हाल ही में दिल्ली विश्वविद्यालय की एकेडमिक काउंसिल द्वारा अल्लामा इकबाल पर लिखे अध्याय को पाठ्यक्रम से बाहर निकालने की अनुशंसा की गयी है। जाहिर है कि इसे लेकर मीडिया भी अपने असली रूप में आ गया है, कि उन्होंने सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तान हमारा लिखा था। यह हर कोई बताता है कि उन्होंने यह पंक्तियाँ लिखीं थीं, मगर वही मीडिया यह नहीं बताता कि अल्लामा इकबाल को ही पाकिस्तान के वैचारिक अब्बा होने का श्रेय जाता है।
यह अल्लामा इकबाल के पॉलिटिकल थॉट ही थे, जिन्होंने भारत को विभाजन का इतना बड़ा जख्म दिया था। यह अल्लामा इकबाल ही थे जिन्होंने पाकिस्तान को विचारों में जागृत किया था। यह इकबाल ही थे जिन्होंने भारतीय मुसलमानों की पहचान को अरब से जोड़कर उन्हें वैचारिक रूप से उन हिन्दुओं से अलग किया था, जो कुछ पीढ़ी तक आपस में भाई ही थे।
वैसे तो उनकी नज्मों से उनके पॉलिटिकल थॉट पता चलते रहते हैं, परन्तु मुस्लिम लीग के अधिवेशन में उनके दिए एक भाषण से उनके यह विचार और स्पष्ट होते हैं। इसमें उन्होंने भारत के भीतर एक मुस्लिम भारत बनाने की मांग का समर्थन किया था और उन्होंने पंजाब, उत्तरी-पश्चिमी फ्रंटियर क्षेत्र, सिंध, बलूचिस्तान को मिलाकर राज्य बनाने की बात की थी, जिसमें या तो ब्रिटिश राज्य के भीतर या ब्रिटिश राज्य के बिना सेल्फ-गवर्नेंस होगी। अर्थात मुस्लिमों का शासन होगा। उन्होंने इस भाषण में इस्लाम को राज्य बताते हुए यह कहा था कि भारत के मुस्लिम शेष मुस्लिम देशों से अलग हैं। उन्होंने कहा था
“न ही मुस्लिम नेताओं और राजनेताओं अपने आप को यह झूठी दिलासा देनी चाहिए कि तुर्की और फारस और अन्य मुस्लिम देश राष्ट्रीय, यानी क्षेत्रीय, रेखाओं पर प्रगति कर रहे हैं। भारत के मुसलमानों की स्थिति भिन्न है। भारत के बाहर इस्लाम के देश व्यावहारिक रूप से पूरी तरह से मुस्लिम देश हैं। वहां के अल्पसंख्यक, कुरान की भाषा में, ‘किताब के लोगों’ के हैं। मुसलमानों और ‘किताब के लोगों’ के बीच कोई सामाजिक बाधाएँ नहीं हैं। एक यहूदी या एक ईसाई या एक पारसी किसी मुसलमान के भोजन को छूने से उसे प्रदूषित नहीं करता है, और इस्लाम का कानून ‘किताब के लोगों’ के साथ अंतर्जातीय विवाह की अनुमति देता है। वास्तव में मानवता के एक अंतिम संयोजन की प्राप्ति की दिशा में इस्लाम ने जो पहला व्यावहारिक कदम उठाया, वह व्यावहारिक रूप से समान नैतिक आदर्श रखने वाले लोगों को आगे आने और एकजुट होने का आह्वान करना था। कुरान घोषित करता है: “हे किताब के लोगों! आओ, हम ‘शब्द’ (ईश्वर की एकता) पर एक साथ मिलें, जो हम सभी के लिए सामान्य है।” इस्लाम और ईसाई धर्म के युद्ध, और बाद में, अपने विभिन्न रूपों में यूरोपीय आक्रमण, इस आयत के अनंत अर्थ को इस्लाम की दुनिया में काम करने की अनुमति नहीं दे सके। आज यह धीरे-धीरे इस्लाम के देशों में उस रूप में साकार हो रहा है जिसे मुस्लिम राष्ट्रवाद कहा जाता है।
http://www.columbia.edu/itc/mealac/pritchett/00islamlinks/txt_iqbal_1930.html#03
