बड़कोट । सन 1804 में गोरखाओं से युद्ध करते हुये गढ़वाल के राजा प्रद्युम्न शाह बलिदान हो गये। किशोर अवस्था के युवराज सुदर्शन शाह ने किसी तरह गोरखाओं से जान बचाकर मुरादाबाद की तरफ शरण ली। कई वर्षो बाद आगरा में अंग्रेजों से मित्रता कर गोरखाओं से गढ़वाल राज्य वापस पाने के लिये सुदर्शन शाह ने एक करार किया। जिसमें अंग्रेजों को युद्ध का हर्जाना खर्च देकर राज्य वापस पाने की शर्तों पर दोनों की आम सहमति बनी।
गोरखाओं को युद्ध में परास्त करने के बाद अंग्रेजों ने सुदर्शन शाह से युद्ध का खर्च पांच लाख रूपये मांगा। लंबे समय से दर-दर भटक रहे सुदर्शन शाह के लिए यह धनराशि दे पाना मुमकिन ना था। अंततः इस बात पर सहमति बनी की गढ़वाल राज्य का मनचाहा हिस्सा अंग्रेजों को देकर पुनः नये गढ़वाल राज्य की स्थापना करी जाये। इस समझौते को इतिहास में सिंगोली की संधि के अंतर्गत विस्तार से पढ़ा जा सकता हैं।
अंग्रेजों ने बहुत चालाकी से गढ़वाल के बड़े व्यावसायिक एवं समृद्ध हिस्से को अपने कब्जे में ले लिया। जिसमें पौड़ी, चमोली और देहरादून का चकराता तक बड़ा भूभाग था, जो ब्रिटिश गढ़वाल कहलाया। बाकी बचा टिहरी और उत्तरकाशी का भूभाग टिहरी रियासत के रूप में पुनः गठित हुआ।
इस बंटवारे में बड़ी तादात में ब्रिटिश गढ़वाल के स्थानीय लोगों ने सुदर्शन शाह के साथ टिहरी रियासत में पलायन किया। पांच हजार रूपये में पुरानी टिहरी में महल एवं आवश्यक भवन निर्माण कर राजधानी के रूप में बसाया गया। लेकिन राजस्व के सीमित संसाधनों के कारण टिहरी नरेश अभी भी एक गरीब राजा थे।
ब्रिटिश फौज का पूर्व सैनिक और शिकारी फ्रेड्रिक विलसन एक दिन घूमते-फिरते टिहरी पंहुचा। यह सूचना पाकर राजा भयभीत हुऐ लेकिन वार्तालाप से पता चला की वह राजा से जंगल में शिकार करने अनुमति चाहता है। बदले में राजा को उसने एडवांस में अच्छी धनराशि भेंट करी। राजा को सौदा ठीक लगा। शिकारी विल्सन ने बेतहाशा हिमालयी मोर प्रजाति के मोनाल पंछीयों का शिकार किया। जिसके सर पर उगे खूबसूरत पंखों को विल्सन लंदन जाकर ऊंचे दामों में बेच आता। लंदन सहित समस्त यरोप में मोनाल के इन पंखों को अमीर महिलाओं के हैट पर सजाने का फैशन था।
अच्छी धनराशि कमाने के बाद विल्सन ने टिहरी राजा से देवदार के जंगल काटने और बेचने की अनुमति मांगी और लाभ में राजा की हिस्सेदारी का प्रस्ताव भी रखा। राजा को कमाई के ये नये प्रस्ताव पसंद आये और विल्सन को हर्सिल उत्तरकाशी के पूरे जंगल का अधिपत्य दे दिया गया। विलसन देवदार के अनगिनत पेड़ काटता रहा और उन्हें गंगा नदी में बहा कर मैदानी क्षेत्रों से वाहनों में भरकर सड़कों से समुद्रतट तक ले जाता। जहां से बड़े जहाजों से जलमार्ग द्वारा उन्हें लंदन में बेच आता। ये भी सुनने को मिलता है की तब का आधे लंदन शहर के भवन हर्सिल की लकड़ी से बने थे। बड़े खेल का बड़ा मुनाफा। टिहरी के राजा और विल्सन दोनों ही इस धंधे में आर्थिक रूप से बहुत मजबूत हो गये थे।
