देवभूमि की सांस्कृतिक, धार्मिक विरासत अपने आप में अदभुद और अनूठी है, यहां के मठ-मंदिरों का पौराणिक–धार्मिक महत्व इस विरासत को और भी समृद्ध बनाता है। देवभूमि उत्तराखण्ड के कण–कण में देवताओं का वास है। उत्तराखण्ड की पावन भूमि एक और जहां धार्मिक एवं सांस्कृतिक अनुष्ठान स्थली रही है, वहीं इस भूमि ने अध्यात्म प्रेमियों को भी सदैव अपनी ओर खींचा है। भारत की महान आध्यात्मिक विभूति भक्ति, प्रेम और करुणा की त्रिवेणी श्री श्री मां आनंदमयी ने भी देवभूमि उत्तराखण्ड को ही अपनी धार्मिक गतिविधियों का केन्द्र बनाया था। उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन ही मानव सेवा में समर्पित कर दिया था।
जन्म – 30 अप्रैल सन 1896 ग्राम खेड़ा, त्रिपुरा वर्तमान बांग्लादेश.
देहावसान – 27 अगस्त सन 1982 देहरादून, उत्तराखंड.
मां आनंदमयी का जन्म 30 अप्रैल सन 1896 वर्तमान बंग्लादेश के ब्राह्मणबारिया जो तत्कालिन समय तिप्पेराह कहा जाता था, के ग्राम खेउरा में हुआ था। उनके पिता बिपिन बिहारी भट्टाचार्य मूल रूप से त्रिपुरा के विद्याकूट स्थान से और वैष्णव गायक थे। उन्होंने अपनी पुत्री का नाम निर्मला सुंदरी रखा था। निर्मला सुंदरी ने सुल्तानपुर और खेउरा के स्थानीय ग्रामीण स्कूलों में आरंभिक शिक्षा ग्रहण की थी। भक्तिभाव उन्हें अपनी मां से विरासत में मिला था। उनकी मां मोक्षदा सुंदरी भी अक्सर ईश्वर की प्रार्थना में भाव समाधि में चली जाती थीं। उनकी माता मोक्षदा सुंदरी ने आगे चलकर संन्यास ले लिया जिसके पश्चात उनका नाम मुक्तानंद गिरि हो गया था। ऐसे धार्मिक वातावरण के परिवार में निर्मला का बचपन बीता था। निर्मला के मन में बचपन से ही भगवान श्रीकृष्ण के प्रति अगाध प्रेम था। वह प्रायः समाधि अवस्था में आ जाती थीं, ऐसे में उनका सम्बन्ध बाहरी जगत से टूट जाता था। उस समय की बाल विवाह की परंपराओं के चलते 13 साल की उम्र में उनका विवाह रमानी मोहन चक्रवर्ती से हो गया था। निर्मला ने गृहस्थ जीवन की समस्त जिम्मेदारियों को सामान्य रूप से निभाया, परन्तु भक्ति में भाव–विभोर होकर समाधिस्थ हो जाने का क्रम भी बना रहा। इससे वह जो कार्य कर रही होती थीं, वह अधूरा रह जाता था। परिवार और आसपास के सभी लोग उनकी इस अध्यात्म चेतना को पहचान गये थे। यहीं पर उनके एक पड़ोसी हरकुमार ने उन्हें “मां” कहना शुरू किया था। हरकुमार को लोग पागल कहा करते थे, लेकिन उसी ने सबसे पहले निर्मला को “मां” की मान्यता दी और उनकी आध्यात्मिक श्रेष्ठता की घोषणा की थी। हरकुमार ने निर्मला को “मां” के रूप में संबोधित करना और सुबह-शाम श्रद्धापूर्वक प्रणाम करना शुरू किया था।
सन 1925 में “अंबूवाची पर्व” पर निर्मला पति के साथ रमणा के सिद्धेश्वरी काली मंदिर में पूजा करने गयीं थी। मंदिर में वह भक्ति–भाव समाधि में डूब गयीं। उनके हाथों से अपने आप बन रही तांत्रिक मुद्राओं तथा चेहरे की दिव्यता देखकर उनके पति समझ गये कि वह पूर्वजन्म की कोई देवी है, उन्होंने तभी उनसे दीक्षा ले ली थी। निर्मला ने उन्हें भोलानाथ नाम देकर साधना के पथ पर भेज दिया बाद में वह इसी नाम से प्रसिद्ध हुए। मां निर्मला की सिद्धियों और साधना की चर्चा पूरे देश में होने लगी थी। हजारों की संख्या में लोग उनके दर्शनों को आने लगें थे, अब मां पूरे देश में भ्रमण करने लगीं थी। इसी समय विश्व प्रसिद्ध संत योगानंद से उनकी मुलाकात हुई जिसकी चर्चा परमहंस योगानंद ने अपनी विश्व प्रसिद्ध पुस्तक “एन ऑटोबायोग्राफी ऑफ ए योगी” नामक पुस्तक में किया है। उनके भजन–कीर्तन चैतन्य महाप्रभु की याद दिला देते थे। मां निर्मला ने छब्बीस वर्ष की अवस्था में पहला प्रवचन दिया था। एक समय निर्मला सार्वजनिक कीर्तन के जरिये परमानंद में चली गई थी। उनके एक शिष्य ज्योतिचंद्र राय जिन्हें “भाईजी” के नाम से जाना जाता