भारत में अनादि काल से ज्ञान, विज्ञान और प्रौद्योगिकी की उन्नत परंपरा रही है। अमेरिकी इतिहासकार मार्क ट्वेन के अनुसार, ‘‘आधुनिक विज्ञान भारत के प्राचीन विज्ञान से बहुत पीछे है। भारत ने ऐसे बहुत ज्ञान संकलित किए हुए हैं, जो हम आज खोज रहे हैं या अभी आविष्कार होने शेष हैं।’
भारत में अनादि काल से ज्ञान, विज्ञान और प्रौद्योगिकी की उन्नत परंपरा रही है। अमेरिकी इतिहासकार मार्क ट्वेन के अनुसार, ‘‘आधुनिक विज्ञान भारत के प्राचीन विज्ञान से बहुत पीछे है। भारत ने ऐसे बहुत ज्ञान संकलित किए हुए हैं, जो हम आज खोज रहे हैं या अभी आविष्कार होने शेष हैं।’’ प्राचीन भारतीय वांड्मय में संपूर्ण ब्रह्मांड के समीचीन बोध से लेकर उन्नत प्रौद्योगिकी, धातु विज्ञान, रसायन शास्त्र, वैद्युतिकी, भौतिक विज्ञान, जीवन विज्ञान, नैनो तकनीक, स्वास्थ्य विज्ञान, शल्य चिकित्सा, विमान शास्त्र, जलयान विनिर्माण, शास्त्रास्त्र प्रौद्योगिकी, उत्पादन प्रौद्योगिकी आदि सभी क्षेत्रों में उन्नत ज्ञान के सृजन और अनुप्रयोग के प्रमाण मिलते हैं। आज भी भारत अंतरिक्ष विज्ञान से लेकर उत्पादन प्रौद्योगिकी तक अनेक क्षेत्रों में विश्व के अग्रणी देशों में है।
प्राचीन धातु विज्ञान
वेद-वेदांग तथा अन्य संस्कृत ग्रंथों में उन्नत धातु विज्ञान के संदर्भों से लेकर पुरावशेषों में अनेक परिष्कृत धातु के उपकरण मिलते हैं। ऋग्वेद, यजुर्वेद एवं अथर्ववेद में लोहा, सीसा, तांबा, सोना, चांदी आदि धातु व इनसे बने उपकरणों, मिश्र धातुओं और इनके अत्यंत परिष्कृत उपयोगों के संदर्भ हैं। ऋग्वेद में 10, 99.6, 10.101.8, 8.29.3, 5.62.7, 1.121.9, 1.58.8, 4.37.4, 6.71.4 अथर्ववेद में 10.1.20, यजुर्वेद में 18.13 आदि कई मंत्रों में धातुओं और इनसे बने उपकरणों के संदर्भ हैं।
अश्मा च मे मृत्तिका च मे गिरयश्च मे पर्वताश्च मे सिकताश्च मे वनस्पतयश्च मे
हिरण्यं च मेऽयश्च मे श्यामं च मे लोहं च मे सीसं च मे त्रपुश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम्। (यजुर्वेद 18/13)
अर्थात्
मेरी खनिज संपदा, मूल्यवान पत्थर-मणियां, हीरा आदि रत्न मेरी सुपोषक मिट्टी, गिरि-पर्वत, मेघ और अन्न आदि, पर्वतों में होने वाले पदार्थ, मेरी बड़ी बालू और छोटी-छोटी बालू, मेरी वनस्पतियां, बड़े-बड़े वृक्ष (आम-बड़ आदि), मेरा सोना व सब प्रकार का धन, चांदी, लोहा, शस्त्र, श्यामम्, नीलमणि, लहसुनिया, चंंद्रकांत मणि, कांतिसार, सीसा, लाख, जस्ता व पीतल आदि सङ्ग कल्पांत तक बढ़ते रहें।
7,000 वर्ष प्राचीन सिंधुघाटी सभ्यता, 5,000 वर्ष पुराने द्वारिका, महाभारतकालीन पुरावशेषों, तमिलनाडु के कोडुमनाल में 2500 वर्ष प्राचीन तथा 6,000 वर्ष प्राचीन जावर की खदानों सहित अनेक स्थानों पर विविध धातुओं के उपकरण एवं धातु परिद्रवण आदि के उपकरण प्रचुर मात्रा में मिले हैं।
