विश्व के ज्ञात इतिहास में सबसे भीषण दुर्घटना माना जाता है जिसे दुनिया भर के इतिहास की पुस्तकों में पढ़ाया जाता है। अब इसे चूक कहें या जान-बूझकर की गई
भोपाल गैस पीड़ितों को अतिरिक्त राहत देने संबंधी सर्वोच्च न्यायालय में चल रही सुनवाई अंतत: समाप्त हो गई। और इसके साथ ही इस उम्मीद का भी अंत हो गया कि हजारों लोगों को मौत की नींद सुलाने वालों को कभी दंड मिलेगा और जीवित बचे लोगों के दर्द पर कुछ और मरहम लगेगा। देश के हृदय प्रांत मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में यह भयानक गैस दुर्घटना 2 और 3 दिसम्बर 1984 की रात को हुई थी। इसे विश्व के ज्ञात इतिहास में सबसे भीषण दुर्घटना माना जाता है जिसे दुनिया भर के इतिहास की पुस्तकों में पढ़ाया जाता है। अब इसे चूक कहें या जान-बूझकर की गई लापरवाही कहा जाए कि यह पूरी तरह मानवीय कारणों से घटी थी और जो लोग इस भीषण त्रासदी के लिए जिम्मेदार थे, उन्हें पूरा संरक्षण मिला था… दुर्घटना के पहले भी और दुर्घटना के बाद भी।
इस दुर्घटना में अनुमानत: लगभग 16,000 लोगों के प्राण चले गए और पांच लाख से अधिक लोगों के जीवन पर स्थाई प्रभाव पड़े। लगभग तीन हजार मौतें तो दुर्घटना के 72 घंटे के भीतर ही हो गई थीं। और सप्ताह भर में आंकड़ा 8,000 तक पहुंच गया था। ये आंकड़े सरकार और अस्पतालों के रिकार्ड के हैं। जबकि उन हजारों लोगों की गणना तो हो ही नहीं सकी, जो भयग्रस्त होकर अपने गांव-घर भाग गए थे और जिन्होंने वहीं अंतिम श्वांस ली।
इस त्रासदी से जो लोग बचे, उन्हें भी स्वास्थ्य संबंधी कुछ स्थाई विसंगतियों ने जकड़ लिया है। इन जीवित पीड़ितों के लिए समय-समय पर राहत देने की याचिकाएं लगीं थीं। जो राहत मिली, वह भी सर्वोच्च न्यायालय के आदेशानुसार हुए एक समझौते के अंतर्गत ही मिली थी। अब पुन: जीवित बचे पीड़ितों के लिए यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन की उत्तराधिकारी फर्मों से 7,844 करोड़ रुपये की अतिरिक्त सहायता राशि देने के लिए केंद्र सरकार ने याचिका दायर की थी जो खारिज हो गई। याचिका खारिज करते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा कि डाउ केमिकल्स के साथ हुआ समझौता फिर से नहीं खुलेगा। न्यायालय ने गैस त्रासदी पीड़ितों को मुआवजा राशि दिलाने में सरकार की कार्यवाही को घोर लापरवाही बताया।
कदम-दर-कदम सरकारी संरक्षण
भोपाल को यह भीषण त्रासदी देने वाली कंपनी यूनियन कार्बाइड नाम से स्थापित थी। यह अंतरराष्ट्रीय कंपनी डाउ केमिकल का उपक्रम थी और इस कंपनी के कर्ता-धर्ता वारेन एंडरसन थे। कंपनी और कंपनी के प्रमुख एंडरसन को लेकर सरकार की लापरवाही कहें या खुला संरक्षण देने की बात कहें, यह कदम-कदम पर सामने आया है। त्रासदी के पहले भी और त्रासदी के बाद भी। कंपनी की भोपाल में स्थापना के समय यह प्रचार किया गया था कि इससे स्थानीय लोगों को रोजगार मिलेगा और उपभोक्ताओं को किफायत से कीटनाशक भी मिलेंगे। लेकिन यह कंपनी अपनी स्थापना के दिन से ही अनेक आशंकाओं के घेरे में रही।
3 दिसम्बर की प्रात: भोपाल की सड़कों का मंजर बहुत अलग था। लाशों और अचेत लोगों से पुराने भोपाल नगर, विशेष कर यूनियन कार्बाइड के आसपास की सड़कें भरीं थीं, वह भी उल्टी और दस्त की गंदगी के बीच। कहीं-कहीं तो जेवरातों की गठरियां और सामान भी बिखरा था, जिसे उठाने वाला कोई न था
