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जीत राष्ट्र की

कभी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगाना और संघ से जुड़े लोगों को सरकारी नौकरियों से हटा देना, संघ के कार्यक्रमों को अनुमति न देना अथवा सार्वजनिक स्थानों पर संघ के कार्यक्रमों का आयोजन न होने देना आम बातें होती थीं। लेकिन डीएमके की इसी तरह की कोशिश को न्यायपालिका ने सिरे से खारिज कर दिया। यह भारत की राष्ट्रशक्ति की जीत और तुष्टिकरण की बड़ी हार है

by पाञ्चजन्य ब्यूरो
Apr 17, 2023, 09:13 am IST
in भारत, संघ, तमिलनाडु
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डॉक्टर साहब ने जो भविष्यवाणी की थी वह तब सत्य सिद्ध हुई, जब ब्रिटिश भारत छोड़कर गए। उनकी भविष्यवाणी यह थी कि यदि अंग्रेजों को जिस किसी भी कारण से, भारत छोड़कर जाना ही पड़ा और हिंदू एक सशक्त राष्ट्र के रूप में पूरी तरह संगठित न हुए, तो इस बात की क्या गारंटी है कि हम अपनी स्वतंत्रता की रक्षा कर पाएंगे? यह उनकी भविष्यदर्शी जिज्ञासा थी।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तमिलनाडु में प्रस्तावित पथ संचलन पर रोक लगाने के डीएमके सरकार के प्रयासों को सर्वोच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया है। मद्रास उच्च न्यायालय ने भी रा.स्व.संघ को तमिलनाडु में राज्यव्यापी पथ संचलन करने की अनुमति दी थी, जिसे चुनौती देने राज्य सरकार शीर्ष अदालत पहुंची थी।

मात्र मुफ्तखोरी से कोई राजनीतिक आधार टिका नहीं रह सकता, यह बात डीएमके भी उतनी ही अच्छी तरह जानती है, जितना अरविंद केजरीवाल। यही कारण है कि दोनों मुस्लिम वोट बैंक को अपने साथ बनाए रखने के लिए हिंदू विरोध की हर सीमा पार करते रहते हैं। तमिलनाडु की डीएमके सरकार द्वारा संघ की रैली पर लगाई गई रोक का एक बड़ा पहलू यही था, जिसे अंतत: सर्वोच्च न्यायालय ने भी खारिज कर दिया। न्यायपालिका ने अपने निर्णय में क्या कहा है, इसकी चर्चा आगे की जाएगी, किंतु महत्वपूर्ण यह भी है कि सर्वोच्च न्यायालय का यही निर्णय पूरे देश पर लागू होगा। इसका अर्थ यह हुआ कि चाहे वह सपा हो, कांग्रेस हो या ममता बनर्जी की टीएमसी या कोई भी और, इनमें से कोई भी अब रा.स्व.संघ की किसी रैली को किसी कल्पित आधार पर प्रतिबंधित नहीं कर सकेगा।

यह समझना कठिन नहीं है कि आखिर डीएमके तमिलनाडु में रा.स्व.संघ के पथ संचलन को लेकर इतनी भयभीत क्यों है कि पहले वह इसकी अनुमति देने से इनकार करता है, फिर उच्च न्यायालय में हार जाने के बाद शीर्ष अदालत तक जाना जरूरी समझता है। इसे समझने के लिए थोड़े व्यापक परिप्रेक्ष्य में जाना होगा। कांग्रेस ने हमेशा ही संघ को नकारात्मक छवि के साथ पेश करने और यहां तक कि हिंदू आतंकवाद जैसा शब्द गढ़ने की भी कोशिश की थी। यह भी जरा भी आश्चर्य का विषय नहीं है कि किस तरह संघ को लेकर कांग्रेस का दृष्टिकोण पाकिस्तान की सोच से मेल खाता है। इतिहास और राजनीति को एक साथ देखा जाए तो निश्चित रूप से संघ के प्रति डीएमके का मॉडल उसी प्रकार हिंदू विरोध की मानसिकता से ग्रस्त है, जिस प्रकार का मॉडल कांग्रेस का है। बारीकी से देखा जाए, तो सच यह है कि डीएमके का मॉडल ही कांग्रेस मॉडल का अंतिम किला था, क्योंकि इसमें तुष्टिकरण और कम्युनिस्टों के प्रभाव (कांग्रेस मॉडल) के अलावा कथित द्रविड़वाद का पहलू भी जोड़ दिया जाता था।

