हमारे उत्सवधर्मी राष्ट्र का बहुरंगी सौंदर्य व जीवंतता हमारी पर्व संस्कृति में निहित है और ऋतु चक्र परिवर्तन से जुड़े हमारे विविध पर्व-त्योहारों के पीछे निहित सामाजिक, सांस्कृतिक व आध्यात्मिक प्रयोजन हमारी सनातन संस्कृति की उत्कृष्टता के परिचायक हैं। “बैसाखी” ऐसा ही एक प्रकृति पर्व है जो खासतौर पर पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तरी राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मनाया जाता है। इस पर्व पर सरल, श्रमनिष्ठ व उल्लासमय कृषक जीवन की जो झलक दिखायी देती है, वह अपने आप में अनूठी है। हम सभी सुविज्ञ हैं कि कृषिकर्म अत्यंत श्रमसाध्य है। नौकरी व व्यवसाय करने वाला वर्ग सिर्फ स्वयं व स्वयं के परिवार तक सीमित रहता है जबकि हमारे कृषक अनेक विषम परिस्थितियों व प्राकृतिक से जूझते हुए समूचे देशवासियों का पेट भरने के लिए अन्न उगाते हैं। इसीलिए हमारी सनातन संस्कृति में कृषक को “अन्नदाता” की पदवी से विभूषित किया गया है।
बैसाख माह में कृषि का यह उत्सव तब मनाया जाता है जब सूर्य की स्थिति परिवर्तन के कारण बैसाखी से पहले ज्यादातर खेतों में गेहूं पक जाता है और पकी हुई फसल को काटने की शुरुआत हो जाती है। बैसाखी के दिन सूर्यास्त के उपरांत नवान्न को अग्निदेव को अर्पित करने की परम्परा है। इस परम्परा के पीछे यह लोककल्याण का यह दिव्य भाव निहित है कि हे अग्नि देव! आप इस अन्न में इतनी शक्ति व ऊर्जा भर दें कि इससे समूचे राष्ट्र की जठराग्नि शांत हो सके। रंग-बिरंगे पारम्परिक परिधानों में सजे सिख समाज के लोग जब ढोल व नगाड़ों की ताल पर “भांगड़ा” व “गिद्दा” पाते हैं तो नव फसल के इस कृषि उत्सव का जोश व रौनक देखते ही बनती है। नानकशाही कैलेण्डर के अनुसार सिख पन्थानुयायियों के नववर्ष का शुभारम्भ इसी बैसाखी पर्व यानी बैसाख मास की पहली तारीख से होता है।
बैसाखी के दिन सन 1699 ई. में दशम गुरु गोविन्द सिंह जी महाराज ने केशवगढ़ आनंदपुर साहिब (पंजाब) की धरती पर गुरु नानक देव जी महाराज के निर्मल पंथ को एक नयी दिशा प्रदान करते हुए ‘खालसा पंथ’ की बुनियाद डाली थी। खालसा मूलतः फारसी भाषा का शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ होता है ‘खालिस’ यानी सोने के समान सौ टका खरा। खालसा पंथ के निर्माण के पीछे गुरु नानक देव जी का सतनाम का गुरुमंत्र तथा सत्यनिष्ठा व सामाजिक सद्भाव की भावना के साथ सेवा, शालीनता और संतोष की सीख के साथ अपने पूर्ववर्ती सभी धर्मगुरुओं की शिक्षाओं का सारतत्व ग्रहण करते हुए धर्म व न्याय के रक्षा लिए खालसा पंथ की आधारशिला रखी थी।
सिख पंथ की शिक्षाओं औए मूल्य मान्यताओं का अनुसरण करने वाले धर्मावलम्बी दशम गुरु द्वारा अमृत चखने के बाद खालिस हो गये। सिख अनुयायियों को खालिस बनाने की यह घटना मध्ययुग की एक अत्यंत क्रांतिकारी व आध्यात्मिक घटना मानी जाती है। उस समय भारतवर्ष में बर्बर मुगल आक्रान्ता औरंगजेब का शासन था और देश के हिन्दू विशेषकर कश्मीरी पंडित उस धर्मांध बादशाह की क्रूरता व अत्याचारों से बुरी तरह आतंकित थे। इस अन्याय का प्रतिकार करने के लिए बैसाखी के शुभ दिन गुरु गोविन्द सिंह ने स्वधर्म और स्वराष्ट्र की रक्षा के लिए अलग-अलग जातियों, धर्मों और क्षेत्रों से चुनकर पंच प्यारों को अमृत छकाया और पाँच ककार (कच्छ, कड़ा, कृपाण, केश तथा कंघा) धारण करना उनके लिए अनिवार्य बनाया। उन्होंने लोगों को पंथ व जाति के