धार्मिक नगरी जोशीमठ आज संकट से घिरी है। यही हाल नैनीताल का भी होने का भय है। पता चला है कि उत्तरकाशी में भी कुछ जगहों पर भू-धंसाव हो रहा है। पहाड़ क्यों रूठ रहे हैं और धरती क्यों दरक रही है? इसके कारण और निदान, दोनों की चिंता करनी होगी
आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित ज्योतिर्मठ की नगरी जोशीमठ सुर्खियों में है। धीरे-धीरे यह शहर एक तरफ से धंस रहा है। स्थानीय लोग डरे-सहमे अपने घरों को टूटते और धंसते देख रहे हैं। किसी के हाथ में ऐसी जादुई छड़ी नहीं है जो इस ऐतिहासिक शहर को दरकने से बचा सके। प्रकृति के आगे कब किसकी चली है। यह सब जानते हुए भी लोग अनजान बने हुए हैं और बहुत हद तक मानवीय भूलों का खामियाजा भुगत रहे हैं। कह सकते हैं कि जोशीमठ की इस हालत के लिए राजनीतिक दल, नौकरशाही और स्थानीय जनता, सभी समान रूप से जिम्मेदार हैं। यही कारण है कि एक-दूसरे पर दोषारोपण के लिए आंदोलन भी शुरू हो गए हैं। जोशीमठ की इस हालत के लिए कोई एन. टी. पी. सी. की विष्णुगाड़ जलविद्युत परियोजना को जिम्मेदार मान रहा है, कोई सड़क निर्माण को, कोई कंक्रीट के बोझ को, तो कोई भ्रष्ट नौकरशाही को, लेकिन किसी ने पिछली आपदाओं से सबक नहीं लिया। जब भी आपदा आई तब विशेषज्ञों ने चेताया और एक आधुनिक योजना बनाने की सलाह दी, लेकिन किसी ने भी उनकी नहीं सुनी। यदि विशेषज्ञों की सुनी गई होती तो आज न तो जोशीमठ हिलता और न ही नैनीताल की जमीन खिसकती।
जोशीमठ जैसी दरारें नैनीताल की लोअर माल रोड पर हर साल उभर आती हैं। ऐसा ही हाल हिमालय के मुनस्यारी और धारचूला कस्बों का है। जमीन दरकने के कारण सब जगह एक जैसे ही हैं। व्यास घाटी का गर्ब्यांग कस्बा, जिसे कभी छोटी विलायत भी कहा जाता था, पूरी तरह धंसने की स्थिति में है।
जब उत्तराखंड उत्तर प्रदेश का हिस्सा था, तब 1975 में मिश्रा आयोग बना था। इसने उत्तराखंड के इस क्षेत्र में आने वाली आपदाओं पर एक रिपोर्ट तैयार की थी। उसमें साफ-साफ लिखा था कि जोशीमठ हिमालय के सूखे ग्लेशियर की रेतीले ढलान पर बसा शहर है और यह कभी भी दरक सकता है। यहां बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण की जरूरत है। इस रिपोर्ट के बाद कुछ समय तक यहां पेड़ लगाने का अभियान भी चला। इसके परिणाम कागजों में ज्यादा और जमीन पर कम दिखाई दिए। पूर्व सैनिकों की ‘ईको टास्क फोर्स’ की एक बटालियन भी चमोली में तैनात हुई। इसने बद्रीनाथ घाटी में पेड़ लगाए। समय बीतने के साथ ही जिम्मेदार लोग भूल गए कि एक दिन जोशीमठ का अस्तित्व खतरे में आएगा।
पहाड़ी क्षेत्र में रहने वाला हर व्यक्ति जानता है कि पहाड़ में रहने का क्या मतलब है? बोझ उठाने की पहाड़ की अपनी क्षमता होती है। एक हद तक ही पहाड़ बोझ सह सकता है। अगर पहाड़ के साथ जबरदस्ती होगी तो वह अपना रौद्र रूप दिखाएगा ही। वही अब जोशीमठ में दिख रहा है। यहां आबादी के साथ-साथ ऊंची-ऊंची पांच मंजिला इमारतों का बोझ बढ़ता चला गया। देश जब आजाद हुआ था तब जोशीमठ की आबादी 5,000 भी नहीं थी। जब उत्तराखंड राज्य बना तब जोशीमठ की आबादी लगभग 20,000 थी और अब वहां की जनसंख्या 30,000 को पार कर गई है। जैसे-जैसे लोगों की संख्या बढ़ी, वैसे-वैसे वहां कंक्रीट के मकान बने और गाड़ियों का बोझ भी बढ़ता गया। जिस भी भूगर्भ विशेषज्ञ से बात करें वे कहते हैं कि यहां ‘ड्रेनेज सिस्टम’ नहीं बना हुआ है। माना जा रहा है कि यहां जो पानी बहता है, वह खाई से होता हुआ गंगा में जाकर गिरता है। ‘ड्रेनेज सिस्टम’ बनाने की बात मिश्रा आयोग ने भी की थी, लेकिन कभी किसी ने इस पर ध्यान नहीं दिया।
