पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनाव में लोकतंत्र की हत्या की गई। जहां नामांकन से लेकर मतदान तक करने की स्वीकृति न हो, कोई नामांकन नहीं कर पाए, निर्विरोध चुनने के लिए यत्न किए जाएं,
पश्चिम बंगाल में 2018 के पंचायत चुनाव में भीषण खून-खराबे पर चिंता जताते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था, ‘‘लोकतंत्र के सीने पर घाव देने वाले विषय पर सभी राजनीतिक दलों, नागरिक समाज और न्यायपालिका को ध्यान देना होगा। पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनाव में लोकतंत्र की हत्या की गई। जहां नामांकन से लेकर मतदान तक करने की स्वीकृति न हो, कोई नामांकन नहीं कर पाए, निर्विरोध चुनने के लिए यत्न किए जाएं, निर्दोष कार्यकर्ताओं की हत्या हो, और यह हिंसा सिर्फ भाजपा को ही नहीं, बल्कि वहां के शासक दल को छोड़कर सभी को मुश्किलें झेलनी पड़े तो लोकतंत्र के लिए यह चिंता का विषय है।’’ इससे पहले दो पूर्व प्रधानमंत्रियों, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने भी पश्चिम बंगाल पंचायत चुनावों में हिंसा-हत्या पर चिंता जताई थी।
राज्य में 2018 के पंचायत चुनाव में 50 से अधिक लोग हिंसा में मारे गए थे। तीन चरणों में संपन्न पंचायत चुनाव में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस ने 34 प्रतिशत सीटें बिना लड़े जीती थीं। पश्चिम बंगाल में 1978 में लागू पंचायती राज व्यवस्था के 40 वर्ष पूरे होने पर हुए पंचायत चुनाव में हिंसा और धांधली वोटों के खूनी लूटतंत्र का प्रत्यक्ष प्रमाण है। चुनाव के दौरान तृणमूल के गुंडों ने सरेआम विरोधी दलों के कार्यकर्ताओं, महिलाओं और बच्चों पर हमले किए। घरों पर बमबाजी, आगजनी और लूटपाट की। कानूनी लड़ाई के बावजूद ममता बनर्जी ने मनमाना तरीके से एक ही चरण में चुनाव कराया। 14 मई को मतदान के दिन 20 लोगों की हत्या हुई। भाजपा ने चुनाव के दौरान अपने 52 कार्यकर्ताओं की हत्या होने की बात कही। वहीं, केंद्रीय गृह मंत्रालय के अनुसार, राज्य में 2018 में राजनीतिक कारणों से 96 हत्या हुई।
पंचायत चुनाव
1983- 45 दिन चली चुनाव प्रक्रिया, 250 से अधिक हिंसक घटनाओं में 32 लोग मारे गए।
1988- मतदान पूर्व और बाद में हुई हिंसा में 23 लोग मरे। हिंसा में हजारों लोग बेघर हो गए थे।
1993- चुनावी हिंसा में 35 लोग मारे गए थे। मामला सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचा था।
1998- भाजपा-तृणमूल कांग्रेस ने मिलकर चुनाव लड़ा। हिंसा में 40 से ज्यादा लोग मारे गए। माकपा के गुंडों ने बासंती में आरएसपी के पांच कार्यकर्ताओं को जिंदा जलाया, दो के हाथ काटे और 150 घर फूंक दिए।
2003- भारी खून-खराबे के बीच वाममोर्चा 6800 सीटों पर निर्विरोध जीती। हिंसा में 76 लोग मरे।
2008- चुनावी हिंसा में 42 लोगों की हत्या, 300 से अधिक घायल हुए।
2013- हिंसा में 22 लोग मारे गए। तृणमूल ने 10.66 प्रतिशत सीटों पर निर्विरोध जीत हासिल की।
