अभिव्यक्ति की आजादी का राग गाने वाले इन दिनों उबाल पर हैं, वह भयानक रूप से परेशान हो रहे हैं। उनकी परेशानी बहुत ही अलग है। वह इतनी मासूम है कि उसकी असलियत छलकी पड़ रही है। यह बहुत ही रोचक है कि उसकी असलियत को आम लोग समझ रहे हैं। दरअसल अभी तक अपने हर कुकर्म को अभिव्यक्ति की आजादी की सीमा में बताने वाले लोग अभिव्यक्ति की आजादी की सीमा तय करने लग गए हैं।
इन दिनों उनकी मासूमियत उस सच्चाई को लेकर है, जिसे उन्होंने अपने एजेंडे के चलते अभी तक सामने नहीं आने दिया था। अभी तक वह लोग हिन्दू लड़की और मुस्लिम लड़के की प्रेम कहानी में हिन्दू परिवार को बदनाम करने की पूरी साज़िश रच ही नहीं चुके हैं, बल्कि अपनी कहानियों, कविताओं आदि के माध्यम से यह प्रमाणित कर चुके हैं कि दरअसल हिन्दू लड़कियां तो स्वयं ही मुस्लिम लड़कियों के साथ प्यार करती हैं। वह तो हिन्दू परिवारों की कट्टरता है, जिसके चलते मुस्लिम पीड़ित हैं।
जब भी कहीं अंतर्राष्ट्रीय विमर्श में यह सामने आता है कि भारत में मुस्लिम डरा हुआ है तो उनमें ऐसी फिल्मों का बहुत बड़ा योगदान है, जो बार-बार इस झूठ को सामने लाती हैं कि हिन्दू लड़की और मुस्लिम लड़के के प्रेम में हिन्दू लड़की के घरवाले ही दोषी हैं। पीके में हिन्दू लड़की और पाकिस्तानी मुस्लिम लड़के के प्यार की कहानी थी, जिसमें हिन्दू परिवार ही कट्टर था और प्यार का दुश्मन था, ऐसी ही एक और फिल्म आई थी केदारनाथ, उसमें भी हिन्दू लड़की के अभिभावक ही कट्टर दिखाए थे और हाल ही में आई अतरंगी रे में अक्षय कुमार के किरदार की हत्या ही उसकी हिन्दू बीवी के घरवाले कर देते हैं।
जब से भारत में लोगों ने फ़िल्में देखनी आरम्भ की हैं, तभी से वह ऐसे दृष्टिकोण को देखते हुए आए हैं, जिनमें हिन्दू पक्ष शोषण करने वाला है और मुस्लिम पक्ष पीड़ित है। अर्थात जो राजनीतिक अल्पसंख्यक की अवधारणा थी, वही हूबहू फिल्मों में उतर आई, जबकि यह भी पूरी तरह से सत्य है कि अल्पसंख्यक की परिभाषा अभी तक स्पष्ट नहीं है। क्योंकि यदि यह संख्यात्मक तरीके से निर्धारित किया जाएगा तो क्या यह कहा जाएगा कि भारत में शताब्दियों तक अल्पसंख्यकों का शासन रहा और यदि ऐसा है तो फिर वह लोग पीड़ित कैसे?
एक ऐसे भ्रम का जाल बुना गया, जिसमें आजादी से पहले और बाद में भी हिन्दुओं के शोषण की एवं उदारवादी मुस्लिम आवाजों की हर पीड़ा दब गयी। वह सामने ही नहीं आ पाई। फिल्मों की सॉफ्ट पावर का अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का राग गाने वालों ने पूरी तरह से प्रयोग किया। परन्तु पिछले कई वर्षों से वह बहुत कुपित हो रहे हैं और यह बात उठा रहे हैं कि अभिव्यक्ति की आजादी पर कुछ अंकुश होना चाहिए।
अब यह अंकुश की बात क्यों कर रहे हैं, जब उन्होंने पूरे नैरेटिव में कश्मीरी पंडितों की उन हत्याओं को छिपा दिया, जिन्हें अपना सब कुछ छोड़कर अपनी जन्मभूमि को छोड़कर आना पड़ा और जिन्होनें कैसे अपने प्राण बचाए, वह एक लम्बे समय तक सामने ही नहीं आने दिया। फिल्मों और साहित्य के माध्यम से उन्हें ही दोषी बनाकर सामने रख दिया, जो दरअसल सबसे बड़े पीड़ित थे।