संकट में नैनीताल
जोशीमठ उत्तराखंड का कोई पहला शहर नहीं है, जो अपनी जमीन छोड़ रहा है। नैनीताल में ऐसा ही खतरा बलिया नाले की तरफ दिख रहा है। झील के किनारे पर बना बलिया नाला शहर को निगलने को तैयार है, नैनीताल का यह हाल इसलिए हुआ कि वहां उसकी बोझ क्षमता से ज्यादा भार हो गया। होटल बन गए हैं, रिजॉर्ट पैदा हो गए और सरकारी दफ्तरों का भी बोझ बढ़ता ही गया है। जोशीमठ जैसी दरारें नैनीताल की लोअर माल रोड पर हर साल उभर आती हैं। ऐसा ही हाल हिमालय के मुनस्यारी और धारचूला कस्बों का है। जमीन दरकने के कारण सब जगह एक जैसे ही हैं। व्यास घाटी का गर्ब्यांग कस्बा, जिसे कभी छोटी विलायत भी कहा जाता था, पूरी तरह धंसने की स्थिति में है। 2003 में उत्तरकाशी के वरुणावृत पर्वत के दरकने से वहां के लोग दहशत में आ गए थे। धसान को रोकने के लिए कई उपाय किए गए, लेकिन कोई कारगर नहीं हो रहा है।
नहीं लिया सबक
2013 में केदारनाथ और बद्रीनाथ में विनाशकारी आपदा आई थी। उससे भी न लोगों ने कोई सबक लिया और न ही प्रशासन ने। बादल फटने की घटनाओं के कारण कई कस्बे और ‘पावर प्रोजेक्ट’ मिट्टी में मिल गए। इसके बाद भी नदियों के किनारे निर्माण कार्य बंद नहीं हुए। चमोली के पत्रकार देवेंद्र रावत कहते हैं, ‘‘हमने 2013 की त्रासदी से कोई सबक नहीं लिया। जोशीमठ में पांच मंजिले होटल बन गए और कुछ होटल तो अब तिरछे हो गए हैं, जिन्हे गिराना जरूरी है। अंधाधुंध क्रंक्रीट का बोझ जोशीमठ सहन नहीं कर सकता।’’ वरिष्ठ पत्रकार अनुपम त्रिवेदी बताते हैं कि जोशीमठ का अस्तित्व शायद ही बच पाए, क्योंकि दरारें बहुत ज्यादा और गहरी हैं। इसलिए इस शहर को खाली करना ही बेहतर होगा, अन्यथा यहां जान-माल का नुकसान बहुत होगा। भूगर्भ मामलों के जानकार अनूप नौटियाल पिछले कई वर्ष से लगातार यह बात कहते रहे हैं कि हिमालय क्षेत्र में कंक्रीट के बोझ को कम किया जाए, क्योंकि यह कमजोर इलाका है। इस क्षेत्र में पक्के निर्माण के बजाय, जापान की तरह फैब्रिकेट हाउस बनाए जाने चाहिए।
प्रधानमंत्री मोदी चिन्तित
जोशीमठ के भू-धंसाव से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी चिन्तित हैं। उन्होंने इस संबंध में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी से जानकारी ली है। श्री मोदी ने मुख्यमंत्री से प्रतिदिन पीएमओ को रिपोर्ट देने को कहा है। श्री मोदी के निर्देश पर रक्षा राज्यमंत्री अजय भट्ट भी जोशीमठ के हालात का जायजा लेने पहुंचे। उन्होंने आईटीबीपी के केेंद्र में हो रहे भू-धंसाव और दरारों से रिस रहे पानी को भी देखा। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी जोशीमठ के हालात पर लगातार नजर रखे हुए हैं। 11 जनवरी की रात को तो वे जोशीमठ में ही रहे। इस दौरान उन्होंने वहां के प्रभावितों से बात की और उन्हें हर संभव मदद देने का आश्वासन दिया। फौरी राहत के तौर पर पीड़ितों को 1,50,000 रु. देने की घोषणा की जा चुकी है। राज्य सरकार ने कहा है कि जो भी प्रभावित होगा, उनका पुनर्वास अच्छी तरह किया जाएगा। इसके साथ ही कई सरकारी एजेंसियां जोशीमठ में काम कर रही हैं। केंद्र सरकार की एक उच्चस्तरीय भूगर्भ विशेषज्ञों की टीम भी जोशीमठ पहुंचकर सर्वे कर रही है। सवाल यही है कि जो सिफारिश ये वैज्ञानिक या भूगर्भ विशेषज्ञ करते हैं उस पर अमल कितना होता है? मिश्रा आयोग की सिफारिश हो या फिर पद्मविभूषण प्रो. खड़क सिंह वाल्दिया की रिपोर्ट, किसी भी सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया।
