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गोपाल बाबू गोस्वामी : जानिए हिमालय के सबसे लोकप्रिय लोकगायक के बारे में सबकुछ

गीत और नाटक प्रभाग में नियुक्ति से पहले गोपाल बाबू पहाड़ के मेलों, विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक कार्यक्रमों और आम जनता के बीच में लोकगीत गाते थे।

by उत्तराखंड ब्यूरो
Feb 2, 2023, 02:00 pm IST
in उत्तराखंड
गोपाल बाबू गोस्वामी(फाइल फोटो)

गोपाल बाबू गोस्वामी(फाइल फोटो)

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भारत के उन्नत ललाट हिमालय के वक्षस्थल उत्तराखण्ड की वीर प्रसविनी शस्यश्यामला भूमि ने अनंतकाल से आध्यात्मिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, पर्यावरण संरक्षण, कला, साहित्य, आर्थिक जैसे अनेकों महत्वपूर्ण क्षेत्रों में विलक्षण कार्य करने वाले अनेक ज्वाज्वल्यमान रत्नों को जन्म दिया है, जिनकी आभा ने देश में ही नहीं वरन विदेशों में भी उत्तराखण्ड को आलोकित किया है। प्रसिद्ध लोकगायक गोपाल बाबू गोस्वामी जिनके अविस्मरणीय कार्य से उत्तराखण्ड को सर्वत्र पहचान प्राप्त हुई। मेलों में जाकर जादूगरी के खेल–तमाशे के साथ गीत गाकर लोगों का मनोरंजन करने वाले गोपाल बाबू का रेडियो में गीत गाने तक का सफर बेहद रोमांचकारी रहा था।

हिमालय सुर सम्राट गोपाल बाबू गोस्वामी का जन्म तत्कालिक संयुक्त प्रांत वर्तमान उत्तराखण्ड में अल्मोड़ा के पाली पछांऊॅं क्षेत्र में मल्ला गेवाड़ के चौखुटिया तहसील स्थित चांदीखेत नामक गांव में 2 फरवरी सन 1941 को पिता मोहन गिरी तथा माता चनुली देवी के घर हुआ था। गोपाल ने प्राइमरी शिक्षा चौखुटिया के सरकारी स्कूल से प्राप्त की थी। छोटी सी उम्र से ही उन्हें गानों का शौक था पर यह शौक उनके परिवार वालों को पसंद नहीं था, जिस वजह से उन्हें बार-बार टोका भी जाता रहा था। 5वीं कक्षा पास करने के बाद मिडिल स्कूल में उन्होंने नाम तो लिखवाया, परन्तु 8वीं कक्षा उत्तीर्ण करने से पूर्व ही उनके पिता का देहावसान हो गया था। जिस वजह से परिवार का बोझ उनके कंधों पर आने के कारण उन्हें पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी।

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उसके बाद नौकरी की तलाश ने उन्हें ट्रक ड्राइवर भी बनाया था। गोपाल जीवन यापन हेतु नौकरी करने पहाड़ के बेरोजगार युवाओं की परम्परानुसार दिल्ली चले गये थे। दिल्ली में कई वर्षों तक स्थाई नौकरी की तलाश में रहे, पहले कई प्राइवेट नौकरी की, फिर कुछ वर्ष डीजीआर में अस्थाई कर्मचारी के रूप में कार्यरत रहे, परन्तु स्थाई नहीं हो सके थे। इस समयकाल में वह दिल्ली, पंजाब तथा हिमाचल प्रदेश में भी रहे। स्थाई नौकरी न मिल सकने के कारण बाद में उन्हें गांव वापस आना पड़ा, घर वापस आकर वह खेती के कार्यों में लग गये थे। कई बार उन्होंने मेलों में जाकर जादूगरी के तमाशे दिखाने का काम भी किया और साथ ही ग्राहकों को गीत गाकर मनोरंजन भी करते। मेलों में गीत गाने से लेकर रेडियो में गीत गाने तक का गोपाल बाबू का सफर काफी रोमांचकारी रहा। सन 1970 में उत्तर प्रदेश राज्य के गीत और नाटक प्रभाग का एक दल किसी कार्यक्रम के लिए चौखुटिया आया था, यहां नन्दादेवी मेले में गीत गाते देख कुमाऊंनी संगीतकार ब्रजेन्द्रलाल शाह की नजर उन पर पड़ी। उन्होंने गोपाल बाबू को प्रसिद्ध लोकगायक गिरीश तिवाड़ी गिर्दा के पास भेजा। गोपाल की विलक्षण प्रतिभा से प्रभावित होकर ब्रजेन्द्रलाल शाह ने उनकी आवाज को तराशा। नैनीताल शाखा में काम कर रहे ब्रजेन्द्रलाल शाह ने गोपाल बाबू को अपने साथ काम पर रख लिया, सन 1971 में गोपाल बाबू गोस्वामी को गीत और नाटक प्रभाग में नियुक्ति मिल गई।