इस बार एक चरण में पंचायत चुनाव की घोषणा होते ही चारों तरफ हिंसा शुरू हो गई है। नामांकन के दौरान हिंसक झड़पें हो रही हैं। तृणमूल कार्यकर्ताओं ने मुर्शिदाबाद में कांग्रेस नेता की हत्या कर दी। जलपाईगुड़ी में पसंदीदा उम्मीदवार का समर्थन न करने पर एक बेटे ने अपनी मां को काट डाला। सुरक्षा की मांग को लेकर भाजपा और कांग्रेस ने कलकत्ता उच्च न्यायालय में गुहार लगाई है।
1977 में राज्य की सत्ता से कांग्रेस के बाहर होने के बाद माकपा नीत वाममोर्चा सरकार में पहली बार 4 जून, 1978 में हुए पंचायत चुनाव कराए गए थे। एक महीना चले चुनाव प्रचार के दौरान हिंसा की 31 बड़ी घटनाएं हुई थीं और मतदान के दिन हिंसा में चार लोग मारे गए थे। हिंसा के बावजूद 70 प्रतिशत मतदान हुआ था। देश में यह पहला अवसर था जब राज्य के ढाई करोड़ से अधिक मतदाताओं ने दलीय आधार पर जिला पंचायत, पंचायत समितियों और ग्राम पंचायतों के 56 हजार प्रतिनिधि चुनने के लिए वोट डाले थे। माकपा ने चुनाव के दौरान पंचायतों के माध्यम से प्राथमिक स्कूल चलाने, बैंकों से छोटे किसानों को कर्ज दिलाने और प्रत्येक पंचायत को विकास कार्य के लिए 50 हजार रुपये देने का वादा किया था। तब उम्मीदवारों को लगा था कि पंचायत गठन के बाद उन्हें हर समस्या को लेकर जिला मुख्यालय नहीं जाना पड़ेगा। लेकिन चुनाव बाद ही यह साफ हो गया था कि विकास योजना बनाने और इसके क्रियान्वयन में गांव वालों की कोई भूमिका नहीं होगी। 1978 के बाद माकपा ने पंचायतों में अपने दो लाख से अधिक कार्यकर्ताओं को नौकरी दी और उनके बल पर ही 34 वर्षों तक राज्य में शासन किया।
माकपा के 1978 से 1988 तक के शुरुआती 10 वर्ष के आतंक राज से वाममोर्चा के घटक दल ही छटपटाने लगे थे। माकपा राज में पंचायतें फंड ठिकाने लगाने का बड़ा केंद्र बन गईथीं।
यहीं से पश्चिम बंगाल में हिंसा के माध्यम से सत्ता पर पकड़ बनाने और वामदलों द्वारा कैडर भर्ती अभियान शुरू हुआ। माकपा ने वाममोर्चा में शामिल आरएसपी और फारवर्ड ब्लॉक को भी जनाधार बढ़ाने का मौका नहीं दिया। माकपा के 1978 से 1988 तक के शुरुआती 10 वर्ष के आतंक राज से वाममोर्चा के घटक दल ही छटपटाने लगे थे। माकपा राज में पंचायतें फंड ठिकाने लगाने का बड़ा केंद्र बन गईथीं। 1983 में दूसरे पंचायत चुनाव में कांग्रेस ने राज्य सरकार पर ग्रामीण योजनाओं के लिए आवंटित 900 करोड़ रुपये का हिसाब नहीं देने का आरोप लगाया था। दरअसल, दूसरे पंचायत चुनाव से ही राज्य के मतदाताओं को पंचायती राज के लाभ से अधिक अपने जान-माल की चिंता सताने लगी थी।
ग्रामीणों का मानना था कि पंचायतों के पैसे से अवैध हथियार खरीदे जाते थे। ग्राम पंचायतों में पैसे का हिसाब-किताब नहीं दिया जाता था। अखबारों में छपी खबरों के अनुसार, माकपा राज में ग्राम पंचायतों में विकास कार्य नहीं किए जाते थे। पंचायती राज व्यवस्था शुरू होने के दो साल में पंचायत के कामकाज पर सवाल उठाने पर 15 लोगों की हत्या कर दी गई थी। इस कारण चुनाव में कोई पंचायतों के कामों का विरोध नहीं करता था। जिला परिषद, पंचायत समितियों और ग्राम पंचायतों में भ्रष्टाचार का आलम यह था कि ग्रामीण यह मान बैठे थे कि पंचायत चुनाव में फैसला बैलेट पेपर से नहीं, बुलेट से होगा।