धार्मिक, सांस्कृतिक महत्व
माना जाता है कि 815 ईस्वीं में जोशीमठ को आदि शंकराचार्य ने ज्योर्तिमठ के रूप में स्थापित किया था। यहीं उन्होंने ‘शांकरभाष्य’ धर्म ग्रंथ की रचना की। आदि शंकराचार्य ने इस मठ को वेद पुराणों की ज्योति विद्या केंद्र के रूप में विकसित किया। बाद में उनके केदारधाम में देह त्यागने के बाद इस मठ में प्रथम शंकराचार्य ट्रोट्काचार्य बने थे, जिन्होंने धार्मिक ज्ञान को दूर-दूर तक फैलाया। वैसे यह भगवान विष्णु का क्षेत्र माना जाता रहा है। कहा जाता है कि विष्णु अवतार नरसिंह ने असुर संहार के बाद यहीं आकर अपना क्रोध शांत किया था। इसका उल्लेख पुराणों में है। बाद में कत्यूर के राजा वसंतदेव ने यहां भगवान नरसिंह का मंदिर बनवाया। शीत काल में भगवान बद्रीनाथ की पूजा भी इसी मंदिर में होती है।
कहते हैं कि नरसिंह मंदिर में भगवान नरसिंह की काले पत्थर से बनी जो मूर्ति है, उसका बायां हाथ लगातार क्षीण (नष्ट) होता जा रहा है। जब यह पूर्ण क्षीण हो जाएगा तो नर (5831 मी.) और नारायण (5965 मी.) पर्वतों के आपस में मिल जाने से बद्रीनाथ धाम का रास्ता बंद हो जाएगा। तब भगवान बद्रीनाथ की पूजा जोशीमठ के निकट भविष्य बद्री में की जाएगी। जोशीमठ से बद्रीनाथ धाम की दूरी 30 किलोमीटर है। जोशीमठ बद्रीनाथ का द्वार है। पहले पैदल यात्री यहीं से होकर बद्रीधाम जाते थे। यहीं से निति माणा होते हुए तिब्बत को भी रास्ता जाता है। श्रद्धालु कैलाश मानसरोवर की यात्रा भी यहीं से किया करते थे।
मुख्यमंत्री धामी के अनुसार भू-धंसाव की घटनाएं कुछ खास इलाकों में हुई हैं। जिन इलाकों में दरारें नहीं हैं, वहां लोगों के रहने की व्यवस्था की जा रही है। सरकार ने अगले छह महीने के लिए प्रभावित करीब 700 परिवारों के रुकने और उन्हें जरूरी सामान उपलब्ध कराने की व्यवस्था की है। एनडीआरएफ, एसडीआरएफ और आपदा प्रबंधन से जुड़ी अन्य संस्थाएं तैनात हैं। उत्तराखंड के प्रमुख सचिव डॉ. एस. एस. संधू ने जोशीमठ के उन भवनों को तुरंत तोड़ने के निर्देश दिए हैं जो कि गैर-कानूनी ढंग से बनाए गए हैं। इनमें ऊंचे होटलों को तोड़े जाने की प्रक्रिया भी शुरू हो गई है। डॉ. संधू ने कहा है कि हम पहले जान-माल की सुरक्षा करेंगे। उसके बाद यहां के अस्तित्व पर विचार करेंगे। इसके लिए हमें विशेषज्ञों की राय का इंतजार है।
सीबीआरआई को जिम्मेदारी
रुड़की स्थित सेंट्रल बिल्डिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट (सीबीआरआई) के निदेशक प्रो. प्रदीप कुमार को जोशीमठ धंसाव के बारे में सुझाव और ‘एक्शन प्लान’ तैयार करने के लिए भारत सरकार और उत्तराखंड सरकार द्वारा जिम्मेदारी दी गई है। उन्होंने बताया कि पहले चरण में जोशीमठ के संवेदनशील व्यावसायिक भवन तकनीक के जरिए गिराए जाएंगे और उसके बाद अन्य घरों को गिराने का काम किया जाएगा। उन्होंने बताया कि सीबीआरआई के विशेषज्ञों की टीम जोशीमठ पहुंच चुकी है और उसने अपना काम भी शुरू कर दिया है। एक टीम जोशीमठ में लोगों के पुनर्स्थापन के काम में जुटी है। इसके लिए पहले अस्थाई शेल्टर होम बनाए जाएंगे। चाहे जोशीमठ हो, नैनीताल, मुनस्यारी, धारचूला या व्यास घाटी का गर्ब्यांग कस्बा, इन सब जगहों पर जो कुछ हो रहा है, वह संकेत कर रहा है कि प्रकृति से छेड़छाड़ बंद होनी चाहिए।
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