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जसुली दताल जिन पर देवभूमि को है गर्व

जसुली दताल ने तीन सौ से अधिक धर्मशालाएं बनवाई थीं। इन सभी धर्मशालाओं को बनवाने में बीस वर्ष से अधिक का समय लगा था। ये धर्मशालाएं अधिकांश उन मार्गों पर बनाई गईं थी, जिनसे भोटिया व्यापारी आवागमन किया करते थे।

by उत्तराखंड ब्यूरो
Nov 9, 2022, 11:16 am IST
in उत्तराखंड
जसुली दताल

जसुली दताल

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उत्तराखंड के सुदूर हिमालय क्षेत्र की रहने वालीं जसुली दताल शौक्याणी.पर देव भूमि की जनता को हमेशा गर्व अनुभूति हुई है। उत्तराखण्ड राज्य के अति दुर्गम भौगोलिक परिस्थितियों वाले पहाड़ी क्षेत्रों में धर्मशाला, मंदिर, मन्याओं का जनहित में सर्वाधिक निर्माण कराने वाली दारमा जोहार क्षेत्र की महानतम दानवीर महिला जसुली दताल जिन्हें स्थानीय भाषा में जसूली शौक्याणी भी कहा गया है। लला, आमा के नाम से सुविख्यात जसुली दताल ने उत्तराखण्ड राज्य के कुमाऊं, गढ़वाल के अति दुर्गम क्षेत्रों से लेकर दूरस्थ नेपाल के अति विकट परिस्थितियों वाले पहाड़ी क्षेत्रों में मन्याओं और धर्मशालाओं का निर्माण करवाया था।

उत्तराखण्ड राज्य में सुप्रसिद्ध धार्मिक क्षेत्र सोमेश्वर, जागेश्वर, बागेश्वर, कटारमल, द्वाराहाट आदि स्थान मन्दिरों के लिए प्रसिद्ध होने के कारण इन मार्गों पर सबसे अधिक मन्याओं का निर्माण कार्य हुआ है। अठारहवीं सदी या उससे पहले जब यातायात के संसाधन अधिक नहीं थे, तब व्यापारिक, धार्मिक, विवाह आदि यात्राएं पैदल ही की जाती थीं, ऐसे विकट समय में पैदल मार्ग वाले निर्जन, कठिन और धार्मिक महत्त्व के स्थानों में रात्रि विश्रामालयों और धर्मशालाओं का निर्माण करवाना बेहद पुण्यदायी कार्य माना जाता था। धारचूला के दांतू गांव की महान दानवीर महिला जसुली दताल ने लगभग दो सौ साल पहले दारमा घाटी से लेकर भोटिया पड़ाव हल्द्वानी तक व्यापारिक काफिलों और धार्मिक तीर्थयात्रियों के लिए उत्तराखण्ड राज्य के पिथौरागढ़, अल्मोड़ा, धारचूला, टनकपुर, अल्मोड़ा और बागेश्वर सहित संपूर्ण कुमाऊं के पैदल रास्तों पर धर्मशालाओं का निर्माण करवाया था।

जसुली दताल का जन्म उत्तराखण्ड राज्य के पिथौरागढ़ के धारचूला के ग्राम दांतू में हुआ था। वह शौका समुदाय से आती थीं, जिनका तिब्बत के साथ व्यापार चलता था। तत्कालीन समय में जसुली दताल शौक्याणी की गिनती उत्तराखण्ड के गढ़वाल और कुमाऊं के सबसे संपन्न लोगों में होती थी। जसुली दताल की बेहद कम उम्र में ही उनके पति का देहांत हो गया था। दुर्भाग्यवश उनके एक मात्र पुत्र की भी असमय मृत्यु हो गयी थी। हताशा भरे जीवन ने जसुली को तोड़ कर रख दिया था। एक दिन उन्होंने फैसला लिया कि वह अपना सारा धन नदी में बहा देंगी। संयोग से उस दुर्गम इलाके से तत्कालिक कुमाऊं के कमिश्नर हैनरी रैमजे का काफिला गुजर रहा था। अंग्रेज कमिश्नर ने देखा एक महिला चांदी के सिक्कों को एक-एक कर नदी में बहा रही थी। धन से इतनी निर्लिप्तता देखकर कमिश्नर हेनरी रैमजे स्तब्ध रह गए। दांतू ग्राम पहुंचे कमिश्नर हेनरी रैमजे को गांव वालों ने बताया कि जसुली दताल हर सप्ताह मन भर रुपयों के सिक्के नदी को दान कर देती है।

