दुनिया अटल बिहारी वाजपेयी की विदेश नीति का लोहा मानती है। जनता पार्टी की सरकार में वे विदेश मंत्री थे। ऐसे ही जब भी संसद में विदेशी मामलों पर चर्चा होती थी, वे अपने विचारों से लोगों को चकित कर देते थे
हम युद्ध और शांति के बीच तटस्थ कभी नहीं रह सकते। हम गुलामी और स्वतंत्रता के बीच तटस्थ नहीं रह सकते। हम आजादी के लिए खड़े हैं। हम अपनी आजादी के लिए लड़े और अपने स्वतंत्रता संघर्ष के दिनों से ही, हम दक्षिण अफ्रीका में स्वतंत्रता सेनानियों की मदद कर रहे हैं। नामीबिया या रोडेशिया या दक्षिणी अफ्रीका में जातिवादी गोरे शासकों के समर्थन का कोई प्रश्न ही खड़ा नहीं हो सकता। रंग भेद मानवता के विरुद्ध एक अपराध है। हम दूसरे गुटनिरपेक्ष देशों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर इस अपराध के विरुद्ध दूसरे देशों से लड़ रहे हैं। हम ऐसी विश्व व्यवस्था के प्रति वचनबद्ध हैं, जहां न तो कोई राजनीतिक प्रभाव हो और न ही जातीय भेदभाव। यदि आजादी खतरे में हो, यदि अन्याय करने का अपराध किया जाए, यदि ऐसे लोगों के द्वारा हम पर युद्ध थोपा जाए जिनको शस्त्र व्यापार से लाभ होता है। लेकिन गुटनिरपेक्षता का अनुकरण विश्व परिस्थिति को बदलने के सम्मान के साथ किया जाए। यह केवल एक राजनीतिक नीति ही नहीं हो सकती। वास्तव में हमें कुछ निश्चित सिद्धांतों से जुड़े रहना है, यदि परिस्थिति बदलती है तो हमें समायोजन करना पड़ेगा और उस समायोजन को छोड़ा नहीं जा सकता।
मुझे खेद सहित यह कहना पड़ रहा है कि कुछ मिथ्या आरोप हैं। मैं स्वीकार करता हूं कि पाकिस्तान से संबंध सुधारने की प्रक्रिया पिछली कांग्रेस सरकार के समय हुई थी। लेकिन मैं उस प्रक्रिया को आगे ले गया हूं। मुझे बधाई दी जानी चाहिए या लांछन? मैं जानता हूं आप बधाई नहीं देंगे। आप कंजूस हैं। मैंने बिना किसी कंजूसी के पूर्व प्रधानमंत्री की प्रशंसा की थी, यद्यपि मैंने उन्हें काली या दुर्गा नहीं कहा था। (8 अगस्त, 1978, राज्यसभा, विदेश मंत्री के रूप में)
कम्युनिस्टों का कुप्रचार
ऊपरी गढ़वाल में दो गांव हैं-चान्यी और थान्यी। कम्युनिस्ट पूरे इलाके में जनता को यह बताते घूमे कि यह क्षेत्र चीन का है, क्योंकि गांवों के नाम चीनी लगते हैं। उत्तर प्रदेश के अन्य पर्वतीय जिलों में स्थानीय कम्युनिस्ट भारत सरकार पर चीनी हमले का हौवा खड़ा करने का आरोप लगा रहे हैं, ताकि अन्य जरूरी समस्याओं, जैसे बेरोजगारी और बढ़ती कीमतें आदि से जनता का ध्यान हटाया जा सके। मैं चाहूंगा कि कम्युनिस्ट पार्टी के प्रवक्ता ठीक तरह से उत्तर दें। सवाल यहां सिर्फ ‘न्यू ऐज’ का नहीं है, जिसका उल्लेख प्रधानमंत्री जी ने किया है। लखनऊ से ‘न्यू ऐज’ का एक हिंदी संस्करण निकलता है, जिसका नाम ‘जनयुग’ है। उस पत्र ने उत्तर प्रदेश सरकार के एक विज्ञापन को छापा था। जब चीन की आक्रामक गतिविधियां बढ़ने लगीं तो उत्तर प्रदेश सरकार ने प्रदेश के सभी हिंदी अखबारों को एक विज्ञापन दिया। ‘जनयुग’ में भी वह विज्ञापन छपा। इसके कुछ दिन बाद ‘जनयुग’ के संपादक ने अखबार में एक माफीनामा छापा। उसमें कहा गया, ‘‘हमने जो विज्ञापन छापा है, यह बड़ी गलती की। हमने बड़ा पाप किया। हमें चीन को आक्रामक नहीं कहना चाहिए। हमने अपने लोगों की भावनाओं को दुख पहुंचाया है।…’’ (31 अगस्त, 1960, लोकसभा)
‘‘हमने जो विज्ञापन छापा है, यह बड़ी गलती की। हमने बड़ा पाप किया। हमें चीन को आक्रामक नहीं कहना चाहिए। हमने अपने लोगों की भावनाओं को दुख पहुंचाया है।…’’
– ‘जनयुग’ के संपादक द्वारा अखबार में प्रकाशित माफीनामा
अल्जीरिया की चिंता, तिब्बत की नहीं!
