राष्ट्र की सांस्कृतिक एकता के सूत्रधार जगद्गुरु आदि शंकराचार्य अब से लगभग 1200 वर्ष पूर्व यदि आदि शंकराचार्य का महापुरुषार्थी इस धराधाम पर न आया होता तो विदेशी आक्रमणकारियों के षड्यंत्रों के कारण हमारी सनातन भारतीय संस्कृति शायद कहीं खो चुकी होती। मात्र 32 वर्ष के छोटे से जीवनकाल में वैदिक चिंतन व संस्कृति की रक्षा के लिए उन्होंने जो प्रयास और पुरुषार्थ किए, वे वाकई स्तुत्य हैं। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ अपनी कृति ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में लिखते हैं कि दूरदर्शी आचार्य शंकर इस तथ्य से भलीभांति अवगत थे कि वैदिक भारत में देव मंदिरों की बड़ी प्रतिष्ठा थी।
उस कालावधि में मंदिरों को राष्ट्र मंदिर का लघुरूप माना जाता था। तभी तो प्रत्येक देवता के हाथ में शस्त्र और शास्त्र दोनों ही दिए गए थे। इन देव मंदिरों में राजा, राजगुरु व मंदिर पुरोहितों के मध्य राष्ट्र निर्माण व समाज के उत्थान की विविध गतिविधियों की चर्चा होती थी और संस्कृति संरक्षण की योजनाएं बनती थीं। वैदिक भारत की राष्ट्र मंदिरों की इस अनूठी परिकल्पना से अभिप्रेरित होकर आचार्य शंकर ने देश में राष्ट्रीय भावना को मुखरित और जाग्रत करने के देश के चार कोनो में चार धामों (उत्तर में बद्रीनाथ, दक्षिण में रामेश्वरम, पूर्व में जगन्नाथपुरी व पश्चिम में द्वारिका) की स्थापना कर उन्होंने देश में सांस्कृतिक जागरण के अपने दायित्व को तो निभाया ही, राष्ट्रवाद की भावना को भी बलवती बनाया।
इन चार धामों की स्थापना के पीछे उनका मूल उद्देश्य राष्ट्र व संस्कृति बचाने का था। आचार्य शंकर द्वारा स्थापित ये चारों धाम राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ रखने में आज भी अप्रतिम योगदान कर रहे हैं। आचार्य शंकर सही मायने में अत्यंत दूरदर्शी राष्ट्र निर्माता थे। उनके द्वारा स्थापित भारत के चार धाम राष्ट्र की आध्यात्मिक ऊर्जा सघन तेजपुंज होने के साथ देश के सांस्कृतिक पुनरोत्थान के आधार स्तंभ भी माने जाते हैं। यही नहीं, उनकी इन स्थापनाओं को देश को विदेशी आक्रांताओं से बचाने की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम माना जाता है।
राष्ट्रकवि दिनकर के अनुसार सचमुच वह ‘वंदेमातरम्’ के पहले सृष्टा थे, जिन्होंने बंकिम चंद्र चटर्जी के लिए मार्ग प्रशस्त किया। वह वेदों के प्रकांड विद्वान थे और वैदिक संस्कृति को आधार बनाकर ‘स्वराज्य’ के तारों को पूरे देश में पूरकर अपने महान कार्य का संपादन कर रहे थे। वह महर्षि मनु, विदुर और चाणक्य की साक्षात मूर्ति थे जो राष्ट्र देव की आराधना के लिए कुशल शिल्पकार सिद्घ हुए। उन्होंने पथभ्रष्ट राजनीति व किंकर्त्तव्यविमूढ़ राजधर्म को सही दिशा दी थी। यह हमारा दुर्भाग्य था कि यह महामानव अधिक समय तक हमारे मध्य नहीं रह सका।