सन 1857 की क्रान्ति के बाद अंग्रेजों ने देशभर में रेल पटरी का विस्तार किया। जिसके लिए उन्हें ऐसी लकड़ी चाहिए थी जो बरसात में पानी से खराब ना हो। तब तक विल्सन की ख्याति लकड़ व्यवसायी के रूप में पूरे लंदन तक फैल चुकी थी। रेल पटरी हेतु देवदारू लकड़ी की आपूर्ति का ठेका विल्सन को दिया गया। विलसन ने टिहरी नरेश को भी बड़ा हिस्सा देकर इस काम के लिए राजी कर दिया। अब टिहरी का गरीब राजा धन संपन्नता से महाराजाओं में गिने जाने लगा। टिहरी के राजकुमार तब के आधुनिक विश्वविद्यालयों में पढ़ने के लिये विदेशों में जाने लगे। जहां उन्हें अनेक भौतिकवादी आदतों में मोटरगाड़ी चलाने का भी शौक चढ़ा।
इसी मोटरगाड़ी का शौक राजा नरेंद्र शाह को पागल कर गया। पहले वह विदेश से एक गाड़ी के कल पुर्जे खोल कर टिहरी लाया जिसे जोड़कर वह मोटरगाड़ी पर सवार होकर पुराना दरबार से आजाद मैदान की तरफ सड़कों पर दनदनाता और गरीब जनता को अपना रौब दिखाता। लेकिन नरेंद्र शाह के मन को इससे शांति नहीं मिली। इसलिए उसने ऋषिकेष के समीप “अड़ाथली का डांडा” में नये महल का निर्माण कराया। जहां से नजदीकी सड़क बनाकर वह ऋषिकेष स्थिति मुख्य सड़क मार्ग से जुड़ कर मोटरगाड़ी में खूब सैर-सपाटा कर पाता।
इस मोटरगाड़ी की सनक ने अड़ाथली के डांडे में नरेंद्र नगर का आलिशान महल बनवाया जिसकी लागत की भरपाई के लिये टिहरी की जनता पर प्रताड़ित करने वाले टैक्स लगाये गये जिसके परिणामस्वरूप सन 1930 में बड़कोट गांव में तिलाडी गोलीकांड घटित हुआ। रंवाई के किसानों और रण बाकुरों का यह विद्रोह टिहरी राजशाही के खिलाफ पहला स्वतंत्रता का आंदोलन बना। जो रंवाई घाटी की “आजाद पंचायत” संगठन के नेतृत्व में आम जनता द्वारा लड़ा गया।
तिलाड़ी का जन आंदोलन 1927 के अंग्रेज़ी हुकुमत के वन कानून के विरोध में नहीं था। अपितु नरेंद्र नगर में टिहरी नरेश के आलिशान महल के निर्माण में हुऐ फिजूल खर्ची को वसूल करने के लिये बनाये गये काले वन कानूनों के विरोध में राज सत्ता के खिलाफ सीधी बगावत थी।
तत्कालीन समय में उन सभी फसलों पर टिहरी रियासत ने कर लगाया था जिनमें ऊपरी सिरे पर फसल होती थी। जैसे, धान, गेहूं, झंगौरा, आदि। किंतु किसानों ने इससे बचने के लिये ऐसी फसलों को बोना शुरू कर दिया जिनके तने में उपज होती थी, जैसे मक्का की खेती, किंतु राजा ने पुनः इन पर भी टैक्स लगा दिया, फिर किसानों ने ऐसी फसल उगाई जो जमीन के अंदर फ़सल पैदा करती थी, अंततः राजा ने हर प्रकार की उपज पर टैक्स लागू कर दिया।
जब टिहरी नरेश का इससे भी मन ना भरा तो उसने जंगल में पशुओं के चरान चुगान कराने पर “पूछ कर” लगाया, जिसका आशय पूंछ वाले पशु के वन सिमा पर घुसने पर लगने वाले टैक्स से था, साथ ही राजा के आदेश पर वन सिमा का निर्धारण करने वाले “मुनारे”(pillars) को गांव की सिमा तक सटा दिया था जो एक तरह से टैक्स को एक जोर जबरदस्ती का उत्पीड़न भरा अत्याचार बना रहा था।
