चन्द्र सिंह नेगी “राही” उत्तराखंड के एक प्रमुख लोक गायक, गीतकार, संगीतकार, कवि, कथाकार और सांस्कृतिक संरक्षक थे। वह समग्र रूप से प्रतिभाशाली कलाकार थे, उन्हें अपने शिल्प की पेचीदगियों और महत्व की उत्कृष्ट समझ थी। अपनी रचनात्मक गतिविधियों के अतिरिक्त उन्हें उत्तराखंड के दुर्लभ गीत–संगीत के संरक्षण और प्रचार-प्रसार का गहरा शौक था। उन्हें उत्तराखंड की संगीत संस्कृति के ज्ञान का खजाना माना जाता था, जिस पर उन्होंने लगातार शोध किया, प्रतिनिधित्व किया और अपने श्रोताओं को समझाया था। जौनसार से लेकर जौहर घाटी तक पूरे उत्तराखंड की लोककथाओं के ज्ञान के लिए उन्हे जाना जाता था। उत्तराखंड के संगीत और संस्कृति के प्रति उनकी गहरी भक्ति के सन्दर्भ में उन्हें “उत्तराखंड लोक संगीत का भीष्म पितामह” के रूप में वर्णित किया जाता है।
जन्म – 28 मार्च सन 1942 गिवाली, पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखण्ड.
देहावसान – 10 जनवरी सन 2016 नई दिल्ली.
उत्तराखंड की लोक परम्परा के गीत गाने वाले चंद्रसिंह नेगी”राही” का जन्म पिता दिलबर सिंह नेगी और माता सुंदरा देवी के घर ग्राम गिवाली, मौददस्युन, पौड़ी गढ़वाल में 28 मार्च सन 1942 को हुआ था। चन्द्र सिंह नेगी को बचपन में पहाड़ी संगीत की परंपरा जिसमें सदियों पुराने पारंपरिक गीत, संगीत, वाद्ययंत्र और संगीत से जुड़ी सांस्कृतिक प्रथाएं शामिल हैं, पिता से विरासत में प्राप्त हुई थी। वह अपने पिता के साथ ठाकुली, डमरू और हुरुकी सहित पारंपरिक संगीत वाद्ययंत्रों को बजाया करते थे। चन्द्र सिंह उत्तराखण्ड के प्रत्येक दुर्लभ लोकवादी यंत्रों के मर्मज्ञ थे। उन्होंने उत्तराखण्ड के कोस- कोस पर बदलने वाले लोकगीतों में प्रवीण लोग भी खोज लिए थे। चन्द्र सिंह जीवन यापन के लिए मात्र 15 साल की उम्र में ही नौकरी की खोज में सन 1957 को जब वह गाँव से दिल्ली गए तो शुरुवाती दिनों में उन्हें बाँसुरी बेचने का काम मिला था। जहाँ पुरे दिन काम करने के बाद भी शाम तक इतना जमा नहीं हो पता था की वह दो वक्त का खाना खा सके। सरल स्वभाव के चन्द्र सिंह ने अपना संघर्ष लगातार जारी रखा था। अथक परिश्रम और संघर्ष के पश्चात उन्हें दूरसंचार विभाग में नौकरी प्राप्त हुई। अब उन्होंने निश्चय किया कि वह शास्त्रीय संगीत सीख कर विलुप्त हो रहें पहाड़ी गीत–संगीत को पुनर्जीवित करेंगें।
13 मार्च सन 1963 को आल इंडिया रेडियो दिल्ली केंद्र द्वारा भारतीय सेना के जवानों के लिए आयोजित एक कार्यक्रम में चंद्र सिंह को गाने का मौका मिला और उन्होंने “पर वीणा की” नामक लोकगीत गाया। लोगों ने उनकी आवाज़ और गाने दोनों को पसंद किया। इसके बाद उन्होंने आल इंडिया रेडियो के लखनऊ केंद्र के लिए गढ़वाली और कुमाउनी में गाना शुरू किया। चंद्र सिंह के प्रशंसकों की सख्या में लगातार वृद्धि होने लगी और उनके गीत–संगीत को पूरे पहाड़ में पसंद किया जाने लगा था। अब वह ऑल इंडिया रेडियो नजीबाबाद केंद्र से भी गाने लगे थे। चंद्र सिंह पहले पहाड़ी लोक गायक थे जिन्हे सबसे पहले दूरदर्शन में गाने का मौका मिला था। चन्द्र सिंह ने सन 1966 में अपने गुरु