वेद के संगठन सूक्त के मर्मज्ञ इस ऋषि के पुण्य प्रताप का ही परिणाम था कि जब देश की राष्ट्रीयता को सैकड़ों टुकड़ों (रियासतों) में बांटने का कुचक्र रचा गया, तब भी हमारे राष्ट्र की सांस्कृतिक एकता विखंडित नहीं हुई, बताते चलें कि असाधारण प्रतिभा की धनी यह विभूति दक्षिण भारत के केरल प्रान्त के निम्बूदरीपाद ब्राह्मणों के ‘कालड़ी ग्राम’ में सन 788 ईसा पूर्व में श्रीशिव गुरु तथा भगवती आर्यम्बा के घर वैशाख शुक्ल पंचमी के पावन दिन जन्मी थी। कहा जाता है कि इनके माता-पिता परम शिव भक्त थे और संतान प्राप्ति की कामना से दोनों ने दीर्घकाल तक भगवान शंकर की आराधना की थी।
उनकी कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें स्वप्न में दर्शन देकर वरदान मांगने को कहा, उन्होंने प्रभु से एक दीर्घायु व सर्वज्ञ पुत्र का वर मांगा। तब भगवान शिव ने कहा कि ‘वत्स, दीर्घायु पुत्र सर्वज्ञ नहीं होगा और सर्वज्ञ पुत्र दीर्घायु नहीं होगा। तब शिवगुरु ने सर्वज्ञ पुत्र की प्राप्ति की प्रार्थना की।’ धार्मिक मान्यता के अनुसार आचार्य शंकर को भगवान शिव का ही अवतार माना जाता है। कहा जाता है कि केवल तीन वर्ष की अल्पायु में ही इस परम प्रतापी बालक ने अपनी मातृभाषा मलयालम के अनेकों ग्रंथ कंठस्थ कर लिए थे। दुर्भाग्य से इतनी कम आयु में ही शंकर के सिर से पिता का साया उठ गया। माता ने कर्त्तव्यपालन करते हुए पुत्र को ज्ञान अर्जित करने गुरुकुल भेजा और अति कुशाग्र बुद्धि वाले शंकर मात्र सात वर्ष की आयु में चारों वेदों के ज्ञाता हो गए।
ज्ञात हो कि आचार्य शंकर का जन्म ही मानव कल्याण और सनातन धर्म की रक्षा के लिए हुआ था। वेदाध्ययन ने उन्हें संन्यासी बनकर राष्ट्र जागरण को प्रेरित किया किंतु मां की आज्ञा के बिना यह संभव न था। अतः उन्होंने एक युक्ति निकाली। वे मां के साथ नित्य निकट की पूर्णा नदी में स्नान को जाते थे। योजना के तहत वे मां के साथ स्नान को गए और अचानक चिल्लाकर मां को पुकारते हुए बोले- मां! मगरमच्छ ने पैर पकड़ लिया है। यदि तुम मुझे संन्यासी बनने की आज्ञा दे दो तो मेरी जान बच सकती है। रोती-बिलखती मां अपनी मृत्यु पश्चात उनके द्वारा अपने अंतिम संस्कार का वचन लेकर उन्हें अनुमति प्रदान कर देती हैं और आचार्य शंकर संन्यास परम्परा का उल्लंघन करके भी मां का अंतिम संस्कार का वचन पालन करते हैं।