कमिश्नर रैमजे ने जसुली दताल से मिलकर हिन्दू धर्म संबंधित विषयों पर चर्चा कर दान के महत्व को समझाया। उन्होंने जसुली दताल को बताया कि इस दुनिया में सब कुछ नश्वर है, धन-संपत्ति, बाहरी सुंदरता एक न एक दिन नष्ट होनी है, लेकिन जो शाश्वत सत्य है वह नि:स्वार्थ सेवाभाव है। उनके द्वारा नि:स्वार्थ भाव से की गई सेवा हमेशा याद रखी जाएगी, आने वाली पीढ़ियों के लिए एक उदाहरण के रूप में उपस्थित रहेंगी। इस अपार धन का उपयोग अगर जनहित में किया गया तो जसुली दताल को बेहद पुण्यलाभ होगा। जसुली दताल ने धर्म के महत्व को समझते हुए जनहित में धन के उपयोग पर सहमति प्रदान की और अपनी समस्त धन सम्पत्ति को घोड़ों पर लाद कर अल्मोड़ा पहुंचा दिया। कमिश्नर हेनरी रैमजे के सहयोग से जसुली दताल ने तीन सौ से अधिक धर्मशालाएं बनवाई थी। इन सभी धर्मशालाओं को बनवाने में बीस वर्ष से अधिक का समय लगा था। ये धर्मशालाएं अधिकांश उन मार्गों पर बनाई गईं थी, जिनसे भोटिया व्यापारी आवागमन किया करते थे। उन्होंने कैलाश मानसरोवर के अति दुर्गम यात्रा मार्ग पर भी धर्मशालाओं का निर्माण करवाया था।

जसूली दताल की बनवाई सबसे प्रसिद्ध धर्मशालाएं नारायण तेवाड़ी देवाल, अल्मोड़ा की हैं। इसके अतिरिक्त वीरभट्टी नैनीताल, हल्द्वानी, रामनगर, कालाढूंगी, रांतीघाट, पिथौरागढ़, भराड़ी, बागेश्वर, सोमेश्वर, लोहाघाट, टनकपुर, ऐंचोली, थल, अस्कोट, बलुवाकोट, धारचूला, कनालीछीना, तवाघाट, खेला, पांगू आदि अनेक स्थानों पर बनी धर्मशालाएं उस महान दानवीर जसुली दताल शौक्याणी की दानशील भावना को प्रकट करती हैं। ये धर्मशालाएं नेपाल-तिब्बत के व्यापारियों और वहां के तीर्थयात्रियों के लिए उत्तराखण्ड के संपूर्ण कुमाऊं क्षेत्र में बनवाई गयी थीं। जसूली दताल शौक्याणी द्वारा निर्मित समस्त धर्मशालाओं में पीने के पानी के साथ अन्य सुविधाओं की भी अच्छी व्यवस्था होती थी। जसुली दताल शौक्याणी द्वारा जनहित बनवाई गयी इन धर्मशालाओं का वर्णन सन 1870 में अल्मोड़ा के तत्कालीन कमिश्नर शेरिंग ने अपने यात्रा वृत्तान्त में भी किया है। इन धर्मशालाओं के निर्माण के दौ सौ पचास वर्ष पश्चात भी इनका निरंतर उपयोग होता रहा था। उस समय कैलास मानसरोवर व अन्य तीर्थस्थलों को जाने वाले तीर्थयात्री, व्यापारी और आम यात्री इन धर्मशालाओं में आराम करने और रात्रि विश्राम के लिए उपयोग करते थे।

कालांतर में उक्त क्षेत्रों में अधिकांश सड़कों के बन जाने और तीव्र गति के यातायात के साधनों का प्रचलन होने पर इन धर्मशालाओं का उपयोग धीरे–धीरे बंद होता चला गया। समय उपरांत ये सभी धर्मशालाएं भी जीर्ण–शीर्ण होती चली गईं थी। कुछ धर्मशालाओं को सड़कों के निर्माण मार्ग में आने के कारण तोड़ भी दिया गया। शेष मन्याएं या तो जीर्ण-शीर्ण अवस्था में नष्ट होती गईं अथवा किन्हीं स्थानों में पुनर्निर्माण के कारण इनका रूप और आकार बदल गया है। वर्तमान उत्तराखण्ड सरकार के पर्यटन विभाग द्वारा अब महत्वपूर्ण निर्णय लिया गया है कि बदहाली से जूझ रही ऐतिहासिक महत्व की अल्मोड़ा हल्द्वानी हाईवे पर खीनापानी बाजार के समीप जसुली दताल शौक्याणी द्वारा निर्मित कराई गई इन धर्मशालाओं की मरम्मत आदि करके इन्हें हेरिटेज के रूप में विकसित किया जाएगा। जसुली दताल शौक्याणी से जुड़ी ऐतिहासिक धार्मिक महत्व समस्त जानकारियां लोगों तक पहुंचाने के लिए एक संग्रहालय भी तैयार किया जाएगा। वस्तुतः दो सौ साल पूर्व बनवाई गई जसूली दताल शौक्याणी की मान्यताओं को सुरक्षित और संरक्षित करने का विचार प्रशंसनीय एवं सराहनीय है।

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