देवभूमि उत्तराखण्ड की संस्कृति और विरासत अपने आप में अद्भुद और अनूठी है, यहां के मठ-मंदिरों का पौराणिक–धार्मिक महत्व इस विरासत को और समृद्ध बनाता है। देवभूमि के कण-कण में देवताओं का वास है। यहां निर्जीव देव डोलियां सजीव होकर देवनृत्य करती हैं। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की आलौकिक शक्तियां अलग-अलग रूप धारण कर दिव्य चमत्कारों से लोगों को श्रद्धा से सर झुकाने पर विवश कर देती हैं। दहकते अंगारों पर जाख देवता के नृत्य की परंपरा तो सदियों पुरानी है।
देवभूमि उत्तराखंड में रुद्रप्रयाग के गुप्तकाशी क्षेत्र स्थित देवशाल में चौदह गांवों के मध्य स्थापित जाख देवता मंदिर में प्रति वर्ष बैशाख मास, कृष्ण पक्ष, नवमी तिथि को भव्य जाख मेले का आयोजन किया जाता है। मेला आरम्भ होने के 2 दिन पूर्व से ही लोग बड़ी संख्या में भक्ति–भाव में तल्लीन होकर सर पर टोपी, कमर में कपड़ा बांध कर नंगे पैर लकड़ियां, पूजा सामग्री और खाद्य सामग्री एकत्र करते हैं। सभी ग्रामीण मिलकर एक भव्य अग्निकुंड का निर्माण करते हैं। इस मानव निर्मित अग्निकुंड में लगभग 100 कुंतल लकड़ियां समाहित की जाती हैं। अग्निकुण्ड में लकड़ियों का ढ़ेर लगभग 10 फुट से भी ऊँचा होता है। बैसाखी के दिन समस्त देवी देवताओं की पूजा-अर्चना के बाद रात्रि में अग्निकुंड में अग्नि प्रज्वलित कर दी जाती है। रात भर नारायणकोटि और कोठेड़ा ग्राम के ग्रामीण अग्निकुंड की देखभाल करते हैं। सम्पूर्ण रात में लकड़ियां जल कर वहां पर बहुत बड़े और भव्य अग्निकुंड में परिवर्तित हो जाती हैं। अगले दिन दोपहर में जाख देवता का पश्वा (जिस इंसान के ऊपर देवता अवतरित होते हैं, उन्हें स्थानीय भाषा में पश्वा कहा जाता है और कुमाउनी भाषा में उन्हें डंगरिया भी कहा जाता है) मन्दाकिनी नदी में स्नान करने जाता है। जहां वह जाख देवता पश्वा ढोल दमऊ की मधुर स्वर लहरी में स्नान से निवृत होकर ग्राम नारायण कोटि से कोठेडा, देवशाल होते हुए जाख धार पहुंचता है।
वहां पहुंच कर देवता का पश्वा उस भव्य अग्निकुंड में नृत्य करता है। धधकते अग्निकुंड में जाख देवता पश्वा पर अवतरित होकर नंगे पांव इस अग्निकुंड में कूद कर लोगों की बलाएं लेता है। वहां उपस्थित आस्थावान, पर्यटक आदि इस दृश्य को देखकर एकदम अचंभित हो जाते हैं कि देवता का पश्वा धधकते अंगारों पर नंगे पांव कैसे नृत्य करते हैं। वह अग्निकुंड इतना विकराल होता है कि उसकी भयंकर अग्नि की तपिस के कारण लोग कुछ समय तक भी उसके आस–पास ठहर नहीं पाते हैं और देवता का पश्वा उसमें नृत्य करता है, वह भी दो बार, इस अद्भुद दृश्य को देखकर भक्त श्रद्धा से नतमस्तक हो जाते हैं। ज़ाख देवता अग्नि स्नान के बाद शीतल जल के घड़े से स्नानं करता है तत्पश्चात देवता अपने भक्तों को आशीर्वाद स्वरूप पुष्प प्रदान करता है। भक्त लोग अग्निकुंड की भभूत को प्रसाद के रूप में अपने घर ले जाते हैं। इसके साथ ही इस भव्य–दिव्य मेलें का समापन भी हो जाता है।
जाख देवता की लोककथा –