नैनीताल के गीत और नाटक प्रभाग के मंच पर कुमाऊँनी गीत गाने से उन्हें दिन-प्रतिदिन सफलता मिलती गई, जिस कारण वह चर्चित होते चले गए। इसी समयकाल में उन्होंने आकाशवाणी लखनऊ में अपनी स्वर परीक्षा भी करा ली तो परिणामस्वरूप अब गोपाल बाबू लखनऊ आकाशवाणी के भी गायक हो गये थे। आकाशवाणी लखनऊ में उन्होंने अपना पहला गीत “कैलै बजै मुरूली ओ बैणा” गया था। आकाशवाणी नजीबाबाद व अल्मोड़ा से प्रसारित होने पर उनके इस गीत की बेहद लोकप्रियता बढ़ने लगी थी। सन 1976 में उनका पहला कैसेट म्यूजिक के क्षेत्र में प्रसिद्ध कम्पनी एचएमवी ने बनाया था, उनके कुमाऊँनी गीतों के कैसेट काफी प्रचलित हुए थे। पौलिडोर कैसेट कंपनी के साथ उनके गीतों का एक लम्बा दौर चला था। गोपाल बाबू गोस्वामी के मुख्य कुमाऊँनी गीतों के कैसेटों में थे – “हिमाला को ऊँचो डाना प्यारो मेरो गाँव”, “छोड़ दे मेरो हाथा में ब्रह्मचारी छों”, “भुर भुरु उज्याव हैगो”, “यो पेटा खातिर”, “घुगुती न बासा”, “आंखी तेरी काई-काई”, तथा “जा चेली जा स्वरास”। गीत और नाटक प्रभाग की गायिका चंद्रा बिष्ट के साथ उन्होंने युगल कुमाऊँनी गीतों के लगभग 15 कैसेट बनवाए थे।

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गीत और नाटक प्रभाग में नियुक्ति से पहले गोपाल बाबू पहाड़ के मेलों, विभिन्न सामाजिक सांस्कृतिक कार्यक्रमों तथा आम जनता के बीच में अपनी उपस्थिति दर्ज कराकर एक निस्वार्थ लोकप्रिय कलाकार के रूप में समाज की चेतना को जागृत करने के लिए मनमोहक लोकगीत गाते थे। स्वयं रचित लोकगीतों को अपने मधुर कंठ के माध्यम से समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन कर उत्कृष्ट समाजसेवा का उदाहरण प्रस्तुत करने वाले गोपाल बाबू गोस्वामी सदी के बेहद ही दुर्लभतम कलाकार थे। गोपाल बाबू के मधुर कंठ को लोगों ने भी बहुत पसंद किया था। गोपाल बाबू में यह विशेषता भी थी कि वे उच्च स्वर के गीतों को भी बड़े सहज ढंग से गाते थे। उनके गाए अधिकांश कुमाऊँनी गीत स्वरचित थे। उन्होंने प्रसिद्ध कुमाऊँनी लोकगाथाओं जैसे मालूशाही तथा हरूहीत के गीतों के कैसेट भी बनवाए थे।

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गोपाल बाबू गोस्वामी ने कुछ हिन्दी और कुमाऊँनी पुस्तकें भी लिखी थी। इन पुस्तकों में से “गीत माला कुमाऊँनी” “दर्पण” “राष्ट्रज्योति हिंदी” तथा “उत्तराखण्ड” आदि प्रमुख थीं। उनकी एक पुस्तक “उज्याव” कभी प्रकाशित नहीं हो पाई थी। 55 वर्ष की आयु में उन्होंने जीवन के अनेक उतार-चढ़ाव देखे पर कभी भी उनके सामने हार नहीं मानी थी। 1990 के दशक की शुरुआत में उन्हें ब्रेन ट्यूमर हो गया, जिस वजह से वे लम्बे समय तक बीमारी में रहे थे। उन्होंने अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, दिल्ली में ऑपरेशन भी करवाया, परन्तु वे स्वस्थ नहीं हो सके थे। 26 नवम्बर सन 1996 को उत्तराखंड का महान गायक सभी को असमय छोड़ कर अनंत यात्रा पर चला गया था। गोपाल बाबू आज हमारे मध्य नहीं हैं, लेकिन उनके गीत सदा के लिए हमारे दिलों में बसे हैं, जिन्हें आने वाली पीढ़ियां भी याद रखेंगी।

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