कंपनी के भीतर काम करने वाली भारतीय मजदूर संघ से संबंधित श्रमिक यूनियन ने बाकायदा पत्रकार वार्ता बुलाकर सरकार का ध्यान खींचा था और किसी भी दिन किसी बड़ी दुर्घटना की आशंका जताई थी। तब यह आशंका संबंधित समाचार भोपाल और दिल्ली के कुछ समाचार पत्रों में प्रकाशित भी हुई थी। फिर मध्य प्रदेश विधानसभा में मुद्दा उठा। लेकिन तत्कालीन मध्य प्रदेश सरकार और कंपनी के प्रशासन ने हर स्तर पर आशंकाओं को निराधार बताया।
वह भयानक रात
और, अंतत: वह भयानक रात आ ही गई। कारखाने से गैस रिसाव शुरू हुआ। प्राणलेवा मिथाइल आइसो साइनाइड गैस पूरे नगर में भर गई। वह तेज ठंड की रात थी। वातावरण का तापमान संभवत: आठ डिग्री के आसपास रहा होगा। अत: गैस आसमान में न जा सकी। वह धरती से चिपक कर मानो एक चादर सी बनाकर फैल रही थी। इसके प्रभाव से सबसे पहले आंखों में हल्की जलन आरंभ हुई, फिर खांसी चली। लगता था, पड़ोस में किसी ने मिर्ची जलाई है।
आरंभ में तो लोग इसी अनुमान में एक दूसरे से उलझते रहे। लेकिन जब बात समझ आई, तब बहुत देर हो चुकी थी। चारों ओर गैस ही गैस थी। लोग बचने के लिए यहां-वहां भागे। रात दो बजे के बाद गैस दुर्घटना की घोषणा आरंभ हुई। पूरी रात इसी भागमभाग में बीती। 3 दिसम्बर की प्रात: भोपाल की सड़कों का मंजर बहुत अलग था। लाशों और अचेत लोगों से पुराने भोपाल नगर, विशेष कर यूनियन कार्बाइड के आसपास की सड़कें पटी पड़ी थीं, वह भी उल्टी और दस्त की गंदगी के बीच। कहीं-कहीं तो जेवरातों की गठरियां और सामान भी बिखरा था, जिसे उठाने वाला कोई न था।
सुबह तापमान बढ़ा तो गैस आसमान की ओर गई, थोड़ी राहत मिली। आज कोई कुछ भी दावा करे पर उस रात प्रशासनिक कार्यकर्ता भी अपने परिवारों की सुरक्षा में लगे थे। मौत की उस भयानक दस्तक के समय पूरा नगर मानो अनाथ हो गया था। प्रशासनिक मुनादी रात दो और तीन बजे के बीच ही आरंभ हुई, तब तक यूनियन कार्बाइड की विषैली गैस का पूरा टैंक खाली हो चुका था और पूरा नगर अपने प्राण बचाने की विफल चेष्टाओं में डूबा हुआ था। प्रशासन को पूरी तरह मैदान में आने में 3 दिसम्बर की दोपहर हो गई थी। तब तक अस्पतालों में लाशों के ढेर लग गए थे और घायलों का मानो रेला लग गया। लाशों को सामूहिक अंतिम संस्कार हुआ। ऐसे उदाहरण भी रहे कि जिन्हें मृत समझकर चिता पर रखा, उनके शरीर में हलचल हुई और उन्हें चिता से उतारा गया।
त्रासदी के ऐसे अनंत प्रसंग हैं जो पीड़ितों की आंखों में आज भी जीवन्त हैं, पर इतनी भयानक त्रासदी होने के बाद भी प्रशासन को अपनी उस गलती का अहसास कभी नहीं हुआ। यह प्रशासन की लापरवाही ही है कि इसके किसी दोषी को कोई दंड नहीं मिला। यदि त्रासदी के पहले सरकार ने विधानसभा में कंपनी को सुरक्षित बताया तो त्रासदी के बाद इसके लिए सीधे जिम्मेदार किसी को नहीं माना। किसी को कोई बड़ा दंड न मिल सका। इतना ही नहीं, त्रासदी के बाद कंपनी के प्रमुख एंडरसन को सुरक्षित अमेरिका रवाना कर दिया गया। एंडरसन 6 दिसम्बर को भारत पहुंचा था, 7 दिसम्बर को भोपाल आया, किंतु सरकार ने उसे पूर्ण सुरक्षा देकर अमेरिका वापस भेज दिया। यह विषय मध्य प्रदेश विधानसभा से लेकर लोकसभा तक उठा था। पर बात खबरों के दायरे से ऊपर न उठ सकी। वॉरेन एंडरसन को भारत से अमेरिका भगाने में तत्कालीन मध्यप्रदेश और भारत सरकार, दोनों की सहभागिता रही है।
त्रासदी के ऐसे अनंत प्रसंग हैं जो पीड़ितों की आंखों में आज भी जीवन्त हैं, पर इतनी भयानक त्रासदी होने के बाद भी प्रशासन को अपनी उस गलती का अहसास कभी नहीं हुआ। यह प्रशासन की लापरवाही ही है कि इसके किसी दोषी को कोई दंड नहीं मिला। इतना ही नहीं, त्रासदी के बाद कंपनी के प्रमुख एंडरसन को सुरक्षित अमेरिका रवाना कर दिया गया।
