श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार उपाख्य भाईजी जैसे दो सद्गृहस्थ महापुरुषों को जोड़कर गीता प्रेस, गोरखपुर जैसी आदर्श संस्था का निर्माण कराया, जो आज अपनी शताब्दी की ओर बढ़ते हुए भारतीय समाज, सनातन धर्म और भारतीय संस्कृति की सेवा में अखंड रूप में कार्यरत है।
भारत के स्वाधीनता संग्राम का इतिहास साक्षी है कि ईश्वरीय प्रेरणा से संचालित विभूतियों और उनकी संस्थाओं ने सेवा, स्वदेशी, सामाजिक समरसता और लोक चेतना जगाने में विलक्षण योगदान दिया था। स्वामी विवेकानंद का रामकृष्ण मिशन हो, महाकवि रवींद्रनाथ ठाकुर का शांति निकेतन, पं. मदन मोहन मालवीय का काशी हिंदू विश्वविद्यालय या महात्मा गांधी के आह्वान पर गठित दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, इन सभी के पीछे जहां स्वाधीनता की तेजस्विता थी, वहीं आध्यात्मिक प्रेरणा भी थी। इसी प्रेरणा ने श्री जयदयाल गोयन्दका और श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार उपाख्य भाईजी जैसे दो सद्गृहस्थ महापुरुषों को जोड़कर गीता प्रेस, गोरखपुर जैसी आदर्श संस्था का निर्माण कराया, जो आज अपनी शताब्दी की ओर बढ़ते हुए भारतीय समाज, सनातन धर्म और भारतीय संस्कृति की सेवा में अखंड रूप में कार्यरत है।
सेठजी और भाईजी
सेठ जयदयाल गोयन्दका ऐसे महापुरुष थे, जिनका 14 वर्ष की आयु से ही ईश्वर चिंतन में ध्यान लग रम था। ईश्वर की दिव्य ज्योति के दर्शन के साथ ही उन्हें निर्देश मिला था-‘तुम्हारा जीवन श्रीमद्भगवद्गीता के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित होगा’। इसे मणिकांचन संयोग ही कहा जाएगा कि सेठजी के रिश्ते में मौसेरे भाई श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार अपनी दादी रामकौर के संरक्षण में आठ वर्ष की आयु में ही पूरी गीता कंठस्थ कर चुके थे। कोलकाता में दोनों की भेंट और सेठजी के सत्संग का लाभ उन्हें मिलने लगा। भाईजी की भक्ति, ज्ञान, मौलिक चिंतन और निराभिमानी स्वभाव की छाया सेठजी पर पड़ चुकी थी।
भाईजी के जीवन पर अनेक संतों, महापुरुषों, स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय सेनानियों और विद्वानों का प्रभाव था। लेकिन अपनी वसीयत में भाईजी लिखते हैं, ‘‘पूज्य श्री जयदयाल गोयन्दका का मेरे जीवन पर बहुत बड़ा प्रभाव है। मेरे जीवन को अध्यात्म पथ पर सुरक्षित रखने का सारा श्रेय उन्हीं को जाता है। उनको मेरे पास भगवान ने ही भेजा था। कलकत्ता में पिताजी के साथ हमारी दुकान पर वे आने लगे और मुझे अपनी ओर खींचा। 1910 से शरीर के अंत तक उनकी कृपा बराबर बनी रही। मैं कई बार गीता प्रेस और कल्याण को छोड़कर भागना चाहता था, पर उनकी प्रबल कृपाशक्ति ने मुझे भागने नहीं दिया। उनसे जो कुछ मिला, उसकी कोई तुलना नहीं हो सकती।’’
बंगाल से निष्कासन