सर्वोच्च न्यायालय का फैसला डीएमके के मॉडल पर एक करारा प्रहार है, जो वास्तव में सिर्फ इस्लामी कट्टरपंथ को प्रोत्साहन देने और भारत विरोधी शक्तियों को हटाने का एक जरिया बना हुआ है। जिस प्रकार न्यायपालिका भारतीय संस्कृति और सत्य की संरक्षा में आकर खड़ी हुई है, वह श्लाघनीय और प्रशंसनीय है। न्यायपालिका का यह फैसला डीएमके द्वारा संघ के संदर्भ में किए गए तमाम झूठे प्रचार को खारिज करता है। जिस दल के इतिहास में अपने कार्यकर्ताओं को फौजदारी करने के लिए साइकिल की चेन रखने की सलाह शीर्ष स्तर से दी गई हो, जिस दल के शासनकाल में मंदिरों पर हमले रोजमर्रा की बात हों, उसे संघ जैसे अनुशासित और राष्ट्रप्रेमी संगठन के बारे में कोई बात करने का भी अधिकार नहीं था। इस इतिहास को छिपाया नहीं जा सकता कि डीएमके वह दल है, जो देश के एक पूर्व प्रधानमंत्री की हत्या के दोषी आतंकवादी संगठन को समर्थन देता रहा है।

हिंदुओं ने सदा भारत को अपनी मातृभूमि माना

मैसूर उच्च न्यायालय, 5 जुलाई 1966
याचिकादाता के विद्वान अधिवक्ता ने इसी एम्फलेट के ओर भी न्यायालय का ध्यान आकर्षित किया है, जहाँ यह कहा गया है कि उच्चतम न्यायालय के कतिपय प्रधान न्यायाधीश यथा श्री मेहरचंद महाजन, श्री पतंजलि शास्त्री तथा प्रमुख इतिहासवेत्ता यथा डॉ. आर.सी. मजुमदार तथा डॉ. राधाकुमुद मुखर्जी और अन्य अनेक प्रमुख व्यक्तियों ने संघ के आयोजनों की अध्यक्षता की है अथवा संघ के स्वयंसेवकों को संबंधित किया है। ज्ञात होता है कि राष्ट्रपति राधाकृष्णन् भी, जब वे हिंदू विश्वविद्यालय, बनारस के उपकुलपति थे तब, संघ की शाखा देखने आए थे और इसके कार्यकतार्ओं की सराहना की थी। (द्रष्टव्य संघ-दर्शन, पृ. सं.39)

उपर्युक्त सारी सामग्री से प्रथम दृष्ट्या यह ज्ञात होता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक अ-राजनैतिक सांस्कृतिक संगठन है, जिसे गैर हिंदुओं के प्रति घृणा अथवा द्वेष नहीं है। इस देश के अनेक प्रमुख और प्रतिदित व्यक्तियों ने इसके आयोजनों की निस्संकोच अध्यक्षता की है अथवा इसके स्वयंसेवकों द्वारा किए जा रहे कार्य की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। हमारे जैसे देश में, जिसने लोकतांत्रिक जीवन पद्धति (जैसी कि संविधान द्वारा सुनिश्चित की गई है) को अपनाया है, इस प्रतिपत्ति को स्वीकार करना युक्तियुक्त नहीं होगा कि शांतिपूर्वक कार्य करने तथा हिंसा में विश्वास न रखने वाली ऐसी संस्था की सदस्यता ग्रहण करने और उसकी गतिविधियों में भाग लेने भर से कोई व्यक्ति, जिसके चरित्र और पूर्ववृत्त में और कोई दोष नहीं है, मुंसिफ के पद पर नियुक्ति के लिए अनुपयुक्त हो जाता है।