माकपा राज में पंचायत चुनाव में धांधली, हिंसा, हत्या, लूटपाट और आगजनी का जो दौर शुरू हुआ, वह अब तक बरकरार है। 2011 में ममता बनर्जी के मुख्यमंत्री बनने के बाद सत्ता तो बदली, लेकिन उसका रक्तरंजित चरित्र नहीं बदला। इनके शासनकाल में भी चुनावों में मतदान से पहले और बाद में हिंसा, हत्या, लूटपाट और आगजनी होती है। राज्य में बम धमाकों और गोलीबारी के बीच मतदान होते हैं। भय के कारण लोग पलायन करते हैं। वास्तव में पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ दलों के लिए पंचायत चुनाव लूट और जनाधार बनाने का बड़ा माध्यम बन गया है। यही ममता बनर्जी कांग्रेस में रहते हुए और अपनी पार्टी बनाने के बाद हर चुनाव केंद्रीय बलों की सुरक्षा में कराने की मांग करती थीं।
पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ दलों के लिए पंचायत चुनाव लूट और जनाधार बनाने का बड़ा माध्यम बन गया है। ममता बनर्जी पंचायत चुनाव में हिंसा और हत्या के विरुद्ध आवाज उठाती थीं, पर सत्ता में आने के बाद वही कर रही हैं, जो कम्युनिस्टों ने किया था।
2003 के पंचायत चुनाव में बड़े पैमाने पर धांधली और हिंसा के विरोध में उन्होंने राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग भी की थी। लेकिन सत्ता में आने के बाद ममता भी वही कर रही हैं, जो कम्युनिस्टों ने किया था। राज्य के तत्कालीन राज्यपाल (अब उपराष्ट्रपति) जगदीप धनखड़ ने कई अवसरों पर कहा था कि पश्चिम बंगाल में कानून का शासन नहीं, बल्कि तानाशाही है। शासक के कानून के कारण नौकरशाही और पुलिस स्वतंत्र रूप से काम नहीं कर पा रही है। इसी तरह, 2021 के विधानसभा चुनाव के बाद हुई हिंसा पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने कलकत्ता उच्च न्यायालय को सौंपी अंतिम जांच रिपोर्ट में कहा था कि राज्य में ‘कानून का राज’ नहीं है, बल्कि यहां ‘शासक का कानून’ चल रहा है।
दूसरी ओर, जिस वाममोर्चा की सरकार पर कांग्रेस अपने कार्यकर्ताओं-नेताओं की हत्या के आरोप लगाती थी, आज उसी के साथ गठबंधन में है। जब प्रियरंजन दास मुंशी प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष थे, तब उन्होंने 1978 से 1988 के बीच एक हजार से अधिक कांग्रेसियों की हत्या के आरोप लगाए थे। माकपा नेताओं और कार्यकर्ताओं द्वारा कांग्रेसियों की हत्या पर तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 1989 में कहा था कि राज्य में लोगों की जान खतरे में है। विधानसभा भी राजनीतिक हिंसा से अछूती नहीं रही। दरअसल, 1990 के बाद कांग्रेस केंद्र में कमजोर होती गई, जिसका फायदा वाममोर्चा ने उठाया। 1998 में ममता बनर्जी द्वारा नई पार्टी बनाने के बाद राज्य में भी कांग्रेस कमजोर होती गई। बाद के वर्षों में ममता बनर्जी के सत्ता में आने पर वामदल भी हाशिये पर चले गए। अब दोनों मिलकर भी तृणमूल कांग्रेस के आतंकराज का जोरदार विरोध नहीं कर पा रहे हैं, जबकि 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले होने वाले इस पंचायत चुनाव में हिंसा बड़ा मुद्दा है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और पश्चिम बंगाल की राजनीतिक हिंसा पर चार पुस्तकें प्रकाशित हुई है।)
टिप्पणियाँ