प्राचीन भारतीय वांड्मय में संपूर्ण ब्रह्मांड के समीचीन बोध से लेकर उन्नत प्रौद्योगिकी, धातु विज्ञान, रसायन शास्त्र, वैद्युतिकी, भौतिक विज्ञान, जीवन विज्ञान, नैनो तकनीक, स्वास्थ्य विज्ञान, शल्य चिकित्सा, विमान शास्त्र, जलयान विनिर्माण, शास्त्रास्त्र प्रौद्योगिकी, उत्पादन प्रौद्योगिकी आदि सभी क्षेत्रों में उन्नत ज्ञान के सृजन और अनुप्रयोग के प्रमाण मिलते हैं। आज भी भारत अंतरिक्ष विज्ञान से लेकर उत्पादन प्रौद्योगिकी तक अनेक क्षेत्रों में विश्व के अग्रणी देशों में है।
कृत्रिम अंग प्रत्यारोपण
अयस अर्थात् इस्पात (स्टील) का प्रयोग लोहे के अग्रकील युक्त तीरों से लेकर लोहा, तांबा, पीतल, कांसे आदि से बनी तलवारें, पात्र व शल्य चिकित्सा (सर्जरी) सहित अन्य अनगिनत उपकरणों के निर्माण में परिष्कृत व मिश्रित धातुओं का बड़े पैमाने पर प्रयोग होता था। ऋग्वेद में विष्पला नामक योद्धा नारी का उल्लेख है, जिसका पैर युद्ध में कट गया था। उच्च श्रेणी के स्टील से बने कृत्रिम पैर के प्रत्यारोपण के बाद उसने न केवल युद्ध लड़ा, बल्कि जीत भी हासिल की। अन्य संदर्भों से भी प्रत्यारोपण के लिए उन्नत स्टील व मिश्र धातुओं से बने हाथ-पैर, दांत और अन्य अंगों के व्यापक विनिर्माण व उपयोग के प्रमाण मिलते हैं।
रामायण, महाभारत, शतपथ ब्राह्मण, प्राचीन वास्तु ग्रंथों और आयुर्वेद ग्रंथों में धातुओं के उपकरणों, उनका औषधियों में उपयोग, परिशोधन व प्रसंस्करणों के विस्तृत विवरण हैं। आयुर्वेद ग्रंथों में विविध धातुओं के शोधन व उनके परिशोधित नैनो कण रूपी भस्मों के चिकित्सकीय उपयोगों पर आधुनिक अनुसंधानों के अच्छे परिणाम आ रहे हैं। विविध धातुओं व रत्नों की भस्म के चिकित्सकीय उपयोगों पर व्यापक आयुर्वेदिक साहित्य उपलब्ध है।
उन्नत रसायन के संदर्भ
प्राचीन रसायनज्ञ व आयुर्वेदज्ञ नागार्जुन के ग्रंथ ‘रसरत्नाकर’ में रसायन शास्त्र का उन्नत ज्ञान मिलता है। इसमें जस्ता (जिंक) के उत्पादन की पद्धति तक का वर्णन है। पारा जैसे तरल पदार्थ का रस रसायन बनाना, सोना, चांदी, टिन और तांबा जैसी धातुओं का उनके अयस्क से निष्कर्षण और शुद्धिकरण, द्रवीकरण, आसवन, उर्ध्वपातन और भूनने की प्रक्रिया आदि का भी उल्लेख है। ई.पू. 13वीं सदी के ग्रंथ ‘रसरत्नसमुच्चय’ में तिर्यक पतन यंत्र (अवरोही द्वारा आसवन) द्वारा आसवन विधि का विवरण है। इस सरल विधि को कंडेन्सर और भट्ठियों के साथ विशेष रूप से बने रिटॉट्स का उपयोग कर जस्ता अयस्क को गलाने के बाद बनने वाले जस्ता वाष्प को नीचे की ओर आसवन के लिए तैयार किया गया था, ताकि जस्ता वाष्प से बिना ऑक्सीकरण के धातु प्राप्त किया जा सके।