विद्वान महाधिवक्ता ने अपने इस तर्क के समर्थन में कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सिद्धांत और विचारधारा विध्वंसक है तथा पंथ-निरपेक्षता के विरोधी है, हमारा ध्यान ‘संघ दर्शन’ के पृ. 11 और 13 के कतिपय अवतरणों की ओर आकर्षित किया है। उसने ‘हमारी राष्ट्रीयता के बारे में सच्चाई’ शीर्षक के अंतर्गत निम्नलिखित अवतरण पढ़ा-

‘अपने इतिहास पर सरसरी तौर पर दृष्टिपात करने भर से प्रथम दृष्ट्या यह ज्ञात होता है कि अत्यंत प्राचीन काल से हिंदू इस धरती की सच्ची संतान के रूप में पले-बढ़े हैं। उनके लिए यह मातृभूमि से भी कुछ बढ़कर पावन भूमि है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमारे श्रेष्ठ, शौर्यपूर्ण और पराक्रमी वीरों ने इसकी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए अपना जीवन-रक्तबहाया है, अपने पावन धर्म और संस्कृति की पताका को सदा ऊँचा रखा है, उसके पावित्र धर्म ग्रंथों- रामायण, महाभारत, गीता तथा देदों का प्रणयन किया है। उन्होंने महान संतों और ऋषियों को जन्म दिया जिन्होंने राष्ट्रीय जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उच्चतम प्रतिमान स्थापित किए हैं। इसमें किंचिन्मात्र भी संदेह नहीं कि हिंदू इस भूमि के राष्ट्रीय जीवन के वास्तविक निर्माता हैं, इसके सच्चे राष्ट्रिक हैं। संक्षेप में यह हिंदू राष्ट्र है।’

दूसरा अवतरण, जो हमें पढ़कर सुनाया गया, पृष्ठ 13 पर है, वह इस प्रकार है-‘डॉक्टर साहब ने जो भविष्यवाणी की थी वह तब सत्य सिद्ध हुई, जब ब्रिटिश भारत छोड़कर गए। उनकी भविष्यवाणी यह थी कि यदि अंग्रेजों को जिस किसी भी कारण से, भारत छोड़कर जाना ही पड़ा और हिंदू एक सशक्त राष्ट्र के रूप में पूरी तरह संगठित न हुए, तो इस बात की क्या गारंटी है कि हम अपनी स्वतंत्रता की रक्षा कर पाएंगे? यह उनकी भविष्यदर्शी जिज्ञासा थी। इसका उत्तर पाकिस्तान निर्माण के रूप में मिला। इतिहास ने स्वयं को दुहराया। शोक है कि अपने इतिहास से हमने केवल एक ही सबक सीखा है वह यह कि हमने इतिहास से कुछ नहीं सीखा। हमारी मातृभूमि के कई बड़े भाग-आधा पंजाब, आधा बंगाल, सिंध तथा सीमाप्रांत एक बार फिर शत्रु के हाथ में चले गए।’

ये दो अवतरण मात्र इतिहास का कुछ ब्यौरा देते है, यद्यपि उनकी भाषा थोड़ी उग्र और आक्रामक लग सकती है। इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि हिंदुओं ने सदा ही भारत को अपनी मातृभूमि माना अथवा रामायण, महाभारत, गीता और वेद हमारे देश के आध्यात्मिक और सांस्कृतिक जीवन के निर्माण में आज भी अपना योगदान कर रहे हैं। यह कहना कि वे हमारे राष्ट्रीय जीवन के वास्तविक निर्माता हैं, मात्र एक दृष्टिकोण को व्यक्त करता है।

दूसरे अवतरण में पाकिस्तान विषयक निर्देश है, जिनमें उसे एक अमैत्रीपूर्ण देश कहा गया है। यह पैम्फलेट वर्ष 1964 का है। अत: इन अवतरणों को जो परिस्थितियां उस समय वर्तमान थीं, उन्हीं के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। सीमा पर घटीं कुछ घटनाओं के कारण यह जनमत बना कि पाकिस्तान के भारत के प्रति शत्रुतापूर्ण इरादे हैं। वातावरण सर्वत्र यही था कि भारत के लिए खतरा है। नेताओं ने, चाहे वे राजनैतिक रहे हों अथवा नहीं, अपनी-अपनी धार्मिक आस्था के बावजूद, देशभक्ति का तकाजा समझ कर, जन सामान्य का आह्वान किया कि पाकिस्तान की धमकियों के विरुद्ध देश की रक्षा करें। परवर्ती सैनिक घटनाओं ने लोगों से पड़ोसी देश की सैनिक गतिविधियों से सावधान’ तथा ‘जागरूक’ रहने के आह्वान को उचित ठहराया।