इसकी समय-समय बहुत चर्चा हुई पर, आज घटना के लगभग 38 वर्ष बीत जाने के बाद भी किसी दोषी पर कोई कार्रवाई न हुई। न तो एंडरसन पर और न उसे भगाने वालों पर। किसी व्यक्ति को कोई दंड न दिया जा सका। समाचार पत्रों में नाम छपे, विधानसभा और संसद में भी उछले, उस रात पर एक पुस्तक लिखने वाले तत्कालीन कलेक्टर मोती सिह ने भी अपनी पुस्तक में चर्चा की। पर किसी भी न्यायालय में किसी के विरुद्ध कोई आरोप साबित नहीं हो पाया। तब उच्चतम न्यायालय द्वारा की गई घोर लापरवाही की ताजा टिप्पणी कितनी प्रभावकारी होगी, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है।
रहस्यमय बचाव
एंडरसन को तत्कालीन पुलिस अधीक्षक स्वयं अपनी एम्बेसेडर कार में विमानतल पर ले गए थे और फिर मध्य प्रदेश सरकार के विमान से उसे दिल्ली पहुंचाया गया था। दिल्ली हवाईअड्डे के अंदर से ही उसे अमेरिका की फ्लाइट में बिठा दिया गया था। भोपाल जिला प्रशासन को ऐसा करने के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने निर्देश दिया था। और, बहुत बाद में अर्जुन सिंह ने भी स्वीकार किया था कि उन्हें ऐसा करने के लिए दिल्ली से फोन आया था। कहा जाता है कि हनुमानगंज पुलिस ने मुकदमा दर्ज किया था और एंडरसन को गिरफ्तार भी किया था, लेकिन उसे 25 हजार रुपये के बांड पर रिहा कर दिया गया था।
एंडरसन ने तब ट्रायल के दौरान न्यायालय में आने की बात कही थी, लेकिन वह कभी भारत नहीं लौटा। किसी समन पर नहीं, किसी वारंट पर नहीं। जिस प्रकार उसके आने पर भोपाल कलेक्टर और एसपी ने अगवानी की और विदाई दी, उससे यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि बांड भरने के ये कागजात कब और कैसे तैयार हुए होंगे। आगे चलकर 9 फरवरी 1989 को सीजेएम न्यायालय ने एंडरसन के खिलाफ गैर जमानती वारंट जारी किया, 1 फरवरी 1992 को उसे भगोड़ा घोषित किया गया। उसके दुनिया भर में घूमने के समाचार तो आए किन्तु वह कभी भारत नहीं आया। अंतत: सितंबर 2014 को अमेरिका के फ्लोरिडा स्थित किसी नर्सिंग होम में उसके मरने की खबर आई।
जब बात बहुत चर्चा में आई, तब एंडरसन की रिहाई और दिल्ली के लिए विशेष विमान उपलब्ध कराने की जांच के लिए 2010 में एक सदस्यीय जस्टिस एस.एल. कोचर आयोग का गठन किया गया। आयोग के सामने तत्कालीन एसपी स्वराज पुरी ने स्वीकार किया कि एंडरसन की गिरफ्तारी के लिए ‘लिखित’ आदेश था, लेकिन रिहाई का आदेश ‘मौखिक’ था। यह आदेश वायरलेस सेट पर मिला था।
जितनी रहस्यपूर्ण बात भोपाल में यूनियन कार्बाइड को कारखाने की अनुमति देने की है, शिकायतों पर कार्यवाही न करने की भी है, एंडरसन को सुरक्षित अमेरिका भेजने की है, उतना ही रहस्यमय राहत पैकेज समझौता माना जाना चाहिए। किसी घटना-दुर्घटना पर मुआवजा दो प्रकार से मिलता है। एक तो न्यायालयी आदेश पर और दूसरा न्यायालय की मौजूदगी में हुए समझौते से।
न्यायालीय आदेश में पुनर्विचार की संभावना होती है। स्वयं न्यायालय भी अपने निर्णय पर पुनर्विचार कर सकता है और अनेक प्रकरणों में हुआ भी है। पर सहमति से हुए समझौते पर पुनर्विचार बहुत कठिन होता है। वह भी अपील की समय सीमा के वर्षों बीत जाने के बाद। यह याचिका इसी श्रेणी की थी। इसीलिए सर्वोच्च न्यायालय ने समझौता खोलने से इनकार किया और समय सीमा के वर्षों बीत जाने के बाद अपील करने को घोर लापरवाही निरूपित किया।
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