सिंधु घाटी सभ्यता व उतनी ही प्राचीन आहाड़ सभ्यता के पुरावशेषों में विविध धातुओं के पात्रों, आभूषणों, रथों व नौकाओं के अवशेषों का मिलना प्रमाण है कि हमारे देश में उन्नत धातु विज्ञान 8-10 हजार वर्षों से है। कोडुमनाल में 2,000 वर्ष पुराने औद्योगिक नगरी के अवशेषों में स्टील व वस्त्र उत्पादन, रत्न संवर्द्धन आदि के कारखानों के अवशेष मिले हैं। उस काल के चमकीली सतह वाले (विट्रीफाइट) कड़ाह मिले हैं, जिसमें जंग-मुक्त (वूट्ज) श्रेणी के स्टील के उत्पादन किया जाता था। इसके अलावा, अनेक स्थानों से 3,000 वर्ष पुराने पीतल, कांस्य व तांबे आदि के उपकरण व टुकड़े मिले हैं। दिल्ली के महरौली में 5वीं सदी से भी पुराने लौह स्तंभ और समुद्र तट पर स्थित मूकाम्बिका के मंदिर के 3700 वर्ष पुराने स्तंभ में जंग नहीं लगना हमारे उन्नत धातु विज्ञान का प्रमाण है।
रामायण, महाभारत, शतपथ ब्राह्मण, प्राचीन वास्तु ग्रंथों और आयुर्वेद ग्रंथों में विविध धातुओं के शोधन व उनके परिशोधित नैनो कण रूपी भस्मों के चिकित्सकीय उपयोगों पर आधुनिक अनुसंधानों के अच्छे परिणाम आ रहे हैं। विविध धातुओं व रत्नों की भस्म के चिकित्सकीय उपयोगों पर व्यापक आयुर्वेदिक साहित्य उपलब्ध है।
जहाज निर्माण
17वीं सदी से 1856 तक ईस्ट इंडिया कंपनी भारतीय जहाज निर्माताओं से जहाज बनवाती रही, क्योंकि ये इंग्लैंड में बने जहाजों से बेहतर होते थे। बाद में ब्रिटिश कंपनियों को बढ़ावा देने के लिए अंग्रेज सरकार ने भारतीय जहाज निर्माण को बाधित किया। द्वारका और खंभात क्षेत्र में 9,000 वर्ष पुराने बंदरगाह और वहां समुद्र तल में 1500 से अधिक विशाल लंगर मिले हैं, जो 2,000 वर्ष पुराने हैं। ऋग्वेद (5/59/2) में ‘शतरित्र’ अर्थात् सौ अरित्र या सौ पाल वाले द्रुतगामी जलयान का वर्णन है, जिसका प्रयोग व्यापार के लिए किया जाता था। इसमें सौ ‘तक’ (चप्पू) वाले ही नहीं, बल्कि सौ ‘कल’ यानी नौवहन यंत्र वाले जलयान भी थे। वेदों में शतपद्धि अर्थात् पानी काटने के सौ पहिये या पंखे अर्थात् प्रोपेलर यांत्रिक जलयान का भी प्रमाण मिलता है।
अमादेषां भियसा भूमिरेजति नौर्न पूर्णा क्षरति व्यथिर्यती।
दूरेहरशो ये चितयन्त एमभिरन्तर्महे विदथे येतिरे नर:।।2।।
ऋग्वेद में जल, थल व नभचारी यानों का भी वर्णन है। छह घोड़ों की शक्ति वाले यंत्रों से युक्त जलयान और एक से अधिक यंत्र वाले यानों का भी वर्णन है, जो बिना रुके 3 दिन-3 रात में गंतव्य तक पहुंचते थे।
तिख्न: क्षपस्त्रिरहातिव्नजद्धिनासत्या सुन्युपूहथु: पतजै:।
समुद्रस्य धन्वन्नाद्रस्थ पारे त्रिभी समर शतपद्धिरू बल्णष्वै:।। (ऋग्वेद 6/4)
अर्थात्
हे सत्यप्रिय व्यापारी व नाविक! तुम दोनों तीन रात्रि व तीन दिन अतीव गति से चलते हुए इन पदार्थों के साथ छह घोड़ों के तुल्य बल व गति से जल्दी ले जाने में सक्षम 6 यंत्रों के धारक विद्यमान उन (शतपद्धि:) सैकड़ों पग के समान या जल कालने में सक्षम वेगयुक्त पहियों के साथ (त्रिभि:) भूमि, अंतरिक्ष और जल में चलने वाले रमणीय सुंदर मनोहर वाहनों सागर, अंतरिक्ष बलुई भूमि व कींच सहित समुद्र के पार पहुंचाओ।
अनारम्भणे तदबीरयेथामनास्थाने अग्रभणे समुद्रे।
यदष्विना ऊहथुर्भुज्युमस्तं शतारित्रां नावमातस्थिवांसमू।। (ऋ. 4/446/5)
अर्थात्