उपर्युक्त अवतरण के संबंध में युक्तियुक्त रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि उससे राज्य के प्रति शपथ-पत्र में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विरुद्ध किए गए अभिकथनों का औचित्य सिद्ध होता है। अवतरण भारत के नागरिकों के किसी वर्ग के विरुद्ध न तो हिंसा का प्रचार करता है और न ही घृणा का। यह भी नहीं कहा गया है कि याचिकादाता ने कभी साम्प्रदायिकता की वकालत की अथवा उसने किसी ऐसी गतिविधि में भाग लिया, जिसका उद्देश्य समाज के विभिन्न वर्गों के प्रति घृणा अथवा कटुता पैदा करना था। इन परिस्थितियों में हम संतुष्ट हैं।
(हस्ताक्षरित) एम. सदाशिवय्या न्यायाधीश
(हस्ताक्षरित) टी.के. तुकोल न्यायाधीश

फिर इस प्रश्न पर लौटें कि तमिलनाडु की वर्तमान डीएमके सरकार रा.स्व.संघ के राज्यव्यापी पथ संचलन से इतनी भयभीत क्यों थी कि इसे रोकने के लिए सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच गई?

बात शुरू होती है 2022 के उत्तरार्ध से। संघ ने गांधी जयंती 2 अक्तूबर, 2022 को स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव, डॉ बी.आर. आम्बेडकर की जन्म शताब्दी और विजयादशमी के उपलक्ष्य में रैलियां निकालने का निर्णय किया था और राज्य के अधिकारियों से इसके लिए आवश्यक अनुमति मांगी थी। सितंबर के अंत में डीएमके सरकार ने संघ को रैलियां आयोजित करने की अनुमति देने से इनकार कर दिया। इसके लिए तर्क दिया गया कि पॉपुलर फ्रंट आफ इंडिया (पीएफआई) पर केंद्र सरकार द्वारा प्रतिबंध लगाने से तनाव बढ़ गया है। हालांकि 22 सितंबर को मद्रास उच्च न्यायालय ने पुलिस को निर्देश दिया था कि 28 सितंबर तक संघ को अनुमति दी जाए। इसके खिलाफ सरकार की पुनरीक्षण याचिका 2 नवम्बर को खारिज हो गई थी।

अदालत के हस्तक्षेप के बाद राज्य सरकार ने 6 नवंबर को 50 में से तीन स्थानों पर जुलूस और जनसभाओं की अनुमति दी। 23 स्थानों पर संघ को इनडोर कार्यक्रम करने की अनुमति दी गई और शेष को प्रतिकूल खुफिया रिपोर्टों के मद्देनजर खारिज कर दिया गया। इस फैसले ने प्रस्तावित रैलियों की अनुमति दी, लेकिन केवल कुछ क्षेत्रों और कुछ मार्गों से मार्च करने की अनुमति जैसी कई शर्तें भी लगा दी थीं। साथ ही इनडोर, रिक्त स्थान या ‘मिश्रित’ स्थानों जैसे मैदान या स्टेडियम में बैठकें आयोजित करने की बात कही गई, जिसमें संख्या सीमित और प्रतिबंधित रह जाती। संघ ने इन जुलूसों को ‘चार दीवारों की सीमा के भीतर’ आयोजित करना अस्वीकार कर दिया। तमिलनाडु के कई प्रमुख हिंदू नेताओं ने भी एकल-न्यायाधीश के इस फैसले को अनुचित और पक्षपातपूर्ण करार दिया। संघ ने इसके खिलाफ उच्च न्यायालय में अपील की।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक अ-राजनैतिक सांस्कृतिक संगठन है, जिसे गैर हिंदुओं के प्रति घृणा अथवा द्वेष नहीं है। इस देश के अनेक प्रमुख और प्रतिदित व्यक्तियों ने इसके आयोजनों की निस्संकोच अध्यक्षता की है अथवा इसके स्वयंसेवकों द्वारा किए जा रहे कार्य की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। हमारे जैसे देश में, जिसने लोकतांत्रिक जीवन पद्धति (जैसी कि संविधान द्वारा सुनिश्चित की गई है) को अपनाया है, इस प्रतिपत्ति को स्वीकार करना युक्तियुक्त नहीं होगा कि शांतिपूर्वक कार्य करने तथा हिंसा में विश्वास न रखने वाली ऐसी संस्था की सदस्यता ग्रहण करने और उसकी गतिविधियों में भाग लेने भर से कोई व्यक्ति, जिसके चरित्र और पूर्ववृत्त में और कोई दोष नहीं है, मुंसिफ के पद पर नियुक्ति के लिए अनुपयुक्त हो जाता है।

