बिलकिस बानो गैंगरेप का मामला आज फिर सुप्रीम कोर्ट में मेंशन किया गया। इस पर चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि याचिका को सूची में शामिल किया जाएगा। एक ही बात का जिक्र बार-बार न करें। यह बहुत परेशान करने वाला है। बिलकिस ने अपनी याचिका में गैंगरेप और हत्या के मामले के 11 दोषियों को सजा में छूट देने के फैसले को चुनौती दी है।
इस मामले की सुनवाई से 13 दिसंबर को जस्टिस बेला त्रिवेदी ने खुद को अलग कर लिया था। अब इस मामले की सुनवाई वो बेंच करेगी, जिसकी सदस्य जस्टिस बेला त्रिवेदी नहीं होंगी। बिलकिस ने अपने साथ गैंगरेप और परिवार के लोगों की हत्या के दोषियों की रिहाई का विरोध किया है। मामले में दूसरी याचिकाओं पर एक बेंच पहले से सुनवाई कर रही है।
बिलकिस बानो की पुनर्विचार याचिका में मांग की गई है कि 13 मई के आदेश पर दोबारा विचार किया जाए। 13 मई के आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि गैंगरेप के दोषियों की रिहाई में 1992 में बने नियम लागू होंगे। इसी आधार पर 11 दोषियों की रिहाई हुई है। सुप्रीम कोर्ट ने 21 अक्टूबर को इस मामले में नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन वुमन की ओर से दाखिल याचिका को मुख्य याचिका के साथ टैग करने का आदेश दिया था। याचिका में गुजरात सरकार के दोषियों की रिहाई के आदेश तत्काल रद्द करने की मांग की गई है।
गुजरात सरकार ने 17 अक्टूबर को हलफनामा दाखिल कर कहा था कि बिलकिस बानो गैंगरेप केस के दोषियों को उनकी सजा के 14 साल पूरे होने और उनके जेल में अच्छे व्यवहार की वजह से रिहा किया गया। हलफनामे में कहा गया है कि दोषियों की रिहाई केंद्र सरकार की अनुमति के बाद की गई। गुजरात सरकार ने कहा था कि दोषियों की रिहाई का फैसला कैदियों को रिहा करने के सुप्रीम कोर्ट के 9 जुलाई, 1992 के दिशानिर्देश के आधार पर किया गया है न कि आजादी के अमृत महोत्सव की वजह से। गुजरात सरकार ने कहा कि बिलकिस बानो के दोषियों की समय से पहले रिहाई का एसपी, सीबीआई, सीबीआई के स्पेशल जज ने विरोध किया था।
बिलकिस बानो गैंगरेप केस के दोषियों ने 24 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट में अपना जवाब दाखिल किया था। जवाब में कहा गया था कि गुजरात सरकार का उनकी रिहाई का फैसला कानूनी तौर पर ठीक है। उनकी रिहाई के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिकाकर्ता सुभाषिनी अली और महुआ मोइत्रा का केस से कोई संबंध नहीं है। आपराधिक केस में तीसरे पक्ष के दखल का कोई औचित्य नहीं बनता है। दोषियों के जवाब में कहा गया था कि उनकी रिहाई के खिलाफ न तो गुजरात सरकार ने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है और न ही पीड़ित ने। यहां तक कि इस मामले के शिकायतकर्ता ने भी कोर्ट का दरवाजा नहीं खटखटाया है। ऐसे में कानून की स्थापित मान्यताओं का उल्लंघन होगा।
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