शिलांग में जन्मे भाईजी पिता भीमराज के साथ व्यवसाय करते हुए भी सत्संग, सेवा और सक्रिय राजनीति में भाग लेते रहे। बंग-भंग आंदोलन को उन्होंने निकट से देखा था। उन दिनों कलकत्ता स्वतंत्रता आंदोलन का कुरुक्षेत्र बना हुआ था। उन्हें माणिकतल्ला बम कांड के नायक श्री अरविंद घोष, रवींद्रनाथ ठाकुर, स्वामी विवेकानंद के छोटे भाई भूपेंद्रनाथ दत्त जैसे लोगों का स्नेह प्राप्त था। सशस्त्र क्रांति के आंदोनकारियों से भी उनका गहरा जुड़ाव था। एक ओर उन्हें सेठजी का सत्संग प्रिय था, तो दूसरी ओर कांग्रेस नेताओं गोपालकृष्ण गोखले, मदन मोहन मालवीय, लोकमान्य तिलक, देशबंधु चितरंजन दास और महात्मा गांधी आदि का भी आशीर्वाद मिला। साथ ही, हिंदी, अंग्रेजी और बांग्ला भाषा के अनेक लेखकों, पत्रकारों और विद्वानों से भी उनकी घनिष्ठता रही। सर्वश्री राधा मोहन मुखर्जी, अमृत लाल चक्रवर्ती, पं. झाबरमल्ल शर्मा, ‘भारत मित्र’ के संपादक बालमुकुंद गुप्त, पं. लक्ष्मण नारायण गर्दे, बाबूराव विष्णु पराडकर जैसे लोगों ने साहित्य, लेखन और पत्रकारिता में उनका मार्गदर्शन किया था। भाईजी का पहला लेख ‘मर्यादा’ मासिक में 1911 में प्रकाशित हुआ, जिसका शीर्षक था-‘मातृभूमि की पूजा’।
माणिकतल्ला कांड के 6 वर्ष बाद रोड कांड में 16 जुलाई, 1914 को भाईजी मारवाड़ी समाज के तीन अन्य युवकों के साथ राजद्रोह के अपराध में गिरफ्तार किए गए। हालांकि ठोस सबूतों के अभाव में उन्हें रिहा तो कर दिया गया, पर कलकत्ता से दूर बांकुरा जिले के सिमलापाल में 21 महीने के लिए नजरबंद कर दिया गया। इस दौरान भाईजी की आध्यात्मिक साधना तो बढ़ी, लेकिन पारिवारिक विपत्तियां भी टूट पड़ीं। शिलांग में भूकंप में दादा कणिराम के अपार वैभव का विनाश, इसी चिंता में पिता की अकाल मृत्यु, व्यापार में जबरदस्त घाटा, कर्ज का बोझ और संबंधियों का तिरस्कारपूर्ण व्यवहार, बहनों की शादी तथा घर खर्च की चिंता ने घेर लिया। 4 मई,1918 को नजरबंदी खत्म हुई तो उन्हें बंगाल से निष्कासित कर दिया गया।
क्रांतिकारी आंदोलन से जुड़ाव, क्रांतिकारी संगठनों, उनकी गुप्त समितियों में भाग लेने और उनके मुकदमों की पैरवी करने के कारण बंगाल पुलिस ने उन पर राजद्रोह का मुकदमा दर्ज किया था। माणिकतल्ला कांड के 6 वर्ष बाद रोड कांड में 16 जुलाई, 1914 को भाईजी मारवाड़ी समाज के तीन अन्य युवकों के साथ राजद्रोह के अपराध में गिरफ्तार किए गए। हालांकि ठोस सबूतों के अभाव में उन्हें रिहा तो कर दिया गया, पर कलकत्ता से दूर बांकुरा जिले के सिमलापाल में 21 महीने के लिए नजरबंद कर दिया गया। इस दौरान भाईजी की आध्यात्मिक साधना तो बढ़ी, लेकिन पारिवारिक विपत्तियां भी टूट पड़ीं। शिलांग में भूकंप में दादा कणिराम के अपार वैभव का विनाश, इसी चिंता में पिता की अकाल मृत्यु, व्यापार में जबरदस्त घाटा, कर्ज का बोझ और संबंधियों का तिरस्कारपूर्ण व्यवहार, बहनों की शादी तथा घर खर्च की चिंता ने घेर लिया। 4 मई,1918 को नजरबंदी खत्म हुई तो उन्हें बंगाल से निष्कासित कर दिया गया। चिंता में डूबे भाईजी राजस्थान के रतनगढ़ में अपने पैतृक निवास लौट आए। उस समय वे 25 वर्ष के थे।
