15 अप्रैल 2023 को उत्तर प्रदेश में प्रयागराज में पुलिस कस्टडी में अस्पताल जा रहे माफिया अतीक अहमद की हत्या कर दी गयी। यह हत्या निंदनीय है, क्योंकि चाहे कोई भी हो, चाहे किसी का अपराध कितना भी बड़ा क्यों न हो, उसका दंड उसे क़ानून के अनुसार ही मिलना चाहिए, क्योंकि ऐसी हर घटना कहीं न कहीं व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न उत्पन्न करती है।
माफिया अतीक अहमद के हत्यारोपी पुलिस की गिरफ्त में हैं और जांच चल रही है। अब आगे की कार्रवाई में स्पष्ट होगा कि आखिर उन्होंने ऐसा क्यों किया? परन्तु अतीक अहमद के बेटे के एनकाउंटर से लेकर अतीक अहमद की हत्या तक मीडिया के एक वर्ग का रुदन निरंतर चल रहा है। यह हंगामा समझ से परे है। क्योंकि हर हंगामे का कोई न कोई उद्देश्य तो होता ही है। इनके हंगामे का उद्देश्य समझ से परे है। यह वही हंगामा है जो इशरत जहां के एनकाउंटर से आरम्भ हुआ था। उसके एनकाउंटर को मामला बनाया गया था और मीडिया के उस शोर को सभी ने सुना। तब पहली बार जनता ने इस कथित संवेदना के सच को अनुभव किया था कि कैसे संवेदना की एकतरफा बात की जा रही है। हालांकि बाद में एक बड़े पत्रकार का यह भी कहना था कि वह तो कोई छोटा मोटा ब्लास्ट करने के लिए आई थी। पूरे देश में हैरान होकर एक आतंकी घटना करने वाली लड़की के प्रति मीडिया के उस वर्ग की सहानुभूति को विस्मय से देखा था।
इशरत जहां के एनकाउंटर के समय लोगों ने देखा कि कैसे विमर्श को बदला जाता है, एवं एक आतंकी घटना को अंजाम देने वाली लड़की को पीड़ित बताया जाता है और कैसे पीड़ित को शोषण करने वाला बताया जाता है। समय का पहिया आगे बढ़ा और वर्ष 2014 के चुनावों के बाद इस हंगामे में और तेजी आई। मगर यह तेजी केवल एकतरफा थी। जैसे वर्ष 2002 में गोधरा में जले हुए लोगों की पीड़ा को अनदेखा ही नहीं किया था मीडिया के उस वर्ग ने, जिसने इशरत को छोटा मोटा ब्लास्ट करने वाली कहा था, बल्कि जो बेचारे असमय जलकर मरे थे, उन्हें ही उनकी मृत्यु का कारण बताने का भी असफल प्रयास किया था।
अत: संवेदना के इस एकतरफा विमर्श का सबसे विकृत रूप अतीक अहमद की हत्या वाले दिन दिख रहा है। वह इसलिए क्योंकि तीन वर्ष पहले यह 16 अप्रैल ही था, जिस दिन वह घटना हुई थी, जिसकी तुलना भारत में सहज किसी और घटना से नहीं हो सकती थी। और वह ऐसी जघन्य घटना थी कि उसके विषय में कल्पना करके ही भय से रोंगटे खड़े हो जाएं। वह घटना थी, महाराष्ट्र में पालघर में दो साधुओं एवं उनके ड्राइवर की पुलिस के सामने भीड़ द्वारा पीट-पीटकर हत्या। इस घटना का जब वीडियो सामने आया था तो हर संवेदनशील मन क्षोभ एवं क्रोध से भर गया था। हर संवेदनशील मन को यह सोचकर बेचैनी हो रही थी कि आखिर यह कैसे हो सकता है और वही वर्ग जो इशरत खान के एनकाउंटर पर रो रहा था, वह वर्ग इसे एक साधारण घटना मानकर रिपोर्ट कर रहा था।
आज जब मानवाधिकार की बातें की जा रही हैं, तो सोशल मीडिया पर कई लोग यह प्रश्न कर रहे हैं कि जो लिबरल वर्ग आज अपराधियों की हत्या पर इतना शोर मचा रहा है वह पालघर के साधुओं की हत्या के समय मौन क्यों था?
https://twitter.com/JAIN_24_T/status/1647403056173309952
यहाँ तक कि एक वर्ग तो यह भी कह रहा था कि लोगों ने बच्चा चोर समझकर हत्या कर दी थी। जबकि यह बात समझ से परे है कि क्या इतने लोगों की उपस्थिति में कोई ऐसा सोच भी सकता है और जब एक बार साधुओं को पुलिस के हवाले कर दिया था, तो भी हत्या?
इस पर पुलिस पर एवं प्रदेश की महाविकासअगाडी सरकार पर उसी वर्ग ने कोई प्रश्न नहीं उठाया था, जो आज उत्तर प्रदेश की उस पुलिस पर प्रश्न उठा रहा है, जिसने अपनी तत्परता से हत्यारों को पकड़ा। सबा नकवी ने उत्तर प्रदेश की कथित निष्क्रियता पर प्रश्न उठाया तो लोगों ने यही उनसे पूछा कि आज तीन वर्ष बाद वह ऐसा क्यों पूछ रही है?
