भारतीय रहस्यवाद के अनुसार ‘शून्य’ गोल है, क्योंकि यह जीवन के चक्र को दर्शाता है। ‘शून्य’ शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत शब्द ‘शून्यता’ से हुई है, जिसका अर्थ है, खोखलापन या खालीपन। ‘शून्यता’ या ‘शून्यवाद’ बौद्धों की महायान शाखा ‘माध्यमिक न्याय’ का प्रमुख सिद्धांत है, जिसके प्रणेता नागार्जुन थे।
गणित की भाषा में ‘शून्य’ को सबसे छोटी सकारात्मक संख्या माना जाता है। इसका अपना कोई मान नहीं होता। इसको अगर हम किसी संख्या के आगे लगाते हैं, तो यह उसका मान बढ़ा देता है, जैसे 1 के बाद शून्य लगा देने से उसका मान 10 हो जाता है, और अगर हम शून्य को किसी संख्या के पहले लगाते हैं, तो उसका मान वही रहता है। जैसे कि 01, इसको एक ही पढ़ा जाएगा। शून्य की यह विशेषता है कि इसे किसी संख्या से गुणा करें या भाग दें, तो परिणाम शून्य ही रहता है। शून्य एक अति महत्वपूर्ण अंक है। इसके बिना हम किसी भी प्रकार के द्विअंकीय यानी ‘बाइनरी’ संख्या को नहीं बना सकते।
भारतीय मनीषियों ने शून्य को दशमलव पद्धति में शामिल कर गणना पद्धति को अत्यधिक सरल बना दिया। इससे भिन्नों का वर्णन करने के लिए एक नया और अधिक सटीक तरीका विकसित करने में सहायता मिली। दशमलव बिंदु की सहायता से प्रारंभ में शून्य जोड़ने से उसका परिमाण कम हो जाता है, और दशमलव बिंदु के दाईं ओर अपरिमित रूप से अनेक अंक रखने से अनंत परिशुद्धि मिलती है। भारतीय गणना पद्धति ने गणित की तीन प्रमुख शाखाओं- बीजगणित, एल्गोरिदम और कैलकुलस- के विकास में महती योगदान दिया, जो आगे चलकर आधुनिक कंप्यूटर की भाषा बनाने में महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ।
भारत के बाहर प्राचीन विद्वानों ने शून्य का प्रयोग एक संख्या की अनुपस्थिति का प्रतिनिधित्व करने के लिए एक प्रतीक के रूप में किया। जैसा कि हम 101 य 102 में शून्य का उपयोग यह इंगित करने के लिए करते हैं कि मध्य स्थिति में 10 का कोई गुणक नहीं है। प्राचीन बेबीलोन के लोग शून्य को दर्शाने के लिए दो कोण वाले पच्चर (मध्य) का प्रयोग करते थे वहीं माया सभ्यता के लोग एक आंख के समान वर्ण का प्रयोग करते थे। चीनियों ने खुले वृत्त का प्रयोग किया था, और हिंदुओं ने शून्य को एक बिंदु के रूप में दर्शाया। भारत का शून्य अरब जगत में ‘सिफर’ नाम से प्रसिद्ध हुआ, फिर लैटिन, इटैलियन, फ्रैंच आदि से होते हुए इसे अंग्रेजी में ‘जीरो’ कहा जाने लगा।
यद्यपि सभी सभ्यताओं में गणना की कोई न कोई पद्धति प्रयोग की जाती रही, किन्तु उनमें ‘शून्य’ का आविष्कार नहीं हुआ। यह केवल भारत में ही क्यों संभव हुआ, इसके बारे में प्रसिद्ध गणितज्ञ एलेक्स बेलौस का मानना है कि ‘कुछ भी नहीं’ होने की अवधारणा भारतीय संस्कृति में ‘निर्वाण’ के रूप में विद्यमान थी। ‘निर्वाण’ वह स्थिति होती है, जिसमें हमारी सारी चिंताएं और इच्छाएं समाप्त हो जाती हैं, या चली जाती हैं। इस स्थिति को व्यक्त करने के लिए ‘शून्य’ की अवधारणा विकसित हुई।
