1994 में सासाराम प्रखंड के मिशिरपुर गांव में 500 रुपये प्रति एकड़ के हिसाब से 2 एकड़ जमीन पट्टे पर ली। 12 हजार रुपये की जमा-पूंजी लगाकर कड़ी मेहनत की और सब्जियां उगाई। इससे उन्हें 1.25 लाख से अधिक की आमदनी हुई। लेकिन वह इससे संतुष्ट नहीं थे। आमदनी बढ़ाने के लिए उन्होंने आसपास के गांव कुराइच, दयालपुर, लालगंज, नीमा, कोटा, सुमा और जयनगर में लगभग 20 एकड़ जमीन पट्टे पर लेकर सब्जी की खेती शुरू की।
बिहार के रोहतास जिले के में मेहंदीगंज के दिलीप कुमार सिंह के परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। इसलिए इंटरमीडिएट के बाद उन्हें पढ़ाई छोड़नी पड़ी। उन्होंने आजीविका के लिए 1993 में सब्जी तक बेची। लेकिन आर्थिक तंगी बनी रही। आखिर में उन्होंने खेती करने की सोची, लेकिन उनके पास जमीन नहीं थी। इसके बावजूद आज वह न केवल खेती से अच्छी कमाई कर रहे हैं, बल्कि हजारों लोगों को रोजगार भी उपलब्ध करा रहे हैं।
51 वर्षीय दिलीप ने सब्जी बेचने के साथ 1994 में सासाराम प्रखंड के मिशिरपुर गांव में 500 रुपये प्रति एकड़ के हिसाब से 2 एकड़ जमीन पट्टे पर ली। 12 हजार रुपये की जमा-पूंजी लगाकर कड़ी मेहनत की और सब्जियां उगाई। इससे उन्हें 1.25 लाख से अधिक की आमदनी हुई। लेकिन वह इससे संतुष्ट नहीं थे। आमदनी बढ़ाने के लिए उन्होंने आसपास के गांव कुराइच, दयालपुर, लालगंज, नीमा, कोटा, सुमा और जयनगर में लगभग 20 एकड़ जमीन पट्टे पर लेकर सब्जी की खेती शुरू की।
उनकी मेहनत रंग लाई और अच्छी कमाई होने लगी तो पहले उन्होंने अपना जीवन स्तर सुधारा। इसके बाद 2004 में उन्होंने रोहतास और बिक्रमकंज कृषि विज्ञान केंद्र से संपर्क किया और कृषि वैज्ञानिकों से प्रशिक्षण लिया, ताकि सब्जी उत्पादन बढ़ा सकें। वैज्ञानिकों के मार्गदर्शन में उन्होंने टमाटर, भिंडी, फूलगोभी, बैंगन, आलू, प्याज, मिर्च, लौकी, करेला, शिमला मिर्च आदि की खेती की, जिससे उत्पादन बढ़ा और इसी के साथ उनकी आमदनी में भी काफी बढ़ोतरी हुई। लेकिन दिलीप इससे भी संतुष्ट नहीं हुए।
वे लगातार भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान, वाराणसी और बीएचयू बागवानी विभाग, वाराणसी से नवीनतम तकनीक हासिल करने के साथ वहां से प्रशिक्षण भी लेते रहे। इन सभी स्थानों से उन्हें जो जानकारी मिली, उसने उन्हें जैविक खेती के लिए प्रेरित किया। अब उन्होंने बड़े पैमाने पर खेती करने की ठानी। इसके लिए 100 एकड़ जमीन पट्टे पर ली और उस पर जैविक और अजैविक विधि से सब्जियों की खेती शुरू की।
उनका काम फला-फूला और उन्हें प्रत्येक वर्ष 7-10 लाख रुपये की आमदनी होने लगी। इस तरह, दिलीप ने स्वयं को एक सफल सब्जी उत्पादक के तौर पर स्थापित किया। साथ ही, सब्जी के विपणन प्रबंधन में भी नवाचार किया। उन्होंने अंतर-फसल, मिश्रित-फसल, समय पर रोकथाम और उपचारात्मक उपाय, फसल में मानव संसाधन की त्रि-स्तरीय प्रबंधन और संपूर्ण कृषि प्रणाली में प्रभावी श्रम प्रबंधन को अपनाया है। अभी वे 15-20,000 लोगों को रोजगार उपलब्ध करा रहे हैं।
वे कहते हैं कि आज कृषि लागत 50 लाख रुपये से अधिक की आती। है लेकिन आमदनी 10 गुना भी नहीं है। इसका करण यह है कि पहले मजदूरी कम थी। 1993-94 में 12 से 15 रुपये में मजदूर मिल जाते थे, लेकिन अब 400 रुपये प्रतिदिन देने पर भी मजदूर नहीं मिलते। कई तरह की बीमारियां आ गई हैं, जो उत्पादन को प्रभावित करती हैं। पहले की तुलना में सब्जी के दाम भी नहीं बढ़े हैं।
दिलीप उन लोगों के लिए प्रेरणास्रोत हैं, जो संसाधनों की कमी का रोना रोते हैं। वे राज्य ही नहीं, देश में कृषि उद्यमिता का मानदंड बन गए हैं। बिहार सरकार के अलावा कई कृषि विश्वविद्यालयों और आईसीएआर, नई दिल्ली ने भी उन्हें सम्मानित किया है।
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