10 फरवरी, 2023 को दो जजों की बेंच ने प्रस्तावित रैली पर 4 नवंबर, 2022 के आदेश को उलट दिया व बैठकें आयोजित करने, जनता तक पहुंचने तथा वैचारिक, राजनीतिक अभिव्यक्ति के नागरिकों के मूल अधिकार का हवाला देते हुए पहले लगाए गए प्रतिबंधों को हटा दिया। यही नहीं, अदालत ने यह भी कहा कि कानून और व्यवस्था की किसी भी अप्रत्याशित या अनपेक्षित स्थिति से निपटना राज्य और पुलिस विभाग का कर्तव्य है। अदालत ने यह भी कहा, ‘कानूनी अधिकार के लिए पर्याप्त सुरक्षा प्रदान करना भी राज्य का कर्तव्य है।’
उच्च न्यायालय में न्यायमूर्ति आर. महादेवन और न्यायमूर्ति मो. शफीक की पीठ ने संघ के पथसंचलन आयोजित करने के अधिकार के साथ अपने नवीनतम फैसले में कहा, ‘‘भले ही राज्य को प्रतिबंध लगाने का अधिकार है, यह उन्हें पूरी तरह से प्रतिबंधित नहीं कर सकता, बल्कि केवल उचित प्रतिबंध लगा सकता है।’’ न्यायाधीशों ने स्पष्ट रूप से कहा, ‘‘चूंकि संगठन को सार्वजनिक स्थानों पर शांतिपूर्ण जुलूस और बैठकें आयोजित करने का अधिकार है, इसलिए राज्य नए खुफिया इनपुट की आड़ में ऐसी कोई शर्त नहीं लगा सकता है, जिससे संगठन के मौलिक अधिकारों का लगातार उल्लंघन हो।’

सर्वोच्च न्यायालय का फैसला
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में संघ की ओर से प्रस्तुत अधिवक्ता की दलील का हवाला देते हुए कहा है कि राज्य सरकार द्वारा उच्च न्यायालय के समक्ष रखी गई मुख्य आपत्ति यह थी कि एक अन्य संगठन (पीएफआई) पर प्रतिबंध लगाने के आदेश के बाद कुछ स्थानों पर कानून और व्यवस्था की समस्याएं सामने आईं, जिनके कारण कई मामले दर्ज किए गए। ‘‘हम इन मामलों के विवरण में नहीं जाना चाहते हैं, क्योंकि यह मामले संवेदनशील हैं, लेकिन राज्य सरकार द्वारा उपलब्ध कराए गए चार्ट से स्पष्ट है कि कई मामलों में प्रतिवादी संगठन (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) के सदस्य पीड़ित थे और वे अपराधी नहीं थे।’’ अत: उच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश में दोष निकालना हमारे लिए संभव नहीं है।