भारतीय रहस्यवाद के अनुसार ‘शून्य’ गोल है, क्योंकि यह जीवन के चक्र को दर्शाता है। ‘शून्य’ शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत शब्द ‘शून्यता’ से हुई है, जिसका अर्थ है, खोखलापन या खालीपन। ‘शून्यता’ या ‘शून्यवाद’ बौद्धों की महायान शाखा ‘माध्यमिक न्याय’ का प्रमुख सिद्धांत है, जिसके प्रणेता नागार्जुन थे। इस सिद्धांत के अनुसार संसार को शून्य और उसके सब पदार्थों को सत्ताहीन माना जाता है। ‘शून्यता’ की अवधारणा भारतीय चिंतन में बहुत पहले से एक केंद्रीय भूमिका निभाती रही, किन्तु ‘गणितीय शून्य’ और ‘शून्यता’ की दार्शनिक अवधारणा एक दूसरे से संबंधित है, लेकिन समान नहीं है। गणित में शून्य का क्या महत्व हो सकता है, इसे भारत के विद्वानों ने अच्छी तरह से जाना है, और उसके विस्तृत प्रयोग का सिद्धांत हजारों साल पहले विकसित किया था।
शून्य को एक संख्या के रूप में प्रयोग करने का सबसे पुराना लिखित प्रमाण बख्शाली पांडुलिपि में पाया गया है। आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय और बोडलियन पुस्तकालयों के शोधकर्ताओं ने पांडुलिपि का कार्बन दिनांकित किया, और पाया है कि यह तीसरी और चौथी शताब्दी के बीच का है। बख्शाली पांडुलिपि बर्च की छाल पर लिखी गई। इसे हिन्दू गणित शास्त्र का प्राचीनतम ग्रंथ माना जाता है। किन्तु यूरोसेंट्रिक विद्वानों ने इन पांडुलिपियों की विशेषता को हमेशा कम करके आंका है, जबकि ये पांडुलिपियां अंक गणित और बीज गणित में भारत की उच्च गुणवत्ता के कामों का लिखित प्रमाण है।
आर्यभट (476-550 ईसा पूर्व) ने अपनी पुस्तक ‘आर्यभाटिया’ में अंकों की नई पद्धति का आविष्कार किया और 1 से लेकर अरब तक की संख्या लिखकर यह बताया कि ‘स्थानात् स्थानं दशगुणं’ अर्थात् प्रत्येक अगली संख्या पिछली संख्या से 10 गुना है। उनके ऐसा कहने से यह सिद्ध होता है कि शून्य का आविष्कार आर्यभट के काल से प्राचीन है। कुछ लोग छंदशास्त्र के प्रणेता पिंगलाचार्य, जिन्हें द्विअंकीय गणित का भी प्रणेता माना जाता है, को शून्य का आविष्कारक मानते हैं। पिंगलाचार्य के छंदों के नियमों को गणितीय दृष्टि से देखें, तो वह एक तरह से द्विअंकीय गणित का कार्य करते हैं।
प्राचीन भारत में संख्याओं को शब्द या श्लोक के रूप में आसानी से याद रखने के एक सुव्यस्थित पद्धति कटपयादि (क ट प य आदि) प्रयोग की जाती थी। इस पद्धति में 0-9 तक के दस अंकों को देवनागरी के दस वर्णों से निरूपित किया जाता था। ब्रह्मगुप्त (598-668 ईसा पूर्व) ने अपनी पुस्तक ‘ब्राह्मस्फुटसिद्धांत’ में पहली बार गणना में शून्य के प्रयोग संबंधी सिद्धांतों की विस्तृत व्याख्या की। उन्होंने शून्य की व्याख्या, अ-अ=0(शून्य) के रूप में की।
