दिल्ली में एक अल्पवयस्क बालिका की जिस प्रकार सरेआम चाकू से गोदकर हत्या की गई, वह हतप्रभ करने वाली घटना है। हालांकि इस तरह की बहुत सारी अन्य घटनाएं हैं, जिनमें कथित लव जिहाद में मोहरा या शिकार बनी बालिकाओं-महिलाओं को टुकड़े-टुकड़े करके रेफ्रिजरेटर में, सूटकेस में, प्लास्टिक की थैलियों में भरा गया है। इन्हें अपराध की एक अन्य घटना मानना संभव नहीं होगा। यह एक चलन है और काफी लंबे समय से बना हुआ है।
यह समाचार कभी पुराना नहीं पड़ सकता। दिल्ली में एक अल्पवयस्क बालिका की जिस प्रकार सरेआम चाकू से गोदकर हत्या की गई, वह हतप्रभ करने वाली घटना है। हालांकि इस तरह की बहुत सारी अन्य घटनाएं हैं, जिनमें कथित लव जिहाद में मोहरा या शिकार बनी बालिकाओं-महिलाओं को टुकड़े-टुकड़े करके रेफ्रिजरेटर में, सूटकेस में, प्लास्टिक की थैलियों में भरा गया है। इन्हें अपराध की एक अन्य घटना मानना संभव नहीं होगा। यह एक चलन है और काफी लंबे समय से बना हुआ है।
नया सिर्फ यह है कि संचार और समाचार के विभिन्न माध्यमों के आम जन के स्तर पर विकेंद्रीकरण ने अब इन घटनाओं को लोगों के सामने ला दिया है। इस तरह की वारदातों के प्रति जिस तरह की जनप्रतिक्रिया सामने आई है, जो जन आक्रोश है, वह इस मांग की पुष्टि करता है कि ऐसी सारी घटनाओं को एक साथ रख कर समझा जाए और उनके प्रतिकार के उपाय किए जाएं। यह स्पष्ट है कि मात्र कानून या कानून का भय (?) ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकने में सक्षम नहीं है।
यह राजनीतिक अवसरवादिता नहीं, अपने आप में एक अपराध है। एक बार दिल्ली की म्युनिसिपल सरकार जिम्मेदार होती है, दूसरी बार कोई जिम्मेदार नहीं होता है, तीसरी बार जब जेल में हत्या होती है, जहां मंत्रियों की तेल मालिश की व्यवस्था की गई होती है, तब फिर कोई जिम्मेदार नहीं होता है। चौथी बार निर्भया जैसे वीभत्स कांड पर सारा दोष उपराज्यपाल के मत्थे मढ़ने की कोशिश होती है। पांचवीं बार फिर चुप्पी साध ली जाती है।
इसे लव जिहाद की श्रेणी में रखना पर्याप्त नहीं होगा। सिर्फ राजनीतिक व्यावहारिकता के भय से इसके हिंसात्मक पहलू की बारीक मीमांसा करने से आखिर कब तक बचा जाएगा? अगर घुट्टी में पिलाई गई यह हिंसा और वीभत्सता किसी को भी सहज लगती है, तो वह निश्चित रूप से समाज का शत्रु है और उसके साथ शत्रुवत् व्यवहार ही किया जाना चाहिए। अपराध के इस वैचारिक पक्ष पर किसी संदिग्ध की भांति नजर रखी जानी चाहिए। विडंबना यह है कि राजनीतिक लाभ की खातिर इस वैचारिक पक्ष की पुष्टि और तुष्टि की जाती रही है। अब दिल्ली को ही देखें, जहां अपराध या तो राजनीतिक रोटियां सेेंकने का माध्यम होता है या अपराधियों के साथ खड़े दिखाई देने का एक बहाना।
जिस निर्भया कांड को लेकर दिल्ली में एक बड़ा राजनीतिक उफान आया था, और जिसके लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री को ऐसे जिम्मेदार ठहराया गया था, जैसे उन्होंने व्यक्तिगत तौर पर यह सब होने दिया हो, दिल्ली का वही राजनीतिक दल उसी निर्भया कांड के अभियुक्त को नाबालिग ठहराने से लेकर उसके पुनर्वास तक में सहभागी था। फिर उसी सरकार के तहत आने वाले दिल्ली के जीबी पंत अस्पताल की घटना में प्राण गंवाने वाली महिला का मामला तो निर्भया कांड से किसी तरह कम वीभत्स नहीं था। दिल्ली सरकार ने उसके परिवार की ओर झांकने भी जरूरत तक नहीं समझी। क्यों? क्या इसलिए कि इसका कोई वीडियो फुटेज नहीं था? या इसलिए कि वह पीड़िता जाटव समाज की थी? उतनी हाई-प्रोफाइल नहीं थी?
यह राजनीतिक अवसरवादिता नहीं, अपने आप में एक अपराध है। एक बार दिल्ली की म्युनिसिपल सरकार जिम्मेदार होती है, दूसरी बार कोई जिम्मेदार नहीं होता है, तीसरी बार जब जेल में हत्या होती है, जहां मंत्रियों की तेल मालिश की व्यवस्था की गई होती है, तब फिर कोई जिम्मेदार नहीं होता है। चौथी बार निर्भया जैसे वीभत्स कांड पर सारा दोष उपराज्यपाल के मत्थे मढ़ने की कोशिश होती है। पांचवीं बार फिर चुप्पी साध ली जाती है। यह वास्तव में एक अपराध को, उसके पीछे के मनोविज्ञान को, उसके पीछे की सामाजिक संरक्षण की स्थितियों और उसके आतंक को प्रोत्साहन और संरक्षण देने का काम है। समस्या की जड़ यही है।
अगर जबलपुर कांड के समय (1961) से ही, जो एक हिंदू लड़की के साथ गैंगरेप के बाद उसे आत्महत्या की ओर धकेलने का स्वतंत्रता के बाद का संभवत: प्रथम ज्ञात प्रकरण था, यह समझा गया होता कि बलात्कार करना और हत्याएं करना किसी का मौलिक अधिकार नहीं हो सकता, तो शायद इन अपराधों की निरंतरता पर नियंत्रण रखना सरल होता। लेकिन राजनीतिक तुष्टीकरण के नाम पर हत्यारों को संरक्षण किया जाने लगा। किसी समुदाय का वोट बैंक होने का ‘गुण’ उसे कोई आपराधिक या राजनैतिक आम माफी या कानून से इम्यूनिटी नहीं दे सकता। वास्तव में हम इस तरह की दर्जनों विडंबनाओं के साथ चलते आ रहे हैं। हम आगे बढ़े हैं, लेकिन इस प्रकार की विडंबनाएं देश के लिए अवरोध का काम कर रही हैं। जो व्यक्ति अपने प्राणों से हाथ धो चुका है, कम से कम उसके जीवन के प्रति सम्मान की दृष्टि से ही सही, इन अवरोधों को समाप्त करने की दिशा में विचार किया जाना चाहिए। आखिर यह अस्तित्व रक्षा का प्रश्न है।
@hiteshshankar
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