1 – प्रचलित मान्यताओं के अनुसार लोग जाख देवता को यक्ष देवता के साथ कुबेर का रूप भी मानते हैं। कुछ विद्वानों का मत है कि जाख राजा महाभारत काल वाले यक्ष देवता हैं। इनके कई भक्त इन्हें महाभारत का बर्बरीक भी मानते हैं। गोत्र हत्या के पाप से मुक्ति के लिए जब पांडव मोक्ष धाम केदारनाथ को चल पड़े तो गुप्तकाशी के निकट जाख नामक तोक में कुछ दिन विश्राम किया था। द्रोपदी की जिद से जब प्यास लगने के बाद पांडव तालाब के किनारे पहुंचे, तब भगवान यक्ष ने उनसे पांच प्रश्न किए थे। जब पांडव उत्तर देने में असमर्थ हो गए तो वह बेहोश हो गए थे। अंत में युधिष्ठिर तालाब के किनारे पहुंचे तो उन्होंने देखा कि सभी पांडव बेहोश होकर जमीन पर गिरे हैं। युधिष्ठिर ने ज्यों ही पानी पीना चाहा तो यक्ष प्रकट हो गए और उन्होंने युधिष्ठिर से भी पांच प्रश्न किए, जिनका युधिष्ठिर ने सही जवाब दिया, तब बेहोश पांडव होश में आए। तब से लेकर आज तक यहां पर यक्ष की पूजा-अर्चना की जाती है। बताया जाता है, कि धधकते अंगारों पर नृत्य करने से पूर्व नर पश्वा को इस कुंड में जल नजर आता है।
2 – जाख देवता के सम्बंध में एक अन्य लोक कथा के अनुसार ग्राम नारायण कोटि के किसी व्यक्ति को जोशीमठ में स्नान के दौरान एक गोलाकार और सुंदर धारियों वाला पत्थर मिला था। वह इस पत्थर को उपयोगी मानकर घर ले आया था। रात में उस व्यक्ति को स्वप्न में जाख देवता के दर्शन हुए, उन्होंने उससे कहा कि जिस पत्थर को उठाकर तू अपने घर लाया है, वास्तव में वह मेरा प्रतीक रूप है। कल मेरे प्रतीक रूप को अपने गांव के ऊपर जंगल में कंडी में लेकर जाना, जहां यह मेरा प्रतीक रूप पत्थर गिर जायेगा वहां पर मेरा देवालय स्थापित कर देना। अगले दिन नित्यकर्मों से निवृत होकर वह व्यक्ति उस पत्थर को कंडी में रख कर जंगल की ओर गया, उसके हाथ से कंडी एक घनघोर बाज के जंगल के बीच धार “छोटी पहाड़ी या टीला” में गिरा, उसी स्थान पर देवता का मंदिर स्थापित कर दिया गया और उस धार का नाम जाखाधार पड़ गया था।
3 – एक अन्य स्थानीय लोकमान्यताओं के अनुसार कई सौ वर्ष पूर्व स्थानीय लोग मवेशियों को चुगाने के लिए बुग्यालों की ओर जाते हैं। वहां पालसी एक पत्थर को अपनी झोली में ऊन काटने के उद्देश्य से डाल लेता है। धीरे-धीरे उस पत्थर का आकार और द्रव्यमान बढ़ने लगता है। पालसी जब अपने मवेशियों के साथ वापस केदारघाटी आता है तो ग्राम पंचायत देवशाल की पवित्र भूमि में झूला टूट जाता है और यह पत्थर भी नीचे गिर जाता है। पालसी को रात्रि में भगवान दर्शन देते हैं और उस पत्थर को वहीं पर स्थापित करके पूजा–अर्चना करने को निर्देशित करते हैं। पालसी दूसरे दिन उस पत्थर को विधिवत स्थापित कर देता है, उसी समय से वहां पर भगवान यक्ष की पूजा की जाती है।
उत्तराखण्ड में रुद्रप्रयाग के गुप्तकाशी स्थित देवशाल में जाख देवता का मेला मुख्यतः चार दिन चलता है। इस मेला अवधि में जाख देवता के मंदिर में घंटे–घड़ियाल बजाना और फूल तोड़ना निषेध रहता है। प्रत्येक वर्ष आयोजित होने वाले इस मेले में हजारों की संख्या में भक्तजन जाख देवता के दर्शन करने आते हैं। 11वीं सदी से चली आ रही अनवरत परंपरा आज भी उसी उत्साह के साथ मनाई जाती है।
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