और पंचाट ने प्रतिबंध से इनकार किया

अवैध गतिविधियां (निवारण) अधिकरण
दिनांक 10.12.1992 की केन्द्रीय सरकार की अधिसूचनाओं के विषय में
आदेश
इस पंचाट को यह निर्णय करना है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद् और बजरंग दल को, जिन्हें केन्द्र सरकार ने दिनांक 10 दिसम्बर 1992 की पृथक-पृथक अधिसूचनाओं द्वारा अवैध घोषित किया है. अवैध घोषित करने के लिए पर्याप्त कारण हैं या नहीं।
मैं पहले ही अधिनिर्णीत कर चुका हूं कि रिज्यूमे में उठाये गये इस अभिवाक पर विचार नहीं किया जा सकता कि बजरंग दल वीएचपी का अग्रणी संगठन है, क्योंकि तीनों आक्षिप्त अधिसूचनाओं में ऐसे किसी आधार का उल्लेख नहीं किया गया है। अत: मैं अधिनिर्णीत करता हूं कि बजरंग दल को अवैध संगठन घोषित करने के लिए पर्याप्त कारण नहीं है। क्योंकि अधिसूचना में बजरंग दल के विरुद्ध उल्लिखित कारण निरस्त कर दिये जाने योग्य हैं।

आरएसएस के विरुद्ध मामला
जहां तक आरएसएस का सम्बन्ध है, अधिसूचना में यह अभिकथित किया गया था कि आरएसएस अपने अनुयायियों को विभिन्न धार्मिक समुदायों के लोगों के बीच साम्प्रदायिक वैमनस्य, वैर-भाव या विद्वेष की भावना और घृणा या दुर्भावना को बढ़ावा देने अथवा बढ़ावा देने का प्रयास करने के लिए प्रोत्साहित करता और सहायता देता आ रहा है। यह धारा 153-क(अ) के प्रावधानों का पुनर्कथन है। इस आधार के सम्बन्ध में प्राथमिक तथ्य ये हैं कि आरएसएस ऐसे दोषारोपण और दावे करता रहा है कि कतिपय धार्मिक समुदायों के लोग परकीय धर्मों को मानते हैं, अत: वे भारत के राष्ट्रीय नहीं हैं। इस प्रकार वह उन लोगों तथा अन्य लोगों के बीच वैमनस्य या विद्वेष की भावना अथवा घृणा या दुर्भावना उत्पन्न करता या कर सकता है।

केन्द्र सरकार के विद्वान विधि-परामर्शदाता ने मुख्यत: ऐसे साक्ष्य एवं सामग्री का सहारा लिया है, जिनसे यह प्रकट होता हो कि वीएचपी आरएसएस का अग्रणी संगठन है और बजरंग दल वीएचपी का अग्रणी संगठन। तथा ये सभी संगठन अन्त: सम्बद्ध हैं इत्यादि। वीएचपी के कार्यकलाप ऐसे हैं जो भारतीय दण्ड संहिता की धारा 153- क की परिधि में आते हैं, अत: प्रतिनिधिभाव से आरएसएस भी उक्त धारा के अधिकार क्षेत्र में आता है।

…उपर्युक्त कारणों से मैं यह अधिनिर्णीत करता हूं कि आरएसएस को अवैध संगठन घोषित करने के लिए पर्याप्त कारण मौजूद नहीं है और आरएसएस के सम्बन्ध में आक्षिप्त अधिसूचना निरस्त किये जाने योग्य है।

भारत के राजपत्र में प्रकाशित एस.ओ. 901 (ई) दिनांक 10 दिसम्बर 1992: असाधारण [भाग कक, धारा 3, उपधारा (2)]
ऊपर दिये गये कारणों से मैं निर्णय करता हूं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को अवैध संगठन घोषित करने के पर्याप्त कारण नहीं हैं। तदनुसार पूर्वोक्त अधिसूचना में की गयी उक्त घोषणा को निरस्त करता हूं। 4 जून, 1993 (हस्ताक्षर) पी.के. बाहरी

डीएमके की समस्या

उच्च न्यायालय का फैसला आने के कुछ दिनों के भीतर ही डीएमके के लीगल सेल ने संघ के पथ संचलन को विफल करने के लिए योजना बना डाली। रोचक बात यह है कि उस समय तक संघ ने अपनी नई तिथियों और नए मार्गों की भी घोषणा नहीं की थी, लेकिन डीएमके को चिंता संघ से भी ज्यादा थी।

क्यों? क्या डीएमके और अन्य छद्म सेकुलर दलों को यह अनुमान होने लगा था कि जाति, भाषा और अन्य कल्पित आधारों पर विभाजन करने के उनके पैंतरे अब बेकार होते जा रहे हैं और हिंदू समाज की एकजुटता बढ़ती जा रही है, जिसे रोक सकना अब उनके वश की बात नहीं रह गई है? क्या डीएमके को तमिलनाडु में हिंदू जागरण या पुनरुत्थान की पदचाप महसूस होने लगी है? क्या राज्य में हिन्दुत्व की बढ़ती लहर डीएमके के वैचारिक अस्तित्व के लिए खतरा पैदा कर रही है?