यह उनका मुस्लिमों की और किताबियों की एकता पर भाषण था। परन्तु यह तो तब भी केवल भाषण था और वह भी 1930 में दिया गया, परन्तु वर्ष 1909 में वह अपनी चर्चित नज़्म शिकवा में मुस्लिमों के स्वर्ण युग को याद करके ऊपर वाले से शिकवा कर चुके थे कि
क्यूँ ज़ियाँ-कार बनूँ सूद-फ़रामोश रहूँ
फ़िक्र-ए-फ़र्दा न करूँ महव-ए-ग़म-ए-दोश रहूँ
नाले बुलबुल के सुनूँ और हमा-तन गोश रहूँ
हम-नवा मैं भी कोई गुल हूँ कि ख़ामोश रहूँ
जुरअत-आमोज़ मिरी ताब-ए-सुख़न है मुझ को
शिकवा अल्लाह से ख़ाकम-ब-दहन है मुझ को
मगर उन्हें शिकवा था किस बात का? यही नज़्म उनके पॉलिटिकल थॉट को पूरी तरह से दिखाती है, कि जिसमें वह कह रहे हैं कि किस प्रकार पूरी दुनिया पर यूनानी, ईरानी आदि थे और उन्हें मिटाकर अल्लाह का नाम किसने किया? वह इसमें आगे लिखते हैं
इसी मामूरे में आबाद थे यूनानी भी
इसी दुनिया में यहूदी भी थे नसरानी भी
पर तिरे नाम पे तलवार उठाई किस ने
बात जो बिगड़ी हुई थी वो बनाई किस ने
अल्लाह से उनका शिकवा यहीं नहीं रुका है, वह इससे आगे आकर और भी लिखते हैं
तू ही कह दे कि उखाड़ा दर-ए-ख़ैबर किस ने
शहर क़ैसर का जो था उस को किया सर किस ने
तोड़े मख़्लूक़ ख़ुदावंदों के पैकर किस ने
काट कर रख दिए कुफ़्फ़ार के लश्कर किस ने
किस ने ठंडा किया आतिश-कदा-ए-ईराँ को
किस ने फिर ज़िंदा किया तज़्किरा-ए-यज़्दाँ को
इसके बाद वह और लिखते हैं कि जहां अल्लाह के नाम पर जो भी किया, मुसलमानों ने किया, वहीं आज ऐशो आराम उनके हाथ में है, जो अल्लाह को मानते नहीं हैं। वह लिखते हैं कि
रहमतें हैं तिरी अग़्यार के काशानों पर
बर्क़ गिरती है तो बेचारे मुसलमानों पर
बुत सनम-ख़ानों में कहते हैं मुसलमान गए
है ख़ुशी उन को कि का’बे के निगहबान गए
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क़हर तो ये है कि काफ़िर को मिलें हूर ओ क़ुसूर
और बेचारे मुसलमाँ को फ़क़त वादा-ए-हूर
वैसे तो उनकी और भी नज्मों को पढ़ा जाना चाहिए, परन्तु उनकी यह नज़्म उनके पॉलिटिकल थॉट को सबसे बेहतर रूप से दिखाती है क्योंकि इसमें वह अल्लाह से तमाम इस बात को लेकर शिकवा करते हैं कि जिस ऐशो आराम पर मुसलमान का अधिकार था, वह गैर मुस्लिमों के पास क्यों है? जहां भारत का लोक “सर्वे भवन्तु सुखिन:” के आधार पर संचालित होता है, तो वहीं इकबाल की यह नज़्म शिकवा कर रही है कि आखिर मुस्लिमों के पास केवल वादा ए हूर क्यों है? अल्लाह के प्रति शिकवा दिखाते दिखाते वह अंत में जहां पहुँचते हैं, वह उनके पॉलिटिकल थॉट को पूर्ण रूप प्रदान करती है, जिसमें वह भारतीय मुस्लिमों को अरबी मूल के साथ जोड़ते हैं। वह लिखते हैं
अजमी ख़ुम है तो क्या, मय तो हिजाज़ी है मेरी।
नग़मा हिन्दी है तो क्या, लय तो हिजाज़ी है मेरी।
अब इसका अर्थ है कि अजमी अर्थात अरब का न रहने वाला, खुम: शराब रखने का घड़ा, मय: शराब, अर्थात मय का अर्थ शराब तो है ही, परन्तु इसकी जो प्रकृति है वह अरबी है। और फिर है हिजाजी: इसका अर्थ है, हिजाज का निवासी, हिजाज सऊदी अरब का प्रांत है, हिजाजी का अर्थ है ईरानी संगीत में एक राग!
