भारत सरकार ने भारत की आज़ादी के अमृत वर्ष पूरे होने के जश्न के हिस्से के रूप में बहादुर वनवासी स्वतंत्रता सेनानियों को सम्मानित करने हेतु 15 नवंबर को ‘जनजातीय गौरव दिवस’ के रूप में मनाने का आग्रह किया है। इस दिवस का उद्देश्य भारत की साझी सनातन सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण और राष्ट्रीय गौरव, वीरता तथा आतिथ्य के भारतीय मूल्यों को बढ़ावा देने में वनवासियों के प्रयासों को मान्यता देने हेतु प्रतिवर्ष ‘जनजातीय गौरव दिवस’ के रूप में मनाने के लिए किया गया है।
भारत विखंडनकारी ताकतें भारत के मूल को तोड़ने को प्रयासरत
भारत सरकार के इस फैसले को जब मैं एक सुदूर वनवासी क्षेत्र एवं जनजाति समाज का रहवासी होकर इन विषयों को भारत के बदलते जनसांख्यिकी परिदृश्य के माध्यम से देखने का प्रयास करता हूं, तो मैं पाता हूं कि भारत में विखंडनकारी ताकतें, भारत के इस विविधता का प्रयोग कर भारत के मूल चरित्र पर आघात करने का प्रयास कर रही हैं। हम देखते हैं कि समय-समय पर यह ताकतें भारत के एक साझी सनातन सांस्कृतिक विरासत को आघात कर भारतीय मूल्यों पर प्रश्न चिन्ह लगाने का प्रयास करती रही हैं।
जनजाति समाज की इस सनातन परंपरा, धर्मभक्ति एवं स्वतंत्रता के प्रति समर्पण के साथ वीरत्व भाव को देखकर साम्राज्यवादी शक्तियों ने उन्हें शेष समाज से काटने के लिए उनके बीच में अलगाव के बीज बोने प्रारंभ किए। सनातन भारतीय परंपरा से अलग करने का एक सुनियोजित एवं व्यापक षड्यंत्र 18वीं शताब्दी से ही प्रारंभ हो गया था। ईस्ट इंडिया कंपनी, इंग्लैंड प्रेरित विद्वान एवं चर्च मिशनरीज तीनों ने मिलकर ब्रिटिश सत्ता को सुदृढ़ करने के लिए कार्य का विभाजन किया। इस कार्य विभाजन में मिशनरीज के पास तथाकथित अस्पृश्य एवं जनजाति समाज को भारतीय सनातन परंपरा से अलग करने का काम आया था। अलगाव, मिथ्या एवं भ्रामक प्रचार के 13 सूत्री एजेंडे का यह 12 वां बिंदु था। प्रसिद्ध पत्रकार एवं लेखक अरुण शौरी ने अपनी पुस्तक “भारत में ईसाई धर्म प्रचार तंत्र” में इसका विषद् वर्णन किया है। स्वतंत्रता के पश्चात मिशनरीज के इस अभियान में वामपंथी संगठन, तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादी लेखक एवं पत्रकार भी जुड़ गए। जनजाति समाज में छोटी छोटी पहचान को प्रचारित करके अलगाव के माध्यम से यह षड्यंत्र आज तक जारी है।
चर्च प्रेरित इस षड्यंत्र को सफल करने का माध्यम शिक्षा, चिकित्सा एवं सेवा का अपनाया गया । लेकिन इस सेवा के पीछे भावना अलगाव की ही थी। इसका परिणाम निकला कि वनवासी समाज अपनी परंपरा एवं महापुरुषों से कटता गया, एवं ईसाई पंथ में मतांतरित होता गया। जिसके परिणाम स्वरूप नए-नए आतंकी संगठन एवं अलगाव के आंदोलन खड़े होते गए। आज भी उत्तर पूर्वांचल के अनेक राज्यों सहित छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा जैसे जनजाति प्रभाव वाले राज्यों में इसके उदाहरण देखे जा सकते हैं।
भारत की संस्कृति मूल रूप से सनातन संस्कृति है
भारत के साझी सांस्कृतिक विरासत मूल रूप से सनातनी रही है, इसके प्रचुर प्रमाण हमें मिलते हैं, जैसे कि भारत के ज्यादातर वन बहुल क्षेत्रों का जिक्र एवं वर्णन रामायण जैसे महाकाव्य में मिलता है, उसी प्रकार महाभारत में अर्जुन का नागा राजकुमारी उलुपी एवं मणिपुरी राजकुमारी चित्रांगदा के वैवाहिक संबंधों का वर्णन भी मिलता है।