व्यवसाय के लिए चतुर्दिक प्रवासरत अग्रचेता उद्यमी! तुम दोनों आने-जाने व ठहरने को जगह के ज्ञान के साथ अंतरिक्ष और सागर में सौ वल्ली व सौ पाल या नौवहन यंत्र चप्पू लगे हुए जलयान को बिजली और पवन के वेग से बढ़ाओ, जिससे हम सभी धन व मूल्यवान वस्तुओं के अभाव को दूर करें।
1731 तक भारतीय वैद्य जिस तकनीक से चेचक रोधी टीके लगाते थे, कालांतर में वह इंग्लैंड पहुंचा। इसके बाद 1796 में अंग्रेज चिकित्सक डॉ. एडवर्ड जेनर ने इसी पद्धति से चेचक का टीका बनाया।
ज्ञान विज्ञान का विश्वकोष
वैदिक वांड्मय का प्रत्येक शब्द उन्नत ज्ञान-विज्ञान का कोष है। ‘वन’ शब्द के निर्वचन में यास्क ने लिखा है,
‘‘वन्यते याचते वृष्टि प्रदायते इति वना:।’’
अर्थात्
प्रकृति से वर्षा की मांग करने के कारण इन्हें वन कहा जाता है। यास्क द्वारा 4,000 वर्ष पूर्व किए गए शब्द रचना के अनुरूप 2012 में सेंटर फॉर इंटरनेशनल रिसर्च ‘रियो+20’ मौसम संबंधी सम्मेलन में डेविड एलिसन आदि कई वैज्ञानिकों के अनुसार महासागरों के बाद वर्षा का दूसरा प्रमुख कारण वन हैं, जो वर्षा के लिए आवश्यक 40 प्रतिशत आर्द्रता प्रदान करते हैं।
जस्ते का नाम ‘यशद’ इसकी धातु रसायन आधारित उत्पादन अभियांत्रिकी के अनुरूप किया गया। ताम्र: यश प्रदायते इति यशद:। अर्थात् तांबे को यश प्रदान करने के कारण यह ‘यशद’ कहलाता है। जस्ते का उत्पादन अत्यंत जटिल था और भारतीय विद्वान ही इसके बारे में जानते थे। इसी तरह, 910 डिग्री सेंटीग्रेड पर ताप पर जस्ता के जिंक ऑक्साइड में बदलने से उसे धातु रूप में प्राप्त करना कठिन था। भारत ने ताम्र के उपयोग से जस्ते के परिद्रवण की तकनीक विकसित की थी, जिसमें बिना ऑक्सीकरण किए जस्ता प्राप्त किया जा सकता था। 4,000 वर्ष पूर्व ‘यशद’ शब्द की रचना या निर्वचन इस जटिल प्रौद्योगिकी के सूत्र रूप में किया गया था।
‘हृदय’ शब्द की संरचना में इसे रक्त संचारकर्ता व नाड़ी-गति नियामक बताया गया है। हरतेर्ददातेरयतेर्यम: इति हृदय शब्द: अर्थात् हृदय शब्द के चार अक्षरों ह+र+द+य में ‘ह’ से ’हरते’ यानी हरता है या रक्त को लेता है। ‘द’ से ददाते अर्थात् शरीर को रक्त देता है, ‘र’ से रयते यानी शरीर में रक्त को घुमाता है और ‘य’ से यमम् यानी धड़कनों को नियमन करता है। आधुनिक विज्ञान में विलियम हार्वे ने पहली बार 1628 में बताया कि हृदय शरीर में मस्तिष्क सहित विविध अंगों में रक्त प्रवाहित करता है।
तीन सहस्राब्दी ईसा पूर्व के ग्रंथों यथा शतपथ ब्राह्मण, बृहदारण्यक उपनिषद्, भेल संहिता, नाड़ी ज्ञानम्, चरक संहिता व यास्क कृत निरुक्त में हृदय के आठ कार्यों का उल्लेख है। आजकल हृदय में बैटरी चलित कृत्रिम पेसमेकर लगाकर हृदय के अग्रभाग में विद्युत आवेश की पूर्ति कर धड़कनों का नियमन किया जाता है। लेकिन हृदय के अग्रभाग में विद्युत पूर्ति का स्पष्ट उल्लेख यजुर्वेद (39.8) में हजारों वर्ष पूर्व किया गया था।
आधुनिक टीकाकरण के प्राचीन भारतीय स्रोत