वह कह रहे हैं कि मैं अरब का रहने वाला नहीं हूँ, मगर मेरी मय अर्थात अपने स्वभाव से तो हिजाजी ही हूँ, मैं नगमा जरूर हिन्दी (हिन्दुस्तान) का हूँ, मगर मेरी लय तो हिजाजी ही है! इकबाल की सारे जहां से अच्छा नज़्म की बात सभी करते हैं, मगर उनकी तराना ए मिल्ली को पढ़ना चाहिए, जिसमें उनके पॉलिटिकल थॉट हैं। वह लिखते हैं कि
चीन-ओ-अरब हमारा हिन्दोस्ताँ हमारा
मुस्लिम हैं हम वतन है सारा जहाँ हमारा
तौहीद की अमानत सीनों में है हमारे
आसाँ नहीं मिटाना नाम-ओ-निशाँ हमारा
दुनिया के बुत-कदों में पहला वो घर ख़ुदा का
हम इस के पासबाँ हैं वो पासबाँ हमारा
तेग़ों के साए में हम पल कर जवाँ हुए हैं
ख़ंजर हिलाल का है क़ौमी निशाँ हमारा
इकबाल की अधिकतर नज्मों में पाकिस्तान की भावना बलवती है। परन्तु यह भारत का दुर्भाग्य है कि ऐसे विभाजनकारी मानसिकता वाले व्यक्ति के पॉलिटिकल थॉट को ही पाठ्यक्रम में स्थान नहीं दिया गया है, बल्कि उनके नाम पर ही उर्दू दिवस मनाया जाता है, जिनके जन्मदिवस को पाकिस्तान में टू नेशन थ्योरी के संस्थापक के रूप में मनाया जाता है।
क्या कारण है कि भारत में जन्म लेने वाली भाषा को एक विभाजनकारी मानसिकता वाले व्यक्ति के साथ जोड़ा गया है।
अल्लामा इकबाल की नज्मों से क्या सन्देश जाता है, यह बहुत स्पष्ट है। वह जवाबे शिकवा में अच्छे मुसलमान होने की बात करते हुए लिखते हैं कि
शोर है हो गए दुनिया से मुसलमाँ नाबूद
हम ये कहते हैं कि थे भी कहीं मुस्लिम मौजूद
वज़्अ में तुम हो नसारा तो तमद्दुन में हुनूद
ये मुसलमाँ हैं जिन्हें देख के शरमाएँ यहूद
यूँ तो सय्यद भी हो मिर्ज़ा भी हो अफ़्ग़ान भी हो
तुम सभी कुछ हो बताओ तो मुसलमान भी हो
अर्थात वह कह रहे हैं कि जब आप तौर तरीके में हिन्दू हैं, तो मुसलमान होने का दावा क्यों? दुर्भाग्य यही है कि हिन्दुओं अर्थात भारत के लोक के प्रति ऐसी दृष्टि रखने वालों को भारत में प्रगतिशील ठहराया गया, और उनकी नज्मों को रूमानियत के कलेवर में लपेटकर इस प्रकार प्रस्तुत किया गया कि लोगों ने उनकी नज्मों के माध्यम से ही भारत और हिन्दुओं को देखा और उसी के अनुसार फिर रचनाएँ रची गईं। इकबाल डे पर याद करते हुए पाकिस्तान के एक यूजर ने लिखा था कि देश कवियों के दिल में जन्म लेते हैं
इकबाल के दिल में पाकिस्तान ने जन्म लिया, उन्होंने भारतीय मुसलमानों को अरबी मूल से जोड़ने का कुप्रयास किया, एवं उनके पॉलिटिकल थॉट्स ही थे, जिनके कारण भारत का धर्म के आधार पर विभाजन हुआ। उन्होंने किताबियों के बीच एकता की बात करके भारतीय मूल के धर्मों को अलग करने की बात की। फिर भी वह प्रगतिशील रहे और इतना ही नहीं वह तो सोमनाथ तोड़ने वालों अर्थात गजनबी के भी इंतजार में रहे
किस से कहूँ कि ज़हर है मेरे लिए मय-ए-हयात
कोहना है बज़्म-ए-कायनात ताज़ा हैं मेरे वारदात!
क्या नहीं और ग़ज़नवी कारगह-ए-हयात में
बैठे हैं कब से मुंतज़िर अहल-ए-हरम के सोमनात!
इकबाल की नज्में उनके पॉलिटिकल थॉट्स को लगातार प्रदर्शित कर रही थीं, फिर भी वह हिन्दुओं के लिए प्रगतिशील ही रहे या कहें एक वर्ग द्वारा प्रगतिशील बताकर प्रस्तुत किए जाते रहे!
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