गढ़वाली कवि कन्हैयालाल डांडरियाल के लिए अपने प्रसिद्ध गीत “दिल को उमाल” की रचना की, उन्होंने ही चन्द्र सिंह नेगी को “राही” उपनाम दिया था। चन्द्र सिंह नेगी”राही” ने गढ़वाली और कुमाऊँनी भाषाओं में 550 से अधिक गीत गाए थे। उनका काम उस समय 140 से अधिक ऑडियो कैसेट पर उपलब्ध था। उन्होंने सम्पूर्ण भारत में 1,500 से अधिक शो में लाइव प्रदर्शन किया था। उनका रिकॉर्ड किया गया प्रथम एल्बम “सौली घुरा घुर” एक व्यावसायिक हिट संगीत था। चन्द्र सिंह नेगी”राही” एक गीतकार और कवि भी थे, उनके कविता संग्रहों में दिल को उमाल सन 1966, ढाई सन 1980, रामछोल सन 1981 और गीत गंगा सन 2010 शामिल हैं। उन्होंने मोनोग्राफ भी लिखे और बैले के लिए संगीत तैयार किया था। चन्द्र सिंह नेगी”राही” को एकमात्र ऐसा व्यक्ति माना जाता था जो उत्तराखंड के सभी पारम्परिक लोक वाद्ययंत्रों को बजा सकता था, जिसमें ढोल दमौ, शहनाई, दौर, थाली और हुरुकी आदि शामिल थे। उन्हें पहाड़ी संगीत के लिए अद्वितीय ताल अनुक्रमों “बीट पैटर्न” का भी ज्ञान था और वह इन सभी तत्वों को अपनी संगीत प्रस्तुतियों में शामिल किया करते थे। उन्होंने उत्तराखंड के विभिन्न लोक रूपों को शामिल करते हुए 2,500 से अधिक पुराने पारंपरिक गीतों को एकत्र और क्यूरेट किया था। उनकी महत्त्वाकांक्षी पुस्तक “ए कॉम्प्रिहेंसिव स्टडी ऑफ द सांग्स म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट्स एंड डांस ऑफ द सेंट्रल हिमालय” को उत्तरांचल साहित्य, संस्कृति और कला परिषद द्वारा प्रकाशित किया गया था। पुरस्कार और सम्मान के रुप में उन्हें मोहन उप्रेती लोक संस्कृति कला सम्मान, डॉ. शिवानंद नौटियाल स्मृति पुरस्कार, गढ़ भारती, गढ़वाल सभा सम्मान पत्र सन 1995 मोनाल संस्था, लखनऊ सम्मान पत्र आदि प्राप्त हुए थे। जनवरी सन 2016 में चंद्रसिंह नेगी”राही” अचानक अस्वस्थ हो गए थे, अथक प्रयासों के बाद भी वह स्वस्थ नहीं हो पाए और 10 जनवरी 2016 को 73 वर्ष की आयु में सर गंगाराम हस्पताल में उनका देहावसान हो गया था। चंद्रसिंह नेगी के जाने का मतलब लोक विधानों के एक युग का अवसान हो गया था।
चन्द्रसिंह नेगी “राही” प्रामाणिक पहाड़ी संगीत प्रस्तुत करने में एक दृढ़ विश्वास रखते थे। अपने बाद के वर्षों में उन्होंने भारतीय लोक संगीत के “बॉलीवुडकरण” और “वीसीडी संस्कृति” के साथ अपनी निराशा को खुले तौर पर व्यक्त किया था।अपने वक्ताओं के मन में गढ़वाली, जौनसारी, भोटिया और कुमाऊँनी जैसी भाषाओं की प्रतिष्ठा के नुकसान से भी वह बहुत पीड़ित थे, जिसे उत्तराखंड की अनूठी पहाड़ी संस्कृति की धीमी मृत्यु का संकेत माना था। वह उत्तराखण्ड राज्य सरकारों की सांस्कृतिक नीति में कमी के कठोर आलोचक थे। उत्तराखंड से बड़े पैमाने पर पलायन से वह बेहद चिंतित थे, जिसे उन्होंने अपने सन 1980 के दशक के गीत “अपनी थी मा तू लौट के आइजा” के माध्यम से संबोधित करने की कोशिश की थी। चन्द्रसिंह नेगी “राही” का मानना था कि लोक संगीत के संरक्षण से उत्तराखंड की भाषाओं और संस्कृति के संरक्षण में मदद मिल सके।
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