इतिहासकार डॉ. धर्मपाल की पुस्तक ‘इंडियन साइंस एंड टेक्नोलॉजी इन एटीन्थ सेंचुरी’ के अनुसार, 1731 में बंगाल में ब्रितानी डॉ. ओलिवर ने रोजनामचे में लिखा है कि भारत में वैद्य एक बड़ी पैनी व नुकीली सुई से चेचक के घाव की पीब लेकर उसे टीके के रूप में लोगों के शरीर में कई बार चुभोते थे। इसके बाद उबले चावल की लेई बनाकर रोगी के घाव पर चिपका देते थे। इसके तीसरे या चौथे दिन व्यक्ति को बुखार आता था और वह चेचक मुक्त रहता था। यह काम ज्यादातर उड़िया ब्राह्मण करते थे। डॉ. धर्मपाल के अनुसार, 1796 में अंग्रेज चिकित्सक डॉ. एडवर्ड जेनर ने इसी पद्धति से चेचक का टीका बनाया।
सुश्रुत ने उन्नत शल्य चिकित्सा सहित कुल 200 से अधिक सर्जरी के उपकरणों का वर्णन किया है। ये स्टील के बने होते थे। बेहोशी के लिए निश्चेतना व सम्मोहिनी नामक औषधियों तथा बेहोशी दूर करने के लिए संचेतनी नामक औषधियों के प्रयोग सुश्रुत सहित सभी प्रमुख आयुर्वेद संहिताओं में हैं।
अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने 1973 से ही इस ग्रंथ की काफी खोजबीन की है। विद्या वाचस्पति पं. मधुसूदन सरस्वती ‘इंद्र विजय’ नामक ग्रंथ में ऋग्वेद के 36वें सूक्त के प्रथम मंत्र का अर्थ लिखते हुए कहते हैं कि ऋषियों ने तीन पहियों वाला ऐसा रथ बनाया था, जो अंतरिक्ष में उड़ सकता था। विमान शास्त्र में भारद्वाज मुनि ने पूर्ववर्ती आचार्यों और उनके ग्रंथों के बारे में भी लिखा है- नारायण कृत विमान चंद्रिका, शौणक कृत व्योमयान तंत्र, गर्ग कृत यंत्रकल्प, वायस्पति कृत यान बिंदु, चाक्रायणी कृत खेटयान प्रदीपिका और धुंडीनाथ कृत व्योमयानार्क प्रकाश।
विमान बनाने की तकनीक
महर्षि भारद्वाज के ‘यंत्र सर्वस्व’ ग्रंथ में सभी प्रकार के यंत्रों को बनाने और चलाने की विधि संकलित है। इसके 8 अध्यायों में 100 खंड हैं, जिसमें विमान बनाने की तकनीक है। वैमानिक शास्त्र के पहले प्रकरण में प्राचीन विमान विज्ञान विषय के 25 ग्रंथों की सूची भी है। इसमें विमान की परिभाषा, पायलट, वैमानिक के कपड़े, कलपुर्जे, आकाश मार्ग, ऊर्जा, यंत्र तथा उन्हें बनाने में प्रयुक्त होने वाली विभिन्न धातुओं का भी वर्णन है।
इस कारण अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने 1973 से ही इस ग्रंथ की काफी खोजबीन की है। विद्या वाचस्पति पं. मधुसूदन सरस्वती ‘इंद्र विजय’ नामक ग्रंथ में ऋग्वेद के 36वें सूक्त के प्रथम मंत्र का अर्थ लिखते हुए कहते हैं कि ऋषियों ने तीन पहियों वाला ऐसा रथ बनाया था, जो अंतरिक्ष में उड़ सकता था। विमान शास्त्र में भारद्वाज मुनि ने पूर्ववर्ती आचार्यों और उनके ग्रंथों के बारे में भी लिखा है- नारायण कृत विमान चंद्रिका, शौणक कृत व्योमयान तंत्र, गर्ग कृत यंत्रकल्प, वायस्पति कृत यान बिंदु, चाक्रायणी कृत खेटयान प्रदीपिका और धुंडीनाथ कृत व्योमयानार्क प्रकाश।
बैटरी और विद्युत विज्ञान