अब जब एक ऐसे विषय पर जिसे विमर्श के स्तर पर लगातार नकारा जाता है, फिल्म बन रही है तो अभिव्यक्ति की आजादी पर फिर से अंकुश लगाने की बात हो रही है और वह मामला है हिन्दू लड़कियों का जबरन मतांतरण एवं उन्हें मोहरा बनाकर आईएस में भेजना। आंकड़े बहुत कुछ बोलते हैं और एजेंडा कुछ और।
इस फिल्म में वह सत्य दिखाया जाने जा रहा है, जो अब तक सभी की चेतना में तो था, परन्तु वह सामने इसलिए नहीं आया था क्योंकि उसे लिखने पर या उस पर फिल्म बनाने पर वैचारिक लिंचिंग बहुत आम थी। ऐसा लिखने पर कई प्रकार के लेबल लग जाते हैं, उसे तरह तरह से प्रताड़ित किया जाता है, उसे समाज में जहर घोलने वाला बताया जाता है।
ऐसा ही कुछ हो रहा है। क्या यह सत्य नहीं है कि हिन्दू लड़कियों को एक जाल बिछाकर नाम बदलकर कई और तरीकों से प्यार के जाल में फंसाया जाता है और फिर उनका दूसरा प्रयोग किया जाता है और ऐसा नहीं है कि यह प्रयोग केवल भारत में हो रहे हैं। हाल ही में ब्रिटेन में भी “ग्रूमिंग गैंग” की बात हुई थी और यह भी चर्चा हुई थी कि कैसे वहां की लड़कियों को पाकिस्तानी अपने जाल में फंसाते हैं और कैसे सरकार अब कदम उठाने जा रही है और इसमें पाकिस्तान का भी नाम सामने आया था।
जब बच्चों की इस जबरन ग्रूमिंग और एक कट्टरता आधारित ग्रूमिंग पर पूरे विश्व में बहस छिड़ी है तो ऐसे में जब इसी समस्या को लेकर केरल स्टोरी फिल्म बनाई गयी है, जिसमें यह दिखाया गया है कि कैसे केरल में मजहब आधारित प्यार के जाल में फंसाकर हिन्दू और ईसाई लड़कियों को एक जाल में फंसाया जा रहा है। जब इस फिल्म का टीजर रिलीज हुआ था, तभी से अभिव्यक्ति की आजादी की पैरोकार रही लॉबी इस फिल्म के विरोध में आई थी और यह कहा था कि वह इसे रोकने के लिए कानूनी कदम उठाएंगे।
परन्तु सत्य से इतना भयभीत क्यों हैं वह लॉबी? क्या उसे यह लगता है कि जैसे कश्मीर फाइल्स ने उन्हें कश्मीर के मामले में नंगा कर दिया, वैसे ही केरल स्टोरी उन्हें केरल सहित पूरे भारत में हिन्दू और ईसाई लड़कियों के खिलाफ चल रहे इस षड्यंत्र पर लोगों के सामने नंगा कर देगी? यह एक बहुत बड़ा प्रश्न है कि वह लॉबी उन गुमशुदा लड़कियों के बारे में बात क्यों नहीं करना चाहती है जो कथित प्यार का हवाला देकर गायब कर दी जाती हैं।
सुदीप्तो सेन इस फिल्म के निर्देशक हैं जो वर्ष 2018 में केरल में लव जिहाद को लेकर एक डॉक्यूमेंट्री बना चुके हैं और जिसका नाम था ‘इन दी नेम ऑफ लव’।
चूंकि वह डॉक्यूमेंट्री थी तो वह व्यापक प्रभाव छोड़ने में सफल नहीं हो पाई होगी, तो अब विपुल अमृत शाह के बैनर तले उन तमाम गुमशुदा लड़कियों की कहानी सुदीप्तो सेन सामने ला रहे हैं, जो इस हिन्दू लड़की और मुस्लिम लड़के के पाक इश्क और हिन्दू लड़की के जल्लाद अभिभावकों के एजेंडे को तोड़ रही है। लॉबी अपना एजेंडा टूटने से बेचैन है। चूंकि झूठ के पैर नहीं होते हैं अत: जैसे ही कश्मीर के एजेंडे पर एक सत्य आधारित फिल्म आई एजेंडा ध्वस्त हुआ और अब इतने वर्षों के बहुत ही श्रम से स्थापित किए हुए हिन्दू लड़की के कसाई अभिभावक एवं मासूम इश्क के एजेंडे की सच्चाई बताने वाली फिल्म “केरल स्टोरी” आ रही है तो वह लॉबी फिर शोर मचा रही है। ऐसे में एक बहुत ही आवश्यक प्रश्न उठता है कि अभिव्यक्ति की एकतरफा ही आजादी क्यों चाहिए होती है, जिससे भारत और भारत की आत्मा के विरुद्ध विमर्श खड़ा किया जा सके?”
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