अपनी पहली जेल डायरी लिखते हैं- मेरी जो दुनिया बिखर गयी। मुझे इंदिरा गांधी से ये आशा नहीं थी। यानी दूसरा चरण संघर्ष का रहा और तीसरा चरण सफलता का रहा। 18 जनवरी, 1977 को प्रयागराज में कुंभ चल रहा था। रेडियो से सूचना आई कि लोकसभा का चुनाव होने जा रहा है।
इंदिरा गांधी चाहती थीं कि आपातकाल में चुनाव कराएंगे और जनता से अपने पक्ष में मुहर लगवा लेंगे। हमारी तानाशाही को जनता का समर्थन मिल जाएगा। 3 फरवरी, 1977 का दिन देश का स्वर्णिम दिन है, जब बाबू जगजीवन राम के साथ दो और वरिष्ठ नेताओं ने कांग्रेस छोड़ दी। इस सूचना मात्र से पूरे देश में एक लहर फैल गयी। इसके बाद जनता ने मान लिया कि हमको लड़ना है। उस समय पन्द्रह मिनट की सूचना पर पचास हजार की जनसभा होती थी। भारत के लोग चाहे जैसे भी हों परंतु दिमाग से लोकतांत्रिक होते हैं। इसका प्रमाण 1977 में भारत के लोगों ने दिया।
उस समय लोगों ने पैसा भी दिया और वोट भी दिया, अंतत: जनता पार्टी को सत्ता में बैठा दिया। इंदिरा गांधी को भी अपनी सीट पर पराजय का सामना करना पड़ा। इंदिरा गांधी लोकतांत्रिक नहीं थीं। इंदिरा गांधी और जवाहरलाल नेहरू तानाशाह थे, इसके सैकड़ों उदाहरण है। इंदिरा गांधी ने चुनाव की घोषणा इसलिए नहीं कि वह लोकतांत्रिक थीं, बल्कि हर तानाशाह अंदर से बहुत कमजोर होता है। इंदिरा अंदर से बहुत डरी हुई थीं। हकीकत में देखें तो इंदिरा गाधी के आने के बाद कांग्रेस पार्टी परिवार की पार्टी बनी।
जवाहरलाल नेहरू तक तो चुनाव होते रहे हैं। 1971 में इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद चुनाव नहीं हुआ। लोकतांत्रिक होने के कुछ पैमाने होते हैं। नरेन्द्र मोदी को कोई भी तानाशाह नहीं कहेगा। आज देखें तो नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री और भाजपा का अध्यक्ष भी हो सकते हैं, लेकिन ऐसा नहीं है। भाजपा में चुना हुआ एक अध्यक्ष है। यही लोकतंत्र का पैमाना है। इंदिरा गांधी के जमाने में संवाद नहीं होता था। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं थी। जबकि यही एक स्वस्थ लोकतंत्र की खूबी है।
जिन महात्मा गांधी एवं अन्य स्वतंत्रता सेनानियों ने भारत को लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने के लिए बलिदान दिया, उस अध्याय को इंदिरा गांधी ने आगे बढ़ाने के बजाय इतिहास में एक काला अध्याय जोड़ा। आपातकाल लगाया। तानाशाही थोपने की कोशिश की और जनता ने उसे नकारा। इंदिरा गांधी और उनका पूरा खानदान दिमागी तौर पर तानाशाह है, इसमें कोई संशय नहीं है।
लेखक इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के अध्यक्ष और देश के जाने-माने पत्रकार हैं।
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