वास्तव में सत्तारूढ़ डीएमके ने सांप्रदायिक तनाव की संभावना सहित ‘कानून और व्यवस्था के मुद्दों’ का हवाला देते हुए संघ के पथ संचलन की अनुमति देने से इनकार करने के तरीके भले ही खोजे हों, जमीनी कारण इसी भय की पुष्ट करते हैं। डीएमके के सहयोगी राजनीतिक दलों – विशेष रूप से दलितों के नाम पर बनाए गए संगठन वीसीके (विदुथलाई चिरुथिगल काची, जिसे पहले दलित पैंथर्स आॅफ इंडिया या दलित पैंथर्स इय्यक्कम के नाम से जाना जाता था) और वामपंथी सड़कों पर उतर कर 2 अक्टूबर को संघ की रैली का विरोध कर रहे थे। उनकी समस्या यह थी कि गांधी जयंती के अवसर पर संघ की रैली के आयोजन से ‘महात्मा गांधी की हत्या के पीछे संघ का हाथ था’ – किस्म के उनके गढ़े गए नैरेटिव का भारी नुक्सान हो जाता। यहां तक कि यह दल ‘सांप्रदायिक सद्भाव’ के लिए संघ की किसी भी रैली के मुकाबले ‘मानव शृंखला’ बनाने का कार्यक्रम आयोजित करने पर उतारू थे। जाहिर है कि ‘कानून और व्यवस्था के मुद्दे’ का उनका तर्क सिर्फ एक कागजी बहाना था।

वास्तव में अदालत का फैसला डीएमके के लिए भी इस दृष्टि से संतोषप्रद माना जाना चाहिए कि अदालत ने उसके कामकाज पर कोई सीधी टिप्पणी नहीं की। अन्यथा जब कोई सरकार अदालत में यह कह रही हो कि राज्य के कुछ इलाके संवेदनशील हैं या हो सकते हैं, (और इस कारण नागरिकों को उनके मूल अधिकारों से वंचित रखा जाना चाहिए) तो जाहिर तौर पर वह अपनी इस अक्षमता का भी प्रमाण प्रस्तुत कर रही होती है कि वह इन इलाकों में कानून और व्यवस्था का अनुपालन नहीं करा सकती।

प्रश्न यह भी है कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद डीएमके सरकार क्या करेगी? महत्वपूर्ण यह भी है कि डीएमके ने जो भी तर्क दिए या गढ़े हैं, उन्हें स्वीकार करने के लिए कोई भी तैयार नहीं है। तूतीकोरिन प्रकरण के संदर्भ में अभी हाल ही में जो तथ्य उजागर हुए हैं, वह साफ तौर पर दशार्ते हैं कि अंतरराष्ट्रीय स्वार्थों वाली शक्तियां किस प्रकार तमिलनाडु में भारत के खिलाफ सक्रिय हैं या रही हैं, जिसमें राज्य सरकार कम से कम मूकदर्शक रह कर अपनी भूमिका निभाती आ रही है। तमिलनाडु में मंदिरों पर हमले और मंदिरों की संपत्ति के दुरुपयोग की स्थिति आंध्र प्रदेश से जरा भी भिन्न नहीं है, जिसके बारे में कई लोगों का मानना है कि यह काम ईसाई कन्वर्जन माफिया के तुष्टिकरण के लिए किया जाता रहा है। जाहिर है कि ऐसी स्थितियों के ही कारण तमिलनाडु सरकार संघ के बढ़ते प्रभाव से बहुत ज्यादा हिली हुई थी।

सुप्रीम कोर्ट का निर्णय अभी तक चली आ रही है उस परिपाटी का भी पटाक्षेप कर देता है, जिसमें जिहादियों, वामपंथियों, सेकुलरवादियों और तुष्टीकरण गिरोहों के लिए संघ और हिंदू सबसे आसान निशाना होते रहे हैं।

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