जनजाति समाज सदियों से सनातन हिंदू परंपरा का अंग रहा है। प्रकृति का उपासक जनजाति वर्ग अपने को कभी हिंदू समाज से अलग नहीं मानता था। सनातन हिंदू परंपरा में भी वृक्षों, जल एवं प्रकृति की पूजा आज भी होती है। वटवृक्ष, तुलसी, नदी, समुद्र आदि की पूजा देश के संपूर्ण भागों एवं प्रत्येक वर्गों में आज भी प्रचलित है। देश की अनेक जनजातियां अपना संबंध भगवान श्री राम के साथ, छत्तीसगढ़ में माँ कौशल्या के साथ, उत्तर पूर्वांचल में भगवान श्री कृष्ण एवं उनकी पत्नी रुक्मणी के साथ जोड़ती है। देहरादून (उत्तराखंड) में आज भी लाखामंडल ( लाक्षागृह) एवं जौनसार में प्रचलित बहुपति प्रथा को पांडवों के साथ जोड़कर देखा जाता है। मणिपुर के लोग रुक्मणी को अपना मानते हैं। उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश सहित भारत और नेपाल के तराई भागों में फैली थारू जनजाति महाराणा प्रताप का वंशज मानने में गौरव का अनुभव करती है। थारू जनजाति के प्रत्येक परिवार के पूजा स्थान में हल्दीघाटी की पवित्र मिट्टी आज भी विद्यमान है। अलाउद्दीन खिलजी के धार (मध्य प्रदेश)पर आक्रमण के कारण वहां के राज परिवार से संबंधित राजा जगत देव अपनी आराध्य देवी बाल सुंदरी का विग्रह लेकर आज के उत्तराखंड में आए थे। जो बुक्सा जनजाति के नाम से जाने जाते हैं। उनके द्वारा स्थापित सम्पूर्ण समाज द्वारा काशीपुर (उत्तराखंड) में बाल सुंदरी की देवी स्वरूप उपासना वर्तमान में भी होती है।
न सिर्फ पौराणिक कथाओं में इसका वर्णन मिलता है बल्कि आधुनिक काल में भगवान बिरसा मुंडा के साथ-साथ तिलकामांझी, नागा रानी गाइदिन्ल्यू , ताना भगत, सुरेंद्र साए वीर नारायण सिंह सहित अल्लूरी सीताराम राजू के नेतृत्व में हुए विद्रोही आंदोलनों में इस बात का प्रमाण मिलता है की यह आंदोलन भारत की हिंदू अस्मिता को बचाने के लिए था। चाहे वो 1955 का संथाल विद्रोह जिसमे सिद्धू और कान्हू ने ठाकुर (जो एक दिव्य संस्था है) के आदेश को पवित्र मानकर बाकी हिंदू जातियों के सहयोग से लेकर अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई लड़ी, या फिर जात्रा उरांव जनजाति द्वारा लड़ी गई तान्हा भक्ति आंदोलन हो जिसमे भजन का प्रयोग कर जो मूल रूप से सनातनी है उसका प्रयोग कर जन जागृति लायी गई। उत्तर से दक्षिण एवं पूर्व से पश्चिम ऐसे अनेकों जनजाति आन्दोलन हैं जिसका स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान रहा है और वो मूल रूप से अपने स्वभाव में सनातनी रहा है।
भगवान बिरसा मुंडा सनातन परंपरा के ध्वजवाहक
भगवान बिरसा मुंडा के जन्मदिवस को जनजाति गौरव दिवस के रूप में जोड़ना भी अपने आप में गौरान्वित कर देने वाला है, बड़ी बात यह है कि देश की 705 अनुसूचित जनजाति वर्गों में से केवल बिरसा मुंडा के साथ जनजाति गौरव जोड़ा गया है। इसका मतलब यह है कि भगवान बिरसा मुंडा के सनातन परंपरा के ध्वजवाहक होने को गौरान्वित किया गया हैं। उनकी स्पष्ट उद्घोषणा थी कि सनातन संस्कृति की कीमत पर राजनीतिक आर्थिक विकास का कोई महत्व नहीं है। सच्चाई यह है कि हिंदुत्व और सनातन तत्व ही भारत की एकता और अखंडता की बुनियाद है। इस बुनियाद को कमजोर करने का षड्यंत्र भारत और भारत के बाहर औपनिवेशिक कालखंड से ही सतत जारी है। 2014 कि बाद इन षड्यंत्रकारी शक्तियों की जमीन बुरी तरह से हिली है। यही उस बड़े उदारवादी वर्ग की चिंता का सबब है जो भारत में कभी मूल निवासी कभी आर्य-अनार्य के विवाद खड़े करता रहा है।
निष्कर्षत: आज जब भारत का शासन प्रशासन भारत की जनजातियों को पाश्चात्य संस्कृति के नजरियों से न देखते हुए स्वदेशी मूल्यों के साथ एकीकृत देखने का प्रयास कर रही है, तब यह समझ में आता है कि आज आवश्यकता है कि इस जनजाति गौरव दिवस में हम विचलित जनजाति समाज के लोगों को भारत के मूल सनातन संस्कृति में पुनः जोड़ने का प्रयास करें एवं भारत विखंडनकारी ताकतों के प्रयासों को नेस्तनाबूद कर भारत को पुनः विश्व गुरु बनाएं।
लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में, राजनीति विज्ञान के शोधार्थी हैं, एवं अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में जेएनयू विभाग के विभाग संयोजक हैं। लेखक, भारत देश के एक जनजातीय संपदा और ज्ञान से परिपूर्ण प्रदेश छत्तीसगढ़ से आते हैं, और जनजातीय विषयों पर अच्छी समझ एवं व्यावहारिक अनुभव रखते हैं।
(लेखक जेएनयू में शोधार्थी हैं)
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