मां से आज्ञा लेकर बालक शंकर महज आठ साल की उम्र में गृहत्याग कर मध्य प्रदेश में नर्मदा तट पर स्थित परमपूज्य स्वामी श्री गोविंदपाद जी महाराज की शरण में पहुंचते हैं। कहा जाता है कि वेदांत के प्रकांड विद्वान महायोगी गोविंदपाद से गुरुदीक्षा व संन्यास ग्रहण कर शंकर ने महज दो वर्ष की अवधि में वेदांत शास्त्र की अध्ययन पूर्ण कर जब काशी में वेदांत के गूढ़ रहस्यों पर प्रवचन देकर प्रकांड पंडितों की महासभा में अपनी विद्वता का झंडा गाड़ा था तब उनकी आयु महज 11 वर्ष थी। अपने समय के भास्कर भट्ट, दण्डी, मयूरा हर्ष, अभिनव गुप्त, मुरारी मिश्रा, उदयनाचार्य, धर्मगुप्त, कुमारिल, प्रभाकर आदि मूर्धन्य विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित कर इस किशोर संन्यासी ने समूचे भारत में प्रसिद्धि प्राप्त कर ली थी।
दूरदर्शी आचार्य शंकर ने आने वाले समय की आवश्यकता को समझा और विदेशी आक्रांताओं के षड्यंत्रों से देशवासियों को जागरूक करने के लिए सांस्कृतिक जनजागरण का बिगुल बजाया। उन्होंने किंकर्तव्यविमूढ़ राजधर्म को सही दिशा दी। उन्होंने न केवल अध्यात्म साधना के शिखर पर आरुढ़ होकर राष्ट्रीय एकता के सत्य को जाना, बल्कि बाह्य जीवन में भी राष्ट्रीय एकता की स्थापना की। काशी प्रवास शंकराचार्य जी के लिए वरदान सिद्ध हुआ। मणिकर्णिका घाट पर स्नान हेतु जाते हुए उनके मार्ग में एक चांडाल चार कुत्तों के साथ आ खड़ा हुआ। शिष्यों ने उसे मार्ग से हटने का आदेश दिया तिस पर वह चांडाल पूछ बैठा – ‘गंगा के तट पर बैठकर आप बड़ा उपदेश देते हैं कि सभी में वही एक तत्व विराजमान है, तो स्पर्श हो जाने से आप कैसे अशुद्ध हो सकते हैं ? स्पर्श से आत्मा अशुद्ध हो जाएगी या देह ? आप किसके स्पर्श से बचना चाहते हैं ? ”आचार्य शंकर को जब यह बोध होता है कि यह गूढ़ ज्ञान की बात करने वाला कोई साधारण व्यक्ति तो नहीं हो सकता तो वे तुरंत नतमस्तक होकर उस चांडाल को गुरु मान लेते हैं। मान्यता है कि चांडाल के रूप में स्वयं काशी विश्वनाथ जी ने उनका मार्गदर्शन दिया था।
काबिलेगौर हो कि आचार्य शंकर के समय में महात्मा बुद्ध का दिव्य तत्वदर्शन अपना मूल स्वरूप खो चुका था। सीमाओं पर म्लेच्छों की दृष्टि थी। ऐसे संक्रमण काल में देश में विलुप्त वैदिक संस्कृति की पुर्नप्रतिष्ठा करना उनकी राष्ट्रनिर्माणी योजना का एक महत्वपूर्ण अंग था, उन्होंने देशभर में वैदिक धर्म के प्रचार के लिए चिद्विलास, विष्णु गुप्त, हस्तामलक, समित पाणि, ज्ञानवृन्द, भानु गर्भिक, बुद्धि विरंचि, त्रोटकाचार्य, पद्मनाम, शुद्धकीर्ति, मंडन मिश्र, कृष्ण दर्शन आदि उद्भट विद्वानों को संगठित कर उनके सहयोग से वेद धर्मानुयायियों की एक विशाल धर्म सेना बनाई और सम्पूर्ण भारत में धर्म सुधार की हलचल मचा दी। उनके इन सतत प्रयत्नों का फल यह हुआ कि जनता के मानस में धर्म संबंधी जो भी भ्रान्तियां घर कर रही थीं वे सब दूर होने लगीं और सारे देश में वैदिक धर्म का शंखनाद फिर गूंजने लगा।