एक दिन अचानक उन्हें मुंबई से सेठ जमनालाल बजाज का पत्र मिला। वे भारत के सबसे अमीर उद्योगपति ही नहीं, बल्कि गांधी जी के निकट सहयोगी और स्वाधीनता संग्राम के अग्रणी नेता भी थे। भाई जी मुंबई में जमनालाल जी से मिले। दोनों ने पहली ही भेंट में एक-दूसरे को अपना लिया। मुंबई में ही वे कांग्रेस नेताओं के करीब आए। 1920 में लोकमान्य तिलक के निधन के समय भाईजी उनके पास ही थे। जमनालाल और गांधी जी की इच्छा थी कि भाईजी राजनीति में सक्रिय रहें। लेकिन भाईजी 24 घंटे गंगा तट पर एकांत में बैठने और आगे का संपूर्ण जीवन ईश्वर भक्ति में व्यतीत करना चाहते थे। उनमें सत्संग, सामाजिक-धार्मिक संगठनों से जुड़ाव, ज्ञान और वैराग्य के भाव तेजी से बढ़ रहे थे। लेकिन ईश्वरीय इच्छा कुछ और ही थी।
गीता-प्रेस और कल्याण की योजना
29 अप्रैल, 1923 को जयदयाल जी की प्रेरणा से श्रीमद्भगवद्गीता के प्रकाशन के लिए उर्दू बाजार, गोरखपुर में गीता प्रेस की स्थापना हुई। मुंबई के बिड़ला भवन में मारवाड़ी समाज की सभा में प्रसिद्ध उद्योगपति घनश्याम दास बिड़ला ने भाईजी के सामने प्रस्ताव रखा कि सत्संग में बोले जाने वाले विचारों और सिद्धांतों के प्रचार के लिए एक पत्रिका का प्रकाशन जरूरी है। भाईजी ने कहा, ‘‘मेरा कोई अनुभव नहीं है।’ इस पर बिड़ला जी बोले, ‘‘प्रयास कीजिए।’’ वे गोयन्दका जी के इस आदेश को नहीं टाल सके कि ‘आपके द्वारा भगवान का कोई बड़ा कार्य होने वाला है।’ पत्रिका का नाम ‘कल्याण’ भाईजी का ही दिया हुआ है।
भाईजी बम्बई में ‘कल्याण’ का शुभारंभ कर 1927 में गोरखपुर आ गए। 44 वर्ष की साधना और परिश्रम से उन्होंने गीता प्रेस और कल्याण के क्रिया-कलापों को अतुलनीय ऊंचाई तक पहुंचा दिया। उन्होंने कल्याण के 46 विशेषांक निकाले। देश में आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक, सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र के लोग उनका आदर करते थे। उन्होंने लगभग 25,000 पृष्ठों का मौलिक साहित्य सृजन किया, जो ‘कल्याण’ और गीता प्रेस के रूप में उनकी अक्षय कृति का स्मारक है। कल्याण का अंग्रेजी संस्करण ‘कल्याण कल्पतरु’ 1934 में चिम्मनलाल गोस्वामी के संपादन में शुरू हुआ।
पुरस्कार या जीवनी लेखन के प्रस्ताव को वह कठोरता से मना कर देते थे तो अपनी प्रशंसा में आए पत्रों को जला देते थे। एक बार तत्कालीन गृह मंत्री गोविंदबल्लभ पंत उन्हें ‘भारत रत्न’ देने का प्रस्ताव लेकर गोरखपुर गए, लेकिन भाईजी ने बड़ी विनम्रता से उसे अस्वीकार कर दिया था। गोरखपुर विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के अध्यक्ष रहे भगवती प्रसाद सिंह के विशेष आग्रह पर उन्होंने अपने जीवन का कुछ हिस्सा उन्हें बताया था, जिस पर ‘कल्याण पथ-निर्माता और राही’ नाम से एक पुस्तक प्रकाशित हुई। इसकी भूमिका भाईजी के अत्यंत आदरणीय पं. गोपीनाथ कविराज जी ने लिखी। इसके अलावा भी भाईजी के जीवन, उनके आध्यात्मिक और लौकिक अनुभवों से जुड़ी अनेक पुस्तकें हैं और आज भी लिखी जा रही हैं। उनके गो-लोक प्रयाण के बाद उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए ‘भाईजी पावन-स्मरण’ नाम से एक ग्रंथ प्रकाशित हुआ, जिसमें उनकी गहन साधना और महानता का उल्लेख है।
विश्व आध्यात्मिक संतों, शंकराचार्यों, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीति क्षेत्र के श्रेष्ठ लोगों ने जिन शब्दों में उन्हें स्मरण किया है, वह सचमुच पावन है। ऐसे पावन भाईजी को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।
टिप्पणियाँ