प्रधानमंत्री जी ने अपने भाषण में अल्जीरिया का उल्लेख किया है। स्वाभाविक है जब एशिया के नए-नए देश स्वाधीनता के प्रभात में प्रवेश कर रहे हैं और उनके जीवन के नए अध्याय का श्रीगणेश हो रहा है, हमारा ध्यान अल्जीरिया की तरफ जाए। लेकिन अल्जीरिया की तरफ हम अपना ध्यान ले जाएं और हमारे पड़ोस में तिब्बत में ही मानवाधिकारों का उल्लंघन होता रहे, तिब्बत में नरसंहार के तथा दूसरी तरह के गंभीर आरोप लगाए जाते रहें और हमारी सरकार तिब्बत के संबंध में चुप रहने की नीति अपनाए और जब संयुक्त राष्ट्र संघ में प्रश्न उठता हो तो इस प्रश्न पर विचार किया जाए, यह तक कहने के लिए तैयार न हो, तो फिर साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद के बारे में हमारी जो घोषणाएं हैं, वे अपना कुछ अर्थ खो देती हैं। एक ओर तो पश्चिमी साम्राज्यवाद पीछे जा रहा है, गुलाम देश स्वाधीन हो रहे हैं और इधर हमारे पड़ोस में एक नया साम्राज्यवाद सिर उठा रहा है।
वाममार्गियों को चीनी दूतावास से धन
इस बात का भी पता लगाना जरूरी है कि गृह मंत्री ने दूसरे सदन में कहा था कि जो वाममार्गी कम्युनिस्ट हैं, उन्हें चीनी राजदूतावास से धन मिलता है। इस संबंध में ‘बैंक आफ चाइना’ के हिसाब का भी उल्लेख किया गया है। हम इस सदन से मांग कर चुके हैं कि ‘बैंक आफ चाइना’ के हिसाब-किताब की जो जांच हुई है उसके परिणामों से देश को, सदन को परिचित किया जाए। कम्युनिस्ट कहते हैं, कुछ कांग्रेसियों ने ‘बैंक आफ चाइना’ से रुपया लिया है अैर जहां तक मेरी जानकारी है, कम्युनिस्ट पार्टी के बड़े-बड़े नेताओं ने ‘बैंक आफ चाइना’ से रुपए निकाले और चुनाव के पहले इतनी बड़ी मात्रा में रुपया निकाला गया कि जिसका वहां कोई हिसाब नहीं है, बिना नाम के चेक से रुपया निकाला गया। यह रुपया कहां गया? यह रुपया पाने वाले कौन लोग हैं? आखिर सरकार ‘बैंक आॅफ चाइना’ के हिसाब की जांच-पड़ताल की रिपोर्ट संसद के सामने रखने में संकोच क्यों करती है? विदेशी राजदूतावासों पर यह प्रतिबंध लगाना चाहिए कि वे अपने विज्ञापन और प्रेस में अपनी छपाई का काम केवल सरकार द्वारा कराएंगे। विदेशी राजदूतावास जिन तत्वों को, जिन शक्तियों को, मदद देना चाहते हैं तथा रुपया देकर मदद दे रहे हैं, उन्हें छपाई के काम तथा अखबारों में विज्ञापन देकर मदद कर रहे हैं। क्यों न सूचना तथा प्रसारण मंत्रालय विदेश मंत्रालय के साथ विचार-विनिमय करके विदेशी राजदूतावासों को सूचित करे कि आप जो कुछ छपाई का काम कराएंगे, जो कुछ विज्ञापन, वह हमारे जरिए कराएंगे। इस समय आप जो छपाई का काम करते हैं, विज्ञापन देते हैं, इसके जरिए अपने धन से हमारे देश की राजनीति को प्रभावित करते हैं। (31 अगस्त, 1960, लोकसभा)
जनसंघ किसी बाजू से पैसा नहीं लेता
अध्यक्ष महोदय, यह बहुत गंभीर मामला है। अभी मेरे दल का नाम लिया गया है और आरोप भी लगाया गया है कि हमने अमेरिका से पैसा लिया। एक तरफ आरोप लगाया जाता है कि अमेरिका से हमने पैसा लिया। दूसरी ओर ‘यंग इंडिया’ में एक लेख में यह छपा था कि हमने रूस से पैसा लिया। मैं साफ कह देना चाहता हूं हम किसी बाजू से पैसा नहीं लेते। विदेशों से पैसा लेकर चुनाव लड़ने के बजाय हम राजनीति से संन्यास लेना पसंद करेंगे। अगर यह साबित हो जाए कि जनसंघ ने अमेरिका से या रूस से पैसा लिया है तो मैं जनसंघ से कोई संबंध नहीं रखूंगा। विदेशों से पैसा लेना एक गद्दारी है और हम गद्दारी में कभी भागीदार नहीं हो सकते। लेकिन मेरा एक निवेदन यह भी है कि इंटेलीजेंस ब्यूरो जो जांच कर रहा है, यह जांच पर्याप्त नहीं है, यह जांच देश में विश्वास पैदा नहीं कर सकती। मैं चाहता हूं कि सुप्रीम कोर्ट के किसी जज को नियुक्त किया जाए और हमको कठघरे में खड़ा किया जाए। सरकार हमारे खिलाफ आरोप लाए और हम सफाई देंगे। अगर आरोप साबित हो गया तो हम बड़ी से बड़ी सजा भुगतने के लिए तैयार हैं। (12 दिसंबर, 1967, लोकसभा)
(यह लेख डॉ.ना.मा.घटाटे द्वारा संपादित पुस्तक ‘अटल बिहारी वाजपेयी : मेरी संसदीय यात्रा’ के कुछ अंशों पर आधारित है)
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