आधार पर भेदभाव छोड़कर मानवीय भावनाओं को महत्व देने की दृष्टि दी। इस अवसर पर उन्होंने एक नया जयघोष दिया- ‘’वाहे गुरु जी का खालसा-वाहे गुरु जी की फतेह’’ अर्थात खालसा ईश्वर का है और ईश्वर की विजय सुनिश्चित है। मानवता की रक्षा के लिए अपने अनुयायियों के एक हाथ में माला और दूसरे हाथ में तलवार पकड़ाकर संत और सिपाही के समन्वय की गुरु गोबिंद सिंह का परिकल्पना सचमुच अद्भुत है। इसी शुभ दिन गुरु गोबिंद सिंह ने गुरुओं की वंशावली को समाप्त कर “गुरु ग्रंथ साहिब” को मार्गदर्शक चुना।
गुरुजी ने खालसाओं में अलौकिक शक्ति संचार कर उनको उपदेश दिया कि ख़ालसा में ऊँच-नीच कोई नहीं, सब एक स्वरूप हैं। खालसा का पहला धर्म है कि देश मानव जाति की रक्षा के लिए तन-मन-धन सब कुछ न्यौछावर कर निर्धनों, अनाथों तथा असहायों की रक्षा के लिए सदा आगे रहना। श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ का सृजन करके लोगों में यह विश्वास उत्पन्न किया कि वे लोग एक ईश्वरीय कार्य को संपन्न करने के लिए उत्पन्न हुए हैं। जल्द ही इस पंथ ने नेतृत्व की कमान संभाल ली और जो सिख इस पंथ में शामिल नहीं हुए और हजामत बनवाते रहे, उन्हें सहजधारी कहा जाने लगा। औरंगजेब के अत्याचारों का मुकाबला करने के लिए अकाली खालसा सेना का गठन कर गुरु ने उन्हें नीले वस्त्र पहनने का आदेश दिया। इस अकाली सेना की एक शाखा सरदार मानसिंह के नेतृत्व में निहंग सिंही के नाम से प्रसिद्ध हुई। फ़ारसी भाषा में निहंग का अर्थ मगरमच्छ है, जिसका तात्पर्य उस निर्भय व्यक्ति से है, जो किसी अत्याचार के समक्ष नहीं झुकता है। इसका संस्कृत अर्थ निसर्ग है अर्थात् पूर्ण रूप से अपरिग्रही, पुत्र, कलत्र और संसार से विरक्त पूरा-पूरा अनिकेतन। निहंग लोग विवाह नहीं करते हैं और साधुओं की वृत्ति धारण करते हैं। इनके जत्थे का एक अगुआ जत्थेदार होता है। पीड़ितों, आर्तों और निर्बलों की रक्षा के साथ-साथ सिक्ख पंथ का प्रचार करना इनका पुनीत कर्तव्य होता है। वीर इतने थे कि प्रत्येक अकाली अपने को सवा लाख के बराबर समझता है। किसी की मृत्यु की सूचना भी यह कहकर दिया करते थे कि वह चढ़ाई कर गया, जैसे मृत्यु लोक में भी मृत प्राणी कहीं युद्ध के लिए गया हो। सूखे चने को बदाम और रुपए और सोने को ठीकरा कहकर ये अपनी असंग भावना का परिचय देते हैं।
बैसाखी पर्व का एक अन्य संदर्भ स्वतंत्रता आंदोलन की एक अन्य अविस्मरणीय तिथि से भी जुड़ा है। 13 अप्रैल 1919 को बैसाखी पर्व के दिन अमृतसर में जलियांवाला बाग नरसंहार हुआ था। कहा जाता है कि इसी बैसाखी के दिन भगत सिंह ने सर्वप्रथम सार्वजनिक तौर पर “मेरा रंग दे बसंती चोला” का गायन किया था। यह कहना अनुचित न होगा कि बैसाखी पर्व ने आजादी के पहले अंग्रेजी दासता के विरुद्ध समस्त देशवासियों को लामबंद किया था।
अजब हास्यास्पद स्थिति है कि एक ओर अंग्रेजी अप्रैल महीने की शुरुआत मूर्ख दिवस से होती है वहीं इसी अप्रैल में पड़ने वाले हिंदी माह बैसाख की शुरुआत त्याग, बलिदान की प्रेरणा देने वाले बैसाखी पर्व से होती है।
ज्ञात हो कि इस कृषि पर्व को देश में अलग-अलग नामों से मनाया जाता है। केरल में इसे “विशू”, बंगाल में “नब बर्षा”, असम में “रोंगाली बिहू”, तमिलनाडु में “पुथंडू” तथा उत्तराखंड व बिहार में “वैषाख पर्व” के नाम से मनाया जाता है। इस पर्व पर देशभर में बैसाखी के मेले भी लगते हैं।
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