ऋग्वेद में बैटरी और बिजली का उल्लेख साबित करता है कि लगभग 10,000-8,000 ईसा पूर्व भारत में इसका भी ज्ञान था। ऋग्वेद के पांचवें मंडल में लिखा है-हे लोगों! दिन और रात आराम से काटे जा सकते हैं, अगर बिजली और आग का ठीक वैसे ही उपयोग किया जाए, जैसे सूर्य देव का किया जाता है।
सुपेशसं माव सृजन्त्यस्तं गवां सहस्राय रुशमासो अग्ने।
तिवरा इन्द्रममामण्डु: सुतासोक्तौरव्यूष्टौ परितक्म्यया:।। (ऋग्वेद 30.13)
ऋग्वेद (5.69.1) में प्रकाश और ऊर्जा के 4 मुख्य स्रोत वर्णित हैं-सूरज, बिजली, अंतरिक्ष (आयनोस्फियर की ऊर्जा) और भूगर्भीय ऊर्जा। इसी तरह, ऋषि अगस्त्य ने लगभग 8,000 ई.पू. अगस्त्य संहिता में बैटरी बनाने की विधि का उल्लेख किया है।
संस्थाप्य मृण्मये पात्रे ताम्रपत्रं सुसंस्कृतम्।
चादयेच्छिखिग्रीवेण चार्दुभि: कष्ठपांशुभि:।।
दस्तालोष्टो निधातव्य: पारदाच्छादितस्तत:।
संयोगाजायते तेजो मित्रावरुणसंज्ञितम्।।
अर्थात्
मिट्टी का एक साफ बर्तन लें। उसमें ताम्रपत्र और शिखिग्रीवा यानी नीला थोथा डालें। बीच-बीच में झरझरा गीला बुरादा डालें। इसके ऊपर पारा मिलाकर जिंक की चादर डाल दें। इन सभी को एक साथ मिलाकर फिर एक तार से जोड़कर बिजली पैदा की जाती है। यहां श्लोक में विद्युत का नाम मित्रावरुण शक्ति (मित्र वरुण शक्ति) रखा गया है।
हाइड्रोजन, उड़न साधन व इलेक्ट्रोप्लेटिंग
अगस्त्य संहिता में हीजल का हाइड्रोजन व ऑक्सीजन में आयनीकरण, हाइड्रोजन का गुब्बारों में उपयोग व आयनीकरण से इलेक्ट्रोप्लेटिंग का वर्णन है। यहां पर प्रोटॉन व इलेक्ट्रॉन को क्रमश: मित्र व वरुण कहा गया है। इसमें आगे लिखा है-
अनेन जलभंगोस्ति प्राणो दानेषु वायुषु एवं शतानां कुंभानांसंयोगकार्यकृत्स्मृत।।
अर्थात्
सौ कुंभों (उपरोक्त प्रकार से बने तथा शृंखला में सौ बैटरियों को जोड़ें) की शक्ति का पानी में प्रयोग करने पर पानी अपना रूप बदल कर प्राण वायु (ऑक्सीजन) और उदान वायु (हाइड्रोजन) में परिवर्तित हो जाएगा। आगे लिखा है-
वायुबन्धकवस्त्रेण निबद्धो यानमस्तके उदान स्वलघुत्वे बिभत्र्याकाशयानकम्।
अर्थात्
हाइड्रोजन को बंधक वस्त्र (air tight cloth) द्वारा निबद्ध किया जाए तो वह विमान विद्या (aerodynamics) के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है। अगस्त्य संहिता में इलेक्ट्रोप्लेटिंग के लिए भी विद्युत का उपयोग विवरण मिलता है। इसमें बैटरी द्वारा तांबा या सोना या चांदी पर पॉलिश चढ़ाने की विधि बताई गई है। अगस्त्य को कुम्भज ऋषि भी कहते हैं। प्राचीन भारत में इलेक्ट्रोप्लेटिंग द्वारा सोना-चांदी को शुद्ध करने की कला ज्ञात थी, जिसमें बैटरी की आवश्यकता होती है। इसका वर्णन शुक्रनीति में भी आता है।
प्राचीन भारतीय ग्रंथों व विविध पुरावशेषों में हमारे उन्नत विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के इतने प्रमाण हैं कि उस पर कई खंडों में एक विश्वकोश लिखा जा सकता है। इनमें से केवल कुछ नाममात्र के तथ्यों का ही इस लेख में वर्णन करना संभव हुआ है।
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