त्यागी, तपस्वी और अपरिग्रही संत-महात्माओं की चरणधूल मस्तक पर लगाई जाती है। उनका जीवन आदर्श संसार में शांति स्थापित करने के लिए होता है। भगवान् शंकर सर्वशक्तिमान हैं, परन्तु उन्होंने अपने लिए कुछ नहीं किया। सादा जीवन और उच्च विचार ही उनके जीवन का आदर्श रहा। इसी से आज भी व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की उन्नति होना संभव है।
भगवान् शिव ने योग साधना से अपने जीवन को परिष्कृत किया था। वह गुणों के भण्डार थे। सागर समान थे। शक्ति उनके इशारों पर चलती थी। वह अपने तीसरे नेत्र से बड़ी से बड़ी विकृति को जलाकर राख करने की सामर्थ्य रखते थे। कामदेव को उन्होंने भस्म ही कर दिया था। हमें भी शक्ति की वृद्धि करके अपने व्यक्तिगत जीवन व समाज में से अनैतिकता, अश्लीलता और कामुकता को दूर करने का प्रयत्न करना है।
क्षणभंगुर भौतिक सुखों से मनुष्य कभी भी स्थाई सुख-शान्ति प्राप्त नहीं कर सकता। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए मानसिक व आत्मिक विकास की आवश्यकता है। आत्मिक उन्नति के लिए धार्मिक नियमों को बनाया गया, जिसे अपनाकर मनुष्य अपनी पाश्विक वृत्तियों को कम करता हुआ परम लक्ष्य की ओर बढ़ता जाता है। इन धार्मिक नियमों में अनेक प्रकार की साधनाएं व उपासनाएं हैं। उनमें एक व्रत की साधना भी है। व्रत से शारीरिक, मानसिक व आत्मिक सब प्रकार की उन्नति होती है। विश्राम से शारीरिक क्षमता में नवजीवन आ जाता है।
बुद्धि में तीव्रता लाने के लिए हमारे धर्म शास्त्रों में व्रतों का विधान है। व्रत के दिन जो विचार मन में आते हैं, उनकी एक अमिट छाप मस्तिष्क पर पड़ जाती है। हमारे धर्माचार्यों ने व्रतों के साथ ऐसी कथाओं और विचारों को जोड़ दिया है, जो हमारे इस जीवन और परलोक को भी सुधारने में काफी सहायक सिद्ध होते हैं। सच्चे शिव के उपासक वही हैं, जो अपने मन में स्वार्थ भावना को त्यागकर परोपकार की मनोवृत्ति को अपनाते हैं, जब हमारे मन में यह विचार उत्पन्न होने लगते हैं, तो हम अपने आत्मीयजनों के साथ झूठ, छल, कपट, धोखा, बेईमानी, ईर्ष्या, द्वेष आदि से मुक्त हो जायेंगे। यदि शिवरात्रि व्रत के दिन हम इस महान् पथ का अवलम्बन नहीं लेते, तो शिव का व्रत और पूजन केवल लकीर पीटना मात्र रह जाता है। उससे कोई विशेष लाभ नहीं होता।
समुद्र मंथन में जब हलाहल कालकूट निकला, तो सब देवता घबरा गये कि यदि यह विष संसार में फैल गया, तो समस्त संसार इसके प्रभाव से ग्रस्त हो जायेगा, संसार में एक प्रकार का प्रलय आ जायेगा। प्राणियों का जीवित रहना कठिन हो जायेगा। यह सोचकर देवता भगवान् शंकर के पास गये और उनसे प्रार्थना की कि वह होने वाले इस अनिष्ट से बचने का उपाय बताएँ और सहायता करें। महादेव कहलाने वाले शंकर ने अपने शरीर की परवाह न करते हुए उस हलाहल कालकूट का पान करने का निश्चय किया और लोकहित को ध्यान में रखकर उसका पान कर लिया। जिस व्यक्ति के मन में परोपकार की भावनाएँ जाग्रत् हो जाती हैं, भगवान् स्वयं उसकी सहायता करते हैं, उसकी आत्मिक शक्तियों का विकास होने लगता है।
आज के युग में अशांति फैलने का प्रमुख कारण स्वार्थपरता है। हर एक व्यक्ति और देश दूसरों को हड़प जाना चाहता है और अपने स्वार्थ के लिए दूसरों के हानि-लाभ को नहीं देखता है। एटम बम और हाइड्रोजन बम का आविष्कार इसी मनोवृत्ति के आधार पर हुआ है। यदि राष्ट्र नायकों के मस्तिष्क से यह स्वार्थ भावना जाती रहे, तो संसार में शांति की स्थापना कोई कठिन कार्य नहीं है। मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन को लिया जाए, तो विदित होता है कि वह अपने व्यक्तिगत जीवन में इसी तत्व के आधार पर सुख-शांति को स्थिर रख सकता है।
भगवान् शिव का मानव को संदेश है कि ‘संसार के लोगो! उठो, जागो यदि अपनी और दूसरों की सुख-शान्ति चाहते हो, तो अपरिग्रह, सादा जीवन, उच्च विचार, अक्रोध, परोपकार, समता, पर दुःखकातरता, परमात्मा की समीपता को अपनाओ। भोग-विलास का जीवन व्यतीत करने से क्षणिक सुख भले ही मिल जाए, परन्तु उनमें स्थायित्व नहीं है। स्वार्थ में क्षणिक आनन्द अवश्य आता है, परन्तु उसका अन्त पतन में है। केवल अपनी उन्नति में ही सन्तुष्ट न रहो, वरन् दूसरों की, अपने समाज और राष्ट्र की उन्नति को अपनी सफलता मानो।’ यदि इन बातों को हम अपने अंतःकरण में स्थान देते हैं, तो हम सच्चे शिव उपासक सिद्ध होंगे।
(लेखक अखिल विश्व गायत्री परिवार प्रमुख एवं देव संस्कृति विश्वविद्यालय, हरिद्वार के कुलाधिपति हैं)
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