शून्य का और विस्तृत प्रयोग श्रीधराचार्य (870 ईसा पूर्व-930 ईसा पूर्व) ने अपनी पुस्तक ‘त्रिशविका’ में किया। उन्होंने बताया कि किसी संख्या में शून्य जोड़ दें तो उस संख्या में कोई परिवर्तन नहीं होता, लेकिन यदि किसी संख्या को शून्य से गुणा कर दें तो उसका गुणनफल शून्य हो जाता है। 12वीं शताब्दी में भास्कराचार्य ने शून्य द्वारा किसी संख्या में भाग लेने का सही उत्तर दिया- कि फल अनंत(?) होता है, और अनंत संख्या में कुछ घटाने या जोड़ने से कोई फर्क नहीं पड़ता।
‘गणितीय शून्य’ और ‘शून्यता’ की दार्शनिक अवधारणा एक दूसरे से संबंधित है, लेकिन समान नहीं है। गणित में शून्य का क्या महत्व हो सकता है, इसे भारत के विद्वानों ने अच्छी तरह से जाना है, और उसके विस्तृत प्रयोग का सिद्धांत हजारों साल पहले विकसित किया था।
ईरानी मूल के एक गणितज्ञ और खगोलशास्त्री मुहम्मद इब्न मूसा अल-ख़्वारिज्मी ने प्राचीन भारतीय गणित के ग्रंथों का अरबी में अनुवाद करके भारतीय अंकों एवं दशमलव प्रणाली को अरब जगत में प्रसारित किया। अरब देशों से भारतीय अंक प्रणाली यूरोप में प्रचलित हुई, जहां इससे इंडो अरेबिक संख्या पद्धति कहा गया। अधिकांश अरब देशों में ये हिंदू अंक के नाम से जाने जाते हैं। अरब देशों से होते हुए शून्य की अवधारणा पश्चिम देशों में उस समय पहुंची, जब वहां इस्लाम के खिलाफ जंग छिड़ी थी। अरबी अंकों पर यूरोपीय लोग विश्वास नहीं करते थे। सन्1299 में इटली के फ्लोरेंस शहर में दूसरे अरबी नंबरों के साथ-साथ जीरो पर भी पाबंदी लगा दी गई थी। यूरोप के लोगों का मानना था कि 0 से 9 नंबर में तब्दील करना बहुत आसान होता है, और पैसे का लेन-देन करने वालों के साथ बहुत बार बेईमानी हो जाती है।
बहुत लंबे समय तक प्राचीन सभ्यता में ‘शून्य’ को लेकर एक बहुत बड़ी भ्रांति यह थी कि यदि हम किसी के बारे में बात करते हैं, तो वह ‘कुछ नहीं’ कैसे हो सकता है। क्रिश्चियन मत के प्रसार के समय पश्चिमी दार्शनिकों का मानना था कि ईश्वर हर चीज में विद्यमान है और कोई चीज जो ‘कुछ नहीं’(जीरो) को निरूपित करती है, वह निश्चित रूप से शैतान का प्रतिनिधित्व करती है। मानव को शैतान के बुरे साये से बचाने के लिए जीरो या ‘शून्य’ की अवधारणा पश्चिम के दर्शन से बाहर हो गई थी, यद्यपि व्यापारी वर्ग छिपे रूप से इसका प्रयोग करते रहे।
वर्तमान समय में इन अंकों को इंडो अरेबिक अंक कहा जाता है। प्रसिद्ध इतालवी गणितज्ञ लियोनार्डो फाइबोनैचि ने अपनी पुस्तक ‘लिबर अबाची’ (1202) द्वारा पश्चिमी जगत को हिंदू- अरेबिक संख्या पद्धति से परिचित कराया। इस किताब का यूरोपीय समाज पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। इससे यूरोप में बैंकिंग और लेखांकन का बहुत तेजी से विकास हुआ। बेलोस का मानना है कि यूरोप में पुनर्जागरण वास्तव में इंडो अरबी संख्या प्रणाली, जिसमें शून्य भी शामिल था, के आगमन से शुरू हुआ था, और यूरोप की अंकगणित की काली और सफेद दुनिया अचानक शानदार और तकनीकी रंग बन गई।
(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में विज्ञान नीति
अध्ययन केंद्र के अध्यक्ष हैं)
टिप्पणियाँ