Why is Saba finally talking about it after 3 years, has there been some new development in the Palghar lynching? https://t.co/Dpoy5nG2ch pic.twitter.com/DzSN9zeFOI
— Wealth CreatoRatty, Not DistributoRatty (@YearOfRat) April 16, 2023
एक नहीं कई यूजर लिबरल गैंग की उस चुप्पी पर प्रश्न उठा रहे हैं, जो वह पालघर वाले मामले पर साधे रहे थे। यह भी सत्य है कि किसी भी मीडिया ने जाकर उन संतों के परिजनों की व्यथा जानने का प्रयास नहीं किया? किसी ने भी यह जानने का प्रयास नहीं किया कि वह बेचारा ड्राइवर कौन था? आज जब एक माफिया की कब्रकारिता तक की जा रही है, तो ऐसे में प्रश्न उठता ही है कि आखिर संवेदना एकतरफा माफियाओं की ओर या आतंकियों की ओर क्यों बहती है?
क्यों हमदर्दी की एक छोटी सी लहर भी भगवा वस्त्र पहने उन बेचारे साधुओं तक नहीं पहुँची, और न ही आज तक पहुँच रही है, जिनके प्राण भीड़ ने अकारण ही लिए थे। एक तरफ वह बेचारे साधु थे, जिन्होनें उस भीड़ का कुछ नहीं बिगाड़ा था, फिर भी उनकी हत्या कर दी गयी थी। लिबरल मीडिया के लिए वह एक साधारण घटना थी और उस वर्ग ने न ही सरकार पर प्रश्न किए और न ही वहां पर जाकर खोजी पत्रकारिता की यहाँ तक कि यह तक मुहीम नहीं चलाई कि अपराधी पकडे जाएं। और वहीं कल जबसे एक माफिया की हत्या हुई है, उसमें मजहब से लेकर मासूमियत तक का एंगल डालकर उसे हिन्दू-मुस्लिम का रंग दिया जा रहा है। सबा नकवी यह तक कह रही हैं कि क्या इसी भारत में गांधी जी हुए थे? इस पर लोग उन्हें सोशल मीडिया पर ही उत्तर दे रहे हैं कि असहिष्णुता की पराकाष्ठा क्या थी?
When Gandhi was assassinated, congress led a massive carnage of Brahmins in Maharashtra.
Savarkar’s brother was stoned to death.
Anyone with surname Godse was being burnt alive.
Remember Palghar Sadhus? Anandmargi Sadhus?
The list is long. https://t.co/e0TebcB0UQ
— Aabhas Maldahiyar 🇮🇳 (@Aabhas24) April 16, 2023
किसी भी हत्या को कभी भी सही नहीं ठहराया जा सकता है, और न ही ठहराया जाना चाहिए, परन्तु यह भी नहीं होना चाहिए कि हत्याओं पर एकतरफा विमर्श चलाया जाए। अभी बहुत दिन नहीं हुए हैं जब पंजाब में भी एक शिव सेना के नेता की हत्या कर दी गयी थी। और लोगों ने यह तक कहा कि अतीक अहमद की हत्या पर मानवाधिकार का शोर मचाने वाली लॉबी वही है, जो याकूब मेनन के लिए माफी चाह रहे थे।
अभिजित अय्यर मित्रा ने राना अयूब की टाइमलाइन साझा करते हुए लिखा कि यह राना अयूब की टाइमलाइन है, जब महाराष्ट्र की पुलिस ने पालघर के साधुओं को लिंच होने के लिए भीड़ के हवाले कर दिया था।
https://twitter.com/Iyervval/status/1647498817720184834
वहीं अभिजित मजुमदार ने भी लिखा कि चूंकि उस समय “सेक्युलर” उद्धार ठाकरे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे, इसलिए अतीक और अशरफ की हत्या पर शोर मचाने वाले लोग चुप थे।
दरअसल भारत का लोक अराजकता पसंद नहीं करता है, वह नियम क़ानून से चलने वाले लोग हैं। और ऐसा उनकी प्रवृत्ति में है। यह आज से नहीं है। भारत के लोक के विषय में मैगस्थनीज़ ने भी लिखा है कि भारत के लोग ताला नहीं लगाते हैं और अपना घर ऐसे ही छोड़ जाते हैं। वह कानून का पालन करने वाले लोग हैं। इंडिका के हवाले से यह वर्णन H G RAWLINSON ने अपनी पुस्तक INTERCOURSE BETWEEN INDIA AND THE WESTERN WORLD FROM THE EARLIEST TIMES TO THE FALL OF ROME में किया है।
भारत के लोक की इस प्रवृत्ति को न समझने वाले लोग जब अपराध और अपराधी का मजहब या जाति के आधार पर बचाव करते हैं या ऐसा विमर्श गढ़ने का प्रयास करते हैं, जो भारत की आत्मा का विरोधी है, उसके एकदम विरोध में है तो उसी प्रकार लोग सच सामने लाने का प्रयास करते हैं, जैसा पालघर के मामले में लिबरल वर्ग की चुप्पी को लेकर आज किया है।
किसी भी हत्या पर उल्लास भारत के लोक की प्रवृत्ति नहीं है, परन्तु यह भी सत्य है कि माफियाओं और आतंकियों के समर्थन को किसी भी स्थिति में उचित नहीं ठहराया जा सकता है। क्योंकि यह तो दुष्यंत ने भी कहा है कि
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि सूरत बदलनी चाहिए!
वहीं लिबरल मीडिया अपने हंगामे में भारत के लोक की सूरत विकृत करना चाहता है, इसका हर संभव विरोध भारत का लोक ही करेगा जो वह कर रहा है!
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