न भूलने वाला पल
रात में हमारे मोहल्ले में मुसलमान जोर-जोर से अल्लाह-हू-अकबर का नारा लगाने लग जाते थे। डराने-धमकाने की कवायद शुरू हो चुकी थी।
शकुंतला सेठ
लाहौर, पाकिस्तान
उन दिनों पाकिस्तान में चीजें बदलनी शुरू हो गई थीं। बंटवारे और भारत-पाकिस्तान बनने की आहट पूरी तरह से लोगों के दिलो-दिमाग पर हावी थी। चारों तरफ एक ही चर्चा होती थी, वह थी सिर्फ बंटवारे की। हिन्दू आतंकित होने के साथ शंका में थे। कहां जाएंगे, क्या होगा, व्यापार-दुकान के बिना जीवन कैसे कटेगा, क्या अपनी मातृभूमि भी छोड़नी पड़ेगी? तो दूसरी तरफ कुछ लोग थे, जो इन सवालों से दूर भागते थे और कहते थे कि जिएंगे भी यहीं और मरेंगे भी यहीं, चाहे कुछ भी हो जाए।
खैर, हमारे परिवार में माता-पिता के साथ मैं, दो बहन, तीन भाई थे। मेरे पिताजी शहर के अनारकली बाजार के सीता मार्केट में काम करते थे। बंटवारे के पहले अड़ोस-पड़ोस में सब ठीक था। लेकिन कभी-कभी रात में हमारे मोहल्ले में मुसलमान जोर-जोर से अल्लाह-हू-अकबर का नारा लगाने लग जाते थे। डराने-धमकाने की कवायद शुरू हो चुकी थी।
धीरे-धीरे मेहनत करने से जिंदगी पटरी पर आने लगी। लेकिन इस बीच सबको अनेक कष्ट सहने पड़े क्योंकि चीजें जड़ से उखड़ चुकी थीं। हम कुछ साथ नहीं लाए थे, सो परेशानियों को शब्दों में बताया नहीं जा सकता। उस समय पाकिस्तान से जो लोग आए, उनके दर्द को सिर्फ वही समझता है, जो इस पीड़ा से गुजरा।
धीरे-धीरे उन्माद का माहौल बनाया जाने लगा था। लेकिन हिन्दुओं का यहां भी एक वर्ग था जो इनसे मोर्चा लेने के लिए तैयार रहता था और हर-हर महादेव का जयघोष करके चुनौती देता था। लगभग 15 दिन हम लोग इसी माहौल में रहे। अंत में वातावरण इतना खराब हो गया कि वहां पर रहना मुश्किल हो गया। सो एक दिन वहां से पलायन करने का निर्णय हुआ। पिताजी किसी तरह हम लोगों को सुरक्षित स्थान पर लेकर आये। जहां रहे, वहां अनेक कष्टों का सामना किया। फिर वहां से हम सभी किसी तरह से सहारनपुर पहुंचे।
यह भगवान की कृपा थी कि उस समय लाखों लोग जिस पीड़ा से गुजरे, उसमें हमारा परिवार सकुशल बचकर भारत आ सका। लेकिन मेरा एक भाई वहीं रह गया था, क्योंकि घर में बहुत सामान वगैरह था। सोचा था कि महिलाएं सकुशल भारत पहुंच जाएं, कोई एक पुरुष बचे सामान को लेकर आ जाएगा। परंतु जो हम लोग साथ ले आ पाए, वही आ सका।
जो वहां रह गया, उसे मेरा भाई नहीं ला सका। 1947 में लाहौर से चलकर पूरा परिवार सहारनपुर तो आया, लेकिन सब कुछ छोड़कर। कुछ दिन हम लोग सहारनपुर रहे और बाद में बागपत में रहने लगे। यहां पर कुछ परिवार थे ही और भी कुछ परिवार साथ आ गए। हमारे चाचाजी आंख के डॉक्टर थे, तो उन्होंने हम सभी को व्यवस्थित करवाया।
इसके बाद धीरे-धीरे मेहनत करने से जिंदगी पटरी पर आने लगी। लेकिन इस बीच सबको अनेक कष्ट सहने पड़े क्योंकि चीजें जड़ से उखड़ चुकी थीं। हम कुछ साथ नहीं लाए थे, सो परेशानियों को शब्दों में बताया नहीं जा सकता। उस समय पाकिस्तान से जो लोग आए, उनके दर्द को सिर्फ वही समझता है, जो इस पीड़ा से गुजरा।
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