इसके विरोध में रंवाई जौनपुर के किसानों का शिष्टमंडल नरेंद्र नगर राजा से मिलने गया, जहां टिहरी नरेश ने किसानों के शिष्टमंडल का अपमान कर यह कह कर लौटा दिया की “टैक्स नहीं दे सकते हो तो अपने पशुओं को ढंगार में फैंक दो” मेहनतकश पशुपालक और कृषि समाज का ये बड़ा अपमान था, अंततोगत्वा टिहरी रियासत के खिलाफ कंसेरू गांव के दयाराम रंवाल्टा जी के नेतृत्व में “आजाद पंचायत” का गठन कर पहला जन आंदोलन का बिगुल चांदडोखरी नामक स्थान पर हुआ।
बातचीत के लिये जनता के चहेते टिहरी रियासत के पूर्व दिवान हरी कृष्ण रतूडी को बड़कोट राजगढ़ी भेजा गया लेकिन शांति वार्ता विफल रही।
अंततः टिहरी रियासत के जासूसों की सूचना पर धोखे से रंवाई के आंदोलनकारियों को टिहरी कौंसिल से वार्ता के नाम पर डीएफओ पदमदत्त रतूडी और एसडीएम राजगढ़ी सुरेन्द्र दत्त नौटियाल द्वारा बंधक बनाकर लाया जा रहा था। जिसमें एक क्रांतिकारी को टिहरी रियासत के सुरक्षा अधिकारियों द्वारा राड़ी के जंगल में गोली मार दी गयी। जिससे संपूर्ण रंवाई घाटी में उग्र आंदोलन की ज्वाला फैल गयी। जिसके अगले क्रम में दयाराम जी के नेतृत्व में बड़े आंदोलन की रूप रेखा के लिये यमुना तट तिलाड़ी मैदान मे एक बड़ी जनसभा की बैठक आहूत की गयी, जिसकी भनक टिहरी रियासत को लगी और आंदोलन का दमन करने के लिये तत्कालीन रियासत के चीफ सेक्रेटरी चक्रधर जुयाल स्वयं बडकोट गया। जहां उसने शाही फौज की टुकड़ी के साथ शांति पूर्ण जनसभा कर रहे निहत्थे हजारों लोगों पर गोलियां चला दी, अपनी जान बचाने के लियें अनेक लोग यमुना नदी में कूदे और काल के ग्रास बनें। कहते हैं उस दिन निहत्थे और निर्दोष लोगों के खून से यमुना का नीला पानी भी लाल हो गया था।
जिंदा बचे लोगों को गिरफ्तार किया गया। टिहरी रियासत के दीवान चक्रधर जुयाल के आदेश पर लोगों पर मुकदमे हुऐ तथा उनको जेल में डाला गया अनेकों के घर की निलामी कर दी गयी, ये आंदोलन इतिहास के पन्नों पर अमर हो गया और तिलाड़ी का वो मैदान हिमालय का जलिंयावाला बाग की तर्ज़ पर एक शहीद स्थल के रूप में पूज्य हो गया।
ये आंदोलन वनों पर हिमालयी समाज के हक हकूक की लड़ाई का प्रतीक बना, जो वन विभाग के साथ टकराव के रूप में यहाँ आज भी देखने को मिल जाता है। आज भी वनों पर हक़ हकूक की वो लडाई पूरे राज्य में जस की तस बनी हुई है, जलावन की लकड़ी से लेकर भवन निर्माण के लिये इमारती लकड़ी तथा घास चारे पत्ती के लिये पहाड़ के बाशिंदों पर प्रतिबंध है, समय रहते सरकारें इसका महत्व नहीं समझी तो ये सुलगते पहाड़ एक बड़े जन आंदोलन के लिये किसी दयाराम रंवाल्टा जैसे नेतृत्व के इंतजार में एकजुट होकर अपने अस्तित्व को बचाने के लिये निर्णायक लड़ाई लड़ने को मजबूर हो जायेगा।
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