बिहार में बाहुबली नेता आनंद मोहन को अंतत: रिहा कर दिया गया। आनंद मोहन पूर्व में लोकसभा सांसद रह चुके हैं और वह एक आईएएस अधिकारी जी कृष्णैया की हत्या के मामले में उम्रकैद की सजा काट रहे थे। यह भी कहा जा रहा है कि उन्हें रिहा करने के लिए नियम भी बदले गए। और यह भी कहा जा रहा है कि उनके बहाने कई ऐसे लोगों को छोड़ा गया है, जो एम/वाई समीकरण बनाते हैं और साथ ही एक और बड़ी चूक सामने आई कि एक कैदी की पहले ही मौत हो चुकी है।
आनंद मोहन को मुखौटा बना बिहार सरकार ने 27 अपराधी छोड़ा जिसमें 13 माई समीकरण के – अशोक यादव, शिवजी यादव, किरथ यादव, राज बल्लभ यादव, पतिराम राय, किशुनदेव राय, चन्देश्वरी यादव, खेलावन यादव, मोहम्मद खुदबुद्दीन, अलाउद्दीन अंसारी, हलीम अंसारी, अख्तर अंसारी, दस्तगीर खान…ये लोग हत्या,… pic.twitter.com/jhmLO7mHhb
— Ramnivas Kumar (@ramnivaskumar) April 25, 2023
आनंद मोहन इसलिए रिहा हो रहे हैं, क्योंकि हाल ही में बिहार जेल मैन्युअल में कुछ परिवर्तन किए गए थे। इसे लेकर भी कई लोगों में रोष है। 5 दिसंबर 1994 को जब जी कृष्णैया की हत्या की गयी थी, उस समय वह 37 वर्ष के थे और उनकी दो बेटियाँ थीं। जिनके अब विवाह हो चुके हैं।
आनंद मोहन की इस रिहाई पर जी कृष्णैया की पत्नी एवं आईएएस एसोसिएशन ने क्षोभ व्यक्त किया है। हालांकि सोशल मीडिया पर हंगामा मात्र आनंद मोहन की रिहाई को लेकर ही किया जा रहा है, परन्तु आनंद मोहन के साथ 26 और दुर्दांत कैदी रिहा किए जा रहे हैं। यह सब कुछ बिहार में हो रहा है, परन्तु यह अत्यंत खेद का विषय है कि जहां एक ओर बिहार में यह सब हो रहा है, और आम जनता सोशल मीडिया पर अपना दुःख और क्षोभ व्यक्त कर रही है, तो वहीं क़ानून एवं व्यवस्था को लेकर निरंतर भाजपा सरकारों को घेरने वाले कथित लिबरल लेखक मौन हैं।
यहाँ लेखकों की बात इसलिए की जा रही है क्योंकि भारतीय जनता पार्टी की सरकार का विरोध करते समय “सरकार के विपक्ष” को जनता का पक्ष मानने वाले लोग अपनी रचनाओं में, अपनी रिपोर्टिंग में सरकार के सकारात्मक कदमों की भी आलोचना करते हुए दिखाई देते हैं तथा वह यह विरोध करना अपना सबसे बड़ा अधिकार बताते हैं एवं साथ ही सबसे मजे की बात यही है कि जब गैर भाजपा सरकारों में बड़ी से बड़ी घटनाएं होती हैं, तो वह पूर्णतया मौन धारण कर लेते हैं। ऐसे में हर घटना पर यह प्रश्न उठता है कि अंतत: क़ानून एवं व्यवस्था पर यह एकालाप क्यों?