भगवान बुद्ध ने प्रचलित भारतीय धर्म में आए गतिरोध व मूढ़ मान्यताओं को दूर करने के लिए बौद्ध धर्म चलाया था किन्तु बौद्ध मतावलम्बी जब हिन्दू देवी-देवताओं को अपमानित करने लगे और बौद्ध मठ वामाचार के केन्द्र बनने लगे तो शंकराचार्य ने पूरे देश में पदयात्रा कर वैदिक धर्म का पुनरुद्धार किया। बौद्धों को परास्त कर वैदिक धर्म के उत्कर्ष के लिए आचार्य शंकर ने पाशुपत, शाक्त, तांत्रिक, शैव, माहेश्वर, वैष्णव आदि सम्प्रदायों के मठाधीशों से लोहा लिया, जिन्होंने धर्म के विकृत रूप का प्रचार करके जनता को कुमार्गमागी बना रखा था। उन्होंने ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, मांडूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, बृहदारण्यक और छान्दोग्य उपनिषद के भाष्य लिखकर एक नई विचार क्रांति को जन्म दिया। मंडन मिश्र और कुमारिलभट जैसे तद्युगीन सुप्रसिद्ध बौद्ध विद्वानों से धर्म की उपादेयता पर शास्त्रार्थ कर वैदिक धर्म का पुनरुद्धार किया। वह वेदों के मर्मज्ञ थे।
वैदिक चिंतन को अमली जामा पहनाकर उन्होंने जगन्नाथपुरी, उज्जियिनी, द्वारका, कश्मीर, नेपाल, बल्ख, काम्बोज तक की पदयात्रा की और भारतीय वैदिक धर्म का जयघोष किया। आचार्य शंकर का बौद्ध धर्म के प्रकांड विद्वान आचार्य मण्डन मिश्र साथ हुआ शास्त्रार्थ भारतीय इतिहास की एक अमूल्य आध्यात्मिक सम्पदा है। शास्त्रार्थ की शर्त थी जो भी पराजित होगा वह विजयी के मत को स्वीकारेगा। यदि मण्डन मिश्र हारते हैं तो उन्हें आचार्य शंकर की भांति संन्यास का जीवन ग्रहण करना होगा और यदि शंकर हारे तो वे गृहस्थ जीवन अपना लेंगे। शास्त्रार्थ में निर्णायक की भूमिका मंडन मिश्र की पत्नी उभय भारती ने निभाई। एक रोचक घटनाक्रम के शंकर विजयी हुए और मंडन को संन्यास ग्रहण करना पड़ा।
इस तरह आचार्य ने वैदिक ज्ञान की सर्वोच्चता साबित की। देश भ्रमण के दौरान जब वे बद्रीनाथ धाम पहुंचे तो उन्हें मूर्ति विहीन देवालय की दुर्दशा की बात पता चली। बौद्धों ने मूर्ति नारद कुण्ड में फेंक दी थी। उन्होंने स्वयं नारद कुण्ड में कूद कर देवमूर्ति बाहर निकाली मगर विग्रह का एक पांव खण्डित था। पंडितों ने खंडित विग्रह की स्थापना का विरोध किया पर शंकराचार्य के तर्कों के आगे उन्हें निरुत्तर होना पड़ा। अंतत: मूर्ति जोड़कर पुन: उसकी प्रतिष्ठा की गई।
जीवन के अंत समय में आचार्य शंकराचार्य को भगंदर का फोड़ा निकल आया था। वैद्यों की राय थी कि वह एक स्थान पर रहकर उपचार करें अन्यथा फोड़ा घातक बन जाएगा किन्तु शंकराचार्य ने स्पष्ट कह दिया कि मेरे शरीर से कहीं अधिक महत्वपूर्ण मेरा कर्तव्य है, उसके अपूर्ण रहते हुए मैं विश्राम नहीं ले सकता। वे निरंतर उस कष्ट में भी काम करते रहे और अंत में 32 वर्ष की अल्पायु में जगद्गुरु की पदवी पाकर इस संसार से विदा हो गए।
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