था, ने सर्वप्रथम सुझाव दिया कि मां निर्मला को मां आनंदमयी के नाम से पुकारा जाए, जिसका वास्तव में अर्थ “जॉय परमिटेड मदर” अथवा “ब्लिस पर्मिटेड मदर” हैं। ज्योतिचंद्र ने मां आनंदमयी के प्रारंभिक और करीबी शिष्य थे और मुख्य रूप से रमना काली मंदिर की सीमा के अंदर सन 1929 में मां आनंदमयी के लिए प्रथम आश्रम बनाया था। सन 1926 में उन्होंने सिद्धेश्वरी क्षेत्र में पूर्व में परित्यक्त एक प्राचीन काली मंदिर का जीर्णोद्धार किया था। शाहबाग में धार्मिक प्रवास के समय अधिक लोग उनकी तरफ आकर्षित होने लगे थे, उनसे प्रभावित लोग उन्हें परमात्मा के एक जीवित अवतार के रूप में देखते थे।
सन 1932 –33 में जवाहरलाल नेहरू उत्तराखण्ड की देहरादून जेल में कैद थे। मां आनंदमयी भी उन दिनों देहरादून में ही थीं, वहीं जवाहर लाल नेहरू की पत्नी कमला और बेटी इंदिरा किसी माध्यम से मां आनंदमयी के संपर्क में आकर उनकी अनन्य भक्त बन गई थी। इंदिरा गांधी अक्सर मां आनंदमयी से मिलने कनखल, हरिद्वार स्थित उनके आश्रम जाया करती थीं। उनके साथ संजय गांधी भी मां आनंदमयी के पास जाते थे। कहा जाता है कि इंदिरा गांधी को उन्होंने एक रुद्राक्ष की माला दी थी, जिसे उनकी जीवन रक्षा के लिए हमेशा पहने रखने का आदेश दिया था। कहते हैं जिस दिन इंदिरा गांधी की हत्या हुई उस दिन वह माला उन्होंने नहीं पहनी थी और उसे मरम्मत के लिए उतार दिया था। प्रसिद्ध खिलाड़ी पटियाला नरेश भूपेन्द्र सिंह, कुमार नृपेन्द्रनाथ शाहदेव रांची, संगीतकार एम.एस.सुबुलक्ष्मी, बांसुरी वादक हरिप्रसाद चौरसिया आदि अनेक विद्वान एवं विख्यात लोग उनके भक्त बन गए थे। मां आनंदमयी का राजनीति से कुछ सम्बन्ध न होने पर भी राजमाता विजयाराजे सिंधिया, महाराजा सोलन, महाराजा चिंतामणि शरणनाथ शाहदेव “रातू”, रानी साहिब बामड़ा, फ्रांस के राष्ट्रपति, कनाडा के प्रधानमंत्री तथा भारत के अनेक विख्यात उद्योगपति, वैज्ञानिक, दार्शनिक, साहित्यकार व सामाजिक कार्यकर्ता उनके दर्शन को आते रहते थे। मां आनंदमयी और महात्मा गांधी के बीच आध्यात्मिक संबंध थे। मां आनंदमयी उन्हें पिताजी कह कर बुलाती थीं और महात्मा गांधी उन्हें मां कहते थे। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा.राजेंद्र प्रसाद भी मां आनंदमयी के परम भक्तों में थे। तत्कालीन सभी आध्यात्मिक विभूतियों से मां आनंदमयी का संपर्क बना रहता था, जिनमें देवरहा बाबा, उडि़या बाबा, हरिबाबा, नीमकरौली बाबा, श्रीराम ठाकुर, पगला बाबा, स्वामी अखंडानंद, स्वामी शरणानंद, परमहंस योगानंद, गोपीनाथ कविराज, संत छोटे महाराज, हरिगुण गायक आदि प्रमुख हैं। मां आनंदमयी को ईश्वरीय सिद्धियां बिना गुरु के ही भक्ति से प्राप्त हो गईं थी। कहा जाता है कि वह लोगों के मन की बात जान लेती थीं और उन्हे वह सारी चीजें दिखती थी जो किसी को भी नजर नहीं आती थीं।
देशभर से असंख्य लोगों में प्रेम, भक्ति और करुणा का संदेश बांटते हुए मां आनंदमयी ने 27 अगस्त सन 1982 को देहरादून, उत्तराखंड में अपनी देहलीला पूर्ण की थी। उनके देहावसान के दो दिन बाद उन्हें कनखल, हरिद्वार स्थित उनके आश्रम में महासमाधि दी गयी। उनकी महासमाधि के बाद देश के सभी संप्रदायों के संतों ने उन्हें आधुनिक काल की सबसे महान संत का सम्मान दिया था। भारत के प्रत्येक मत–पंथ–संप्रदाय ने उनकी जीवन में इस्तेमाल की गई वस्तुओं को अपने मठो में स्थापित करवाया था। आज भी उनकी समाधि पर जाकर भक्तों को उनकी जीवंत उपस्थिति का अनुभव होता है। भारत में में अनेकानेक महान आध्यात्मिक संत हुए हैं लेकिन इनमें मां आनंदमयी सबसे अलग हैं। डिवाइन लाइफ सोसायटी के शिवानंद सरस्वती ने उन्हें योग गुरु और संत की उपाधि देते हुए कहा था कि वह भारतीय मिट्टी का सबसे उत्तम फूल हैं।
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