अभी हाल ही में यही वर्ग उत्तर प्रदेश सरकार की कानून व्यवस्था पर प्रश्न चिह्न ही नहीं उठा रहा था बल्कि यह तक प्रमाणित करने में लगा हुआ था कि दरअसल माफियाओं पर जो कड़े कदम उठाए जा रहे हैं, वह मजहब विशेष के प्रति घृणात्मक अपराध है। जब से उत्तर प्रदेश के माफिया अतीक अहमद के बेटे असद का एनकाउंटर हुआ था, तब से यह शोर बढ़ गया है।
कई वेबसाइट्स ने यह तक प्रकाशित किया था कि असद वकील बनना चाहता था और वह लन्दन जाकर वकालत की पढाई करना चाहता था मगर उसके अब्बा के गुंडागर्दी वाले व्यवहार के चलते पासपोर्ट नहीं बन सका था। मगर असद अपने अब्बा जैसा ही माफिया डॉन बनना चाहता था। और उसके फोन से कई वीडियो सामने आए जिनमें वह लड़कों को मारता पीटता था, अर्थात अपना आतंक स्थापित करता था।
अतीक अहमद का बेटा असद ऐसे करता था बंद कमरे में लोगों को टॉरचर pic.twitter.com/jvWc7PeBkK
— Nalini Pandey (@nalinipandey20) April 24, 2023
विडंबना यही है कि लेफ्ट लिबरल एवं कथित सेक्युलर लेखकों के लिए वह एक मासूम बच्चा था तथा उसका एनकाउंटर नहीं किया जाना चाहिए था। फिर चाहे वह कुछ भी करता रहे! चाहे वह पुलिस पर वार करे, प्रहार कर, कुछ भी करे! क्या उसके पीड़ितों के आंसू, आंसू नहीं हैं, क्या उनका दुःख दुःख नहीं है? पीड़ा के प्रति यह अनदेखापन क्यों? यह अजीब विडंबना है कि कथित प्रगतिशील वर्ग के लिए न ही असद के सताए हुए लोग सताए हुए लोग थे और राजू पाल सहित कई निर्दोष नागरिकों को मारने वाला अतीक अहमद।
असद अहमद के एनकाउंटर और अतीक अहमद की हत्या के बाद उत्तर प्रदेश को जंगल प्रदेश कहने वाले वर्ग को यह नहीं दिख रहा है कि बिहार सरकार कैसे 26 दुर्दांत अपराधियों को रिहा कर रही थी और यह चुप्पी इसलिए भी खतरनाक है क्योंकि यह वही वर्ग है जो माया कोडनानी को आरोप मुक्त किए जाने पर भारत की न्यायिक व्यवस्था पर प्रश्न चिह्न लगा रही थी।
दुर्भाग्य की बात यही है कि यह वह वर्ग है जो कथित वर्ग संघर्ष तथा अल्पसंख्यकों के नित नए सिद्धांत गढ़ता है और यह भी सिद्धांत गढ़ता है कि कैसे भारत का बहुसंख्यक वर्ग पहले तो कथित अल्पसंख्यकों का शोषण करता है और हिन्दुओं में भी जातिगत भेदभाव के चलते कथित उच्च वर्ग दलित वर्ग का दमन करता है।
मगर यह सारे सिद्धांत वह तभी तक गढ़ते हैं, जब यदि मामला या तो भारतीय जनता पार्टी की सरकार के विरोध में जाए या फिर समस्त हिन्दू लोक के विरोध में जाए। क्योंकि यदि ऐसा नहीं होता तो आनंद मोहन की इस रिहाई पर वह वर्ग कम से कम नितीश सरकार से प्रश्न तो करता, जो कथित रूप से दलित शोषण का राग अलापता रहता है, क्योंकि आनन्द मोहन पर दलित आईएएस जी कृष्णैया की हत्या का आरोप था और इसी कारण उन्हें उम्रकैद की सजा मिली थी।
यह वही कथित प्रगतिशील वर्ग है जो भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार को लेकर तो तमाम नैतिकता के मापदंड बनाता है, परन्तु जैसे ही गैर भाजपा सरकार की बात आती है या फिर कथित सेक्युलर सरकारों की बात आती है, तो वह मौन हो जाते हैं। जैसे आनंद मोहन तथा शेष 26 अपराधियों की रिहाई पर मौन है। ऐसे में कई लोग तो उन 26 लोगों की रिहाई पर भी प्रश्न उठा रहे हैं। सोशल मीडिया पर यूजर यह पूछ रहे हैं कि क्या आनंद मोहन का चेहरा आगे करके शेष 26 लोगों के अपराधों को छिपाया जा रहा है। तमाम प्रकार के विश्लेषण
वहीं इस मामले में तेजस्वी यादव का कहना है कि आनंद मोहन अपनी सजा काटकर ही रिहा हुए हैं।
वहीं यह घटना उन तमाम दलित पार्टियों की चुप्पी पर प्रश्न उठाती हैं, जो उत्तर प्रदेश में हाथरस जैसी घटनाओं पर क़ानून व्यवस्था बिगाड़ने के लिए आती हैं, परन्तु वह लोग भी आनन्द मोहन समेत 26 अपराधियों की रिहाई पर मौन हैं। ऐसे में कथित प्रगतिशील वर्ग एवं दलितों के लिए आवाज उठाने वाले दलों की चुप्पी पर यही पूछा जा सकता है कि आखिर “क़ानून एवं व्यवस्था पर एकतरफा एकालाप क्यों?” सामाजिक न्याय की परिभाषा के क्रियान्वयन में इतना भेदभाव क्यों?
राजनीतिक कदम अपने स्थान पर होते हैं, परन्तु जब कथित प्रगतिशीलता भी दलों के आधार पर अपने मुद्दे निर्धारित करने लगती है तभी प्रश्न उठते हैं और सदा उठते रहेंगे। क्योंकि इन तमाम घटनाओं में यह स्पष्ट होता है कि कहीं न कहीं आपके उद्देश्य में केवल वितंडा फैलाना है, न्याय पाना आपके उद्देश्यों